Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 04
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१५ ॥८६५॥ (निश्चं आयगुत्ते) आत्म रक्षक (चरे) विचरे, तथा [अवव्वग्गम ने] अव्यग्र अने (असंपहिले) असंप्रहृष्ट (जो) जे साधु (कसिणं) उत्तराध्य आकोशादिकने (अहिआसए) सहन करे [स भिक्खू] ते साधु कहेवाय ॥ ३॥ यन सूत्रम् व्या०-पुनः स भिक्षुरित्युच्यते. स इति कः? य आक्रोशश्च वधश्चानयोः समाहार आक्रोशवधं वाक्तजनताडनं REL ॥८६५01 विदित्वा स्वकर्मफलं ज्ञात्वा धीरस्तदाकोशवधादिसहनशीलो मुनिर्वाग्गुप्तियुक्तःसन् चरेत् साधुवम॑नि विहरेत्. पुनः कीदृशः सन् ! लाढः साध्वनुष्टाने तत्परः पुनः कीदृशः? नित्यमात्मगुप्तः, गुप्तोऽसंयमस्थानेभ्यो रक्षित आत्मा येन स गुप्तात्मा, प्राकृतत्वाद्विपर्ययः. पुनः कीदृशः? अव्यग्रमना अनाकुलचित्तः पुनः कीदृशः? असंप्रहृष्ट आक्रोशादिषु न प्रहर्षवान्, कश्चित्कदाचित्कस्मैचिद् दुर्वचनैनियति तदा हर्षितो न भवतीत्यर्थः पुनर्यः कृत्स्नं समस्तमाक्रोशवधमध्यास्ते सहते समवृत्तिर्भवति स साधुरित्यर्थः. ॥ ३॥ भिक्षु तो ते कहेवाय के जे-आक्रोश तथा वध ए बेयनो समहार आक्रोश वध कहेवाय, वाणीथी दुर्वचन कहेवां ते आक्रोश तथा ताडन-मार मारवो ते वध; ज्यारे कोइ गाळो दे अथवा मार मारे त्यारे 'आ माराज कोइ कर्मनुं फल छे' एम जाणीने धीरते आक्रोश तथा वधने सहन करवाना शीळवाळो मुनि, पोते वाग्गुप्ति=युक्त वाणीने बराबर नियममा राखीने विचरे, साधुमार्गमा विहार करे. केवो बनीने? लाढ-साधुना आचारमा तत्पर रहेतो तथा नित्ये आत्मगुप्त-पोताना आत्मानुं असंयम स्थानोथी रक्षण करतो, (प्राकृत होवाथी पदविपर्यायी छे.) पुनः ते केवो? अव्यग्रमना=जेनुं मन जराय आकुल न थाय तेवो अने पोते असंप्रहृष्ट-कदाच कोइ अन्यजनने आक्रोशादिक करे तो ते जोइने हर्षित न थतो तथा जे कृत्स्न=समस्त गाळो तथा मार वगेरेने सहन करे, ते भिक्षुक कहेवाय. For Private and Personal Use Only

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