________________ जो तुमने पढ़ा है वही बहुत है। तुम्हें आगे पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।" गुरु के वचन से स्थूलभद्र को अपनी भूल का ख्याल आया। वे पश्चात्ताप करने लगे और गुरु के चरणों में गिरकर अपराध के लिए क्षमा मांगने लगे। गच्छ के दूसरे साधुओं ने भी स्थूलभद्र की इस भूल को क्षमा करके आगे की वाचना देने के लिए प्रार्थना की। स्थूलभद्र और श्रमण-संघ की प्रार्थना का उत्तर देते हुए भद्रबाहु ने कहा-"श्रमणो ! इस विषय में अधिक आग्रह मत करो। मैं वाचना क्यों नहीं देना चाहता, इसका विशेष कारण है। मैं स्थूलभद्र के दोष के कारण नहीं, किन्तु भविष्य का विचार करके शेष पूर्वो का अध्ययन बन्द करना चाहता हूं। जब स्थूलभद्र सरीखा त्यागी भी श्रुतज्ञान का दुरुपयोग करने के लिए तैयार हो गया तो दूसरों की बात ही क्या है? श्रमणो ! उत्तरोत्तर विषम समय आ रहा है। मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का ह्रास हो रहा है। मनुष्य की क्षमता एवं गंभीरता नष्ट हो रही है। ऐसी स्थिति में शेष पूओं का प्रचार करना कुशलदायी नहीं है।" ___आचार्य का यह उत्तर सुनकर स्थूलभद्र दीनता पूर्वक बोले-“भगवन्! अब कभी दुरुपयोग नहीं करूंगा। आप जैसा कहेंगे सभी नियमों का पालन करूंगा। कृपया मुझे तो शेष चार पूर्व बता ही दीजिए।" ___ अति आग्रह के वश होकर भद्रबाहु ने कहा—“स्थूलभद्र! विशेष आग्रह है तो मैं शेष पूर्व तुम्हें बता दूंगा। पर उन्हें दूसरों को पढ़ाने की अनुज्ञा नहीं दूंगा। तुम्हें यह अनुज्ञा केवल दस पूर्त के लिए मिलेगी। शेष चार पूर्व तुम्हारे साथ ही समाप्त हो जाएंगे।'' इस प्रकार अंतिम चार पूर्व विच्छिन्न हो भद्रबाहु और स्थूलभद्र की उपरोक्त घटनाएं कई महत्वपूर्ण बातों को प्रकट करती हैं। इनसे प्रतीत होता है कि-१. उस समय संघ का संगठन इतना दृढ़ था कि भद्रबाहु सरीखे समर्थ महापुरुष भी उसकी अवहेलना नहीं कर सकते थे। संघ का कार्य आत्म-साधना से भी बढ़कर माना जाता था। 2. ग्यारह अंगों के होते हुए भी पूर्वो को विशेष महत्व दिया जाता था। इसका कारण उनका सूक्ष्म विचार रहा होगा। 3. साधु के लिए लौकिक विद्याओं का उपयोग वर्जित था। 4. ज्ञान-दान करते समय योग्यायोग्य पात्र का पर्याप्त ध्यान रखा जाता था। माथुरी वाचना (वी. नि. 827-840) जैन आगमों का संकलन करने के लिए दूसरी वाचना वीर-निर्वाण के बाद 827 और 840 के बीच मथुरा में हुई। इसीलिए यह माथुरी वाचना कही जाती है। इसके संयोजक आचार्य स्कन्दिल थे। वे पादलिप्त सूरि के कुल में विद्याधर गच्छ के आचार्य थे। आर्यसुहस्ति के शिष्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध हुए। उनके चार शिष्यों ने चार गच्छ चलाए। द्वितीय शिष्य विद्याधरगोपाल ने विद्याधर गच्छ श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 24 / प्रस्तावना