Book Title: Tulsi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Bacchulal Avasthi
Publisher: Books and Books

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Page 502
________________ 490 तुलसी सन्दकोश धर्मसीलता : धर्म परायणता। मा० ६.२२.५ धर्मसीलन्ह : धर्मसील+संब० । धर्मात्माओं । 'जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजत ___ जाहिं ।' मा० ३.३६ ख धर्महीन : अधार्मिक । मा० ६.३८ क धर्मा : धर्म । 'सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ।' मा० ७.१०४.३ घरयो : धरेउ । रखा । दीपक काजर सिर धर्यो ।' दो० १०६ धवल : वि० (सं०) । श्वेत, उज्ज्वल । मा० १.२१३ धवलधाम : सं०पु० (सं०) । धवलगृह धौरहर-चूने से पुते ऊँचे महल । मा० २.११६.८ धवलिहउँ : धवल+भ०उए० । श्वेत कर दूगा । 'जस धवलिहउँ भुवन दस चारी।' मा० २.१६०.५ /घस, घसइ : (सं० ध्वंसते-ध्वंसु अवस्र सने>प्रा० धंसइ, धसइ) आ०प्रए । धंसता-ती है; अधोगति लेकर प्रवेश करता-ती है; धसकता-ती है। 'धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा।' मा० ६.७१.६ धसी : भूक०स्त्री० । (१) प्रवेश कर गई (२) निकली । 'जन कलिंदजा सुनील सैल तें धसी समीप ।' गी० ७.७.५ घाँके : भूकृ००ब० । धाक में लिए. आतङिकत किये । 'बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके ।' कवि० ६.४५ पाइ : पूक० (सं० धावित्वा>प्रा० धाविअ>अ० धाषि) । दौड़ कर । 'धाइ खाइ जन जाइ न हेरा।' मा० २.३८.४ धाइबो : भकृ००कए० । दौड़ना । —तुलसी कबंध कैसो धाइयो बिचारु ।' कवि० ७.८३ धाई : भूकृ०स्त्री०ब० । दौड़ पड़ीं । 'जुबति बृद रोक्त उठि धाईं ।' मा० ६.१०४.२ धाई : भूकृ०स्त्री० । दौड़ पड़ी। 'सुनि धाई रजनीचर धारी।' मा० ६.६७.७ धाएँ : दौड़ने से, पर । 'तृल सी जिन्ह धाएं धुकै धरनी ।' कवि० ६.३३ पाए : भूक००ब० । दौड़ पड़े । 'सुनि मुनि आयसु धावन धाए ।' मा० २.१५७.४ धाता : संपु० (सं०) । ब्रह्मा । मा० ७.१०६.३ धातु : सं०० (सं०) । (१) सुवर्णादि खनिज। (२) गेरू आदि । 'सिय अंग लिखें धातु राग ।' गी० २.४४.४ (३) अङ्ग रचना के घटक तत्त्व । 'सब अंग धातु भवभय मोचनं ।' कृ० २३ (४) शरीर के सप्तधातु - रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र । 'सात सप्त धातु निरमित तनु ।' विन० २०३.८ (५) सात संख्या । 'मुनि गनि दिन गनि धातु गनि । रा०प्र० ७.७.२ धान : सं०० (सं० धान्य>प्रा० धन्न) । शालि, व्रीहि (अन्न विशेष) । 'बए न जामहि धान ।' मा० ७.१०१ ख

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