Book Title: Upasakdashang Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 19
________________ स्पष्ट हो जाता है कि महावीर से पहले का श्रुत-साहित्य ग्यारह अङ्ग तथा पूर्वो के रूप में था। महावीर के पश्चात् कुछ समय तक बारह अङ्ग और चौदह पूर्व दोनों प्रकार का साहित्य चलता रहा। क्रमशः पूर्व साहित्य लुप्त हो गया और अङ्ग-साहित्य पठन-पाठन में चलता रहा। भगवान पार्श्वनाथ ईसा से 850 वर्ष पहले हुए। उनमें यदि ईसा के बाद की बीस शताब्दियां मिला दी जाएं, तो कहा जा सकता है कि लगभग 3000 वर्ष पहले जैन परम्परा में 'पूर्व' नाम का विपुल साहित्य विद्यमान था। उसका आदिकाल इतिहास की पहुंच से पहले का है। उसका माप वर्षों की संख्या द्वारा नहीं, किन्तु कालचक्र के युगों द्वारा ही किया जा सकता है। भगवान महावीर के बाद का श्रुत-साहित्य अङ्ग, उपांग, मूलसूत्र, छेदसूत्र, प्रकीर्णक आदि में विभक्त है। उसकी संख्या के विषय में विभिन्न परम्पराएं हैं, जिनका परिचय आगे दिया जाएगा। उससे पहले यह जानने की आवश्यकता है कि जैन परम्परा में शास्त्रीय ज्ञान का क्या स्थान है। जैन दर्शन में ज्ञान के पांच भेद किए गए हैं। शास्त्र या व्यक्ति द्वारा सीखी गई बातों को दूसरे भेद में गिना गया है। इसका शास्त्रीय नाम है श्रुत-ज्ञान। इसका अर्थ है, सुना हुआ ज्ञान / ब्राह्मण परम्परा में जो महत्व श्रुति या वेद का है, जैन-परंपरा में वही महत्व श्रुतज्ञान को दिया गया है। किन्तु दोनों के दृष्टिकोण में भेद है। मीमांसादर्शन वेद को अनादि मानता है। उसका कहना है कि वेद किसी का बनाया हुआ नहीं है। वह गुरु और शिष्य की परंपरा में अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। उसकी परम्परा न कभी प्रारम्भ हुई और न कभी समाप्त होगी। ___अन्य वैदिक-दर्शन वेद को अनादि नहीं मानते। वे उसे ईश्वर की रचना मानते हैं। उनका कथन है कि प्रत्येक सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ऋषियों को वेदों का सन्देश देता है। तत्पश्चात् ऋषि उनका प्रचार करते हैं। प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में इसी प्रकार वेद रचे जाते हैं। जैन धर्म अपने आगमों को न अनादि मानता है और न ईश्वर की रचना / वह उन्हें ज्ञानी तथा चारित्र-सम्पन्न महापुरुषों की रचना मानता है। तीर्थंकर उनका आशय अपने व्याख्यानों में प्रकट करते हैं। शाब्दिक रचना गणधर करते हैं। वैदिक दर्शन वेदों की रचना के साथ जिस आधिदैविक तत्त्व को जोड़ते हैं, जैन दर्शन उसे नहीं मानता। वैदिक दर्शन परम्परा को इतना ऊंचा स्थान देते हैं कि वह मानव बुद्धि के लिए अगम्य हो जाती है। जैन दर्शन परम्परा को मानव बुद्धि की देन मानता है। __वैदिक परम्परा के अनुसार वेदों में परिवर्तन करने का अधिकार किसी को नहीं है। किन्तु जैन परम्परा में मानव का अधिकार छीना नहीं गया है। भगवान पार्श्वनाथ के समय आगमिक साहित्य चौदह पूर्षों में विभक्त था। भगवान महावीर के समय उसे अङ्ग और उपांगों में बांटा गया। पार्श्वनाथ का चतुर्याम धर्म था, महावीर ने पंचयाम की स्थापना की। वस्त्र, प्रतिक्रमण तथा कई दूसरे विषयों में किया गया। उत्तराध्ययन के केशी-गौतम संवाद में उन बातों का वर्णन मिलता है। इससे __ श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 14 / प्रस्तावना

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