Book Title: Universal Values of Prakrit Texts
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Bahubali Prakrit Vidyapeeth and Rashtriya Sanskrit Sansthan
View full book text
________________
प्राकृत मणियाँ
तुंगुं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि ।
जह जह जयंमि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नत्थि ।। 1 ।।
जैसे जगत् में मेरुपर्वत से ऊँचा (कुछ) नहीं, (है, और) आकाश से विस्तृत (भी कुछ) नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान (जगत् में श्रेष्ठ एवं व्यापक) धर्म नहीं है, (यह तुम) जानो।
सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं। सव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा दु ।। 2 ।।
अहिंसा ही सभी आश्रमों का हृदय और सभी शास्त्रों का उत्पति-स्थान (आधार), सभी व्रतों का सार (तथा) सभी गुणों का समूह (है)।
किं ताए पढियाए पय-कोडीए पलालभूयाए।
जं इत्तियं न नायं परस्स पीडा न कायव्वा ।। 3 ।।
भूसे के समान (सारहीन) उन करोड़ों पदों (शिक्षा-वाक्यों) को पढ़ लेने से क्या लाभ (है), जो इतना (भी) नहीं जाना (कि) दसरे के लिए पीडा नहीं करनी (पहँचानी) चाहिए।
सव्वे वि गुणा खंतीइ वज्जिया नेवदिन्ति सोहग्गं । हरिणक-कल-विहूणा रयणी जह तारयड्ढावि।।4।।
क्षमा (गुण) से रहित (अन्य) सभी गुण सौभाग्य को प्राप्त नहीं होते हैं। जैसे- तारक समुदाय से युक्त (भी) रात्रि कलायुक्त चन्द्रमा के बिना (शोभा को प्राप्त नहीं होती है)।
(xviii)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org