Book Title: Vairagyashatakama
Author(s): Ramchandra D Shastri
Publisher: Ramchandra D Shastri
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स्थाने स्थाने समुन्य धनस्वजनसंघातान् ठाणघाणंमि समु । निकण धणसयणसंघाए ॥ ७ ॥ अर्थ-हे आत्मन् ! (जीवो के०) आ जीव जे ते (जववणे के०) संसाररूप अटवीने विषे (गणमामि के०) स्थान स्थानने विषे धणसयणसंघाए के०) धन तथा वजन तेना समूहने (समुनिकण के०) त्याग करीने (गयणमग्गे | के०) आकाशमार्गने विषे (पवणु व के०) पवननी पेठे (अल स्किन केय) अदृश्य रूपे थयो सतो (नम के०) नमे . ॥ ७ ॥ | नावार्थ-जेम आकाश मार्गमां वायु फरे , तेमा जीव पण लवाटवी मां अदृश्यपणाथी एंटले आ पूर्वे महारो कोण सगो हतो? तेवा अजाणपणाथी
अनेक स्थानने विषे ब्रमण करे . तेमां अनेक नवने विषे मलेलां धन तथा * वजन इत्यादिकनो त्याग करीने एटले तेमनी शी गति हशे? एवी चिंता मूकी
ने वर्तमानकालनां स्वजनादिकने सुखी करवाने तथा धन भेलववाने अर्थे देशो
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