Book Title: Tattvasara
Author(s): Hiralal Siddhantshastri
Publisher: Satshrut Seva Sadhna Kendra

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ प्रस्तावना के ज्ञानावरणादि आठों कर्मोको लिखा हुआ विचार करे। तत्पश्चात् नाभिस्थ कमलके मध्य लिखे हुए 'ह' से धुंआ निकलता विचारे। धीरे-धीरे वह घूम ज्वालाके रूपसे परिणत होकर हृदयस्थित आठ कर्मवाले कमलको भस्म करता हुआ चिन्तन करे। फिर वह अग्नि ज्वाला कमलका मध्य भाग जलाकर, मस्तक पर पहुँच कर उसकी एक रेखा दक्षिण कन्धेसे और दूसरी रेखा वाम कन्धे से नीचेकी ओर आकर पद्मासनके नीचे मिलती हुई चिन्तन करे / अर्थात् अपने शरीरके बाहिर तीन कोणका अग्नि मंडल हो गया विचारे। पुनः उक्त तीनों रेखाओंमें र र र र अग्निमय लिखा विचारे। पुनः इस त्रिकोणके बाहिर तीनों कोणों पर अग्निमयी सांथियाकी कल्पना करे और भीतरी तीनों कोणोंमें ॐ हं को अग्निमय लिखा चिन्तन करे। पुनः यह विचार करे कि उक्त त्रिकोण अग्निमंडलके 'र'-कार वर्णसे अग्निशिखा धांय धांय होकर प्रज्ज्वलित होती हुई भीतर तो आठों कर्मोको और बाहिर शरीरको जला रहा है। जलते-जलते कर्म और शरीर भस्म हो गये हैं और अग्नि ज्वाला शान्त हो गई है। इस प्रकारसे चिन्तन करनेको आग्नेयी धारणा कहते हैं।' 3. मारूती या वाय्वी धारणा-आग्नेयी धारणाके पश्चात् वह ध्यानी ऐसा चिन्तन करे कि निर्मल एवं प्रबल वेगसे बहती हुई वायुने आकर मेरे सर्व ओर एक गोल मंडल बना लिया है और सांय-सांय करता हुआ वह वायुमण्डल उस दग्ध शरीरकी एवं कर्मोंकी भस्मको उड़ा रहा है और कुछ क्षणमें उसे उड़ाकर वह शान्त हो गया है। ऐसा चिन्तन करनेको मारुती धारणा . कहते हैं। 4. वारुणी या जलधारणा-उक्त सर्व भस्मके उड़ जाने पर ध्यानी पुरुष ऐसा विचार करे कि आकाशमें मेघोंके समूह गरजते और बिजली चमकाते हुए आ गये हैं और मसलाधार पानी बरसने लगा है, मेरे ऊपर अर्धचन्द्राकार मेघमण्डलमें प प प प जलके बीजाक्षर लिखे हुए हैं और उनसे मेरे ऊपर गिरती हुई जलकी धारासे आत्मा पर लगी हुई भस्म धुल रही है और कुछ देर में धुल कर मेरा आत्मा बिलकुल निर्मल हो गया है। ऐसा चिन्तन करनेको वारुणी धारणा कहते हैं / ..5. तत्त्वरूपवती धारणा-तदनन्तर वह ध्यानी ऐसा चिन्तवन करे कि अब मैं सिद्धोंके समान निर्मल, शुद्ध, अनन्त ज्ञानादि गुणोंके अखण्ड चैतन्यपिण्डरूपसे अवस्थित है, पूर्णचन्द्रके समान निर्मल प्रभावाला हूँ, अज, अजर, अमर और अनन्त अविनश्वर स्वरूप मैंने प्राप्त कर लिया है। इस प्रकारसे शुद्ध आत्म स्वरूपके चिन्तन करनेको तत्त्वरूपवती धारणा कहते हैं। उक्त प्रकारसे प्रतिदिन पाँचों धारणाओंके चिन्तन करते रहनेसे मनकी चंचलता दूर होती है, इन्द्रिय-विषयोंकी प्रवृत्तिका निरोध होता है और आत्मा निराकुलतारूप परम शान्तिका अनुभव करने लगता है। 1. ज्ञानार्णव सर्ग 37 श्लोक 10-19 / 2. ज्ञानार्णव सर्ग 37 श्लोक 20-23 / 3. ज्ञानार्णव, सर्ग 37 श्लोक 24-27 / 4. ज्ञानार्णव, सर्ग 37 श्लोक 28-30 /

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 198