________________ परम्परा में नहीं दिखाई देती। जब हम शंकराचार्य तथा वाचस्पति मिश्र सरीखे विद्वानों द्वारा किए गए जैनदर्शन के खण्डन को देखते हैं तो हंसी आती है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने जैनदर्शन का कोई ग्रन्थ उठाकर देखने का प्रयल ही नहीं किया। कुछ जैन आचार्यों ने भी वैदिकदर्शनों को बिना समझे ही उनका खण्डन कर दिया है, किन्तु सिद्धसेन दिवाकर, अकलंक, विद्यानन्द, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र तथा यशोविजय उपाध्याय आदि अनेक विद्वान ऐसे हैं जिनके विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। उन्होंने वैदिकदर्शनों को विधिपूर्वक पढ़ा है और पूर्वपक्ष के रूप में अच्छी तरह लिखा है। वैदिकदर्शनों में ऐसा एक भी आचार्य नहीं मिलता। ब्राह्मण पण्डितों में अब भी यह धारणा बद्धमूल है कि नास्तिक ग्रन्थों को नहीं पढ़ना चाहिए। ___जैन परम्परा में दूसरी बात ग्रन्थ-भण्डारों की है। जैसलमेर, पाटण आदि के ग्रन्थ-भण्डार भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि हैं। वहां केवल जैन ही नहीं, बौद्ध तथा वैदिक ग्रन्थों का भी इतना अच्छा संग्रह मिलता है जिनके आधार पर ही उन ग्रन्थों का संरक्षण किया जा सका है। वैदिक परम्परा में इस प्रकार के भण्डार सुनने में नहीं आए। कुछ भण्डार राज्याश्रित हैं किन्तु उनमें भी प्राचीन साहित्य कम है और मध्यकालीन अधिक। जैन भण्डार और साहित्य ने भारतीय इतिहास के निर्माण में महत्वपूर्ण योग दिया है। विण्टरनिज के शब्दों में वहां उन्हें इतिहास की प्रमाणिक सामग्री उपलब्ध हुई है। किन्तु उन के संरक्षकों द्वारा ग्रन्थ संरक्षण की यह परम्परा आगे जाकर ग्रन्थगोपन के रूप में : परिणत हो गई। ग्रन्थों का पठन-पाठन कम हो गया और उन्हें छिपा कर रखा जाने लगा। उन्हें अपरिचित व्यक्ति को दिखाते हुए भी संकोच होने लगा। सम्भव है मुस्लिम शासन में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो, जिससे बाध्य होकर ऐसा करना पड़ा। किन्तु यह प्रवृत्ति अंग्रेजों के शासन में भी चलती रही। परिणामस्वरूप जैन ग्रन्थों का प्रचार बहुत कम हो पाया। पूर्वो का परिचय महावीर के बाद का आगम-साहित्य अंगप्रविष्ट तथा अनंगप्रविष्ट के रूप में विभक्त हुआ। अङ्गों में बारहवां दृष्टिवाद है। उसके विविध अध्यायों में 14 पूर्व भी आ जाते हैं। इस प्रकार एक ओर अङ्ग साहित्य की उत्पत्ति पूर्वो से बताई जाती है, दूसरी और बारहवें अङ्ग में सभी पूर्वो का समावेश किया जाता है। इस विरोधाभास का निराकरण इस प्रकार होता है भगवान महावीर के बाद पूर्वो के आधार पर अङ्गों की रचना हुई। किन्तु पार्श्वनाथ के साधुओं में पूर्वो की परम्परा लुप्त हो गई थी, सिर्फ 11 अङ्ग सूत्र ही रह गए थे, जब वे महावीर के शासन में सम्मिलित हो गए तो उनके साहित्य को भी अङ्गों में सम्मिलित कर लिया गया। यहां एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि चौदह पूर्वो के ज्ञाता को श्रुत केवली कहा गया है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 16 / प्रस्तावना