Book Title: Tattvarth vrutti aur Shrutsagarsuri
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १९१ है। जल जबतक अपने स्वाभाविक शीतस्पर्शमें है तबतक वह धर्मस्थित है। यदि वह अग्निके संसर्गसे स्वरूपच्युत हो जाता है तो वह अधर्मरूप हो जाता है और इस परसंयोगजन्य विभावपरिणतिको हटा देना ही जलकी मुक्ति है उसकी धर्मप्राप्ति है। रोगीके यदि अपने आरोग्यस्वरूपका भान न कराया जाय तो वह रोगको विकार क्यों मानेगा और क्यों उसकी निवृत्ति के लिए चिकित्सा प्रवृत्ति करेगा? जब उसे यह ज्ञात हो जाता है कि मेरा तो स्वरूप आरोग्य है । इस अपथ्य आदिसे भेरा स्वाभाविक आरोग्य विकृत हो गया है, तभी वह उस आरोग्य प्राप्तिके लिए चिकित्सा कराता है । भारतकी राष्ट्रीय कांग्रेसने प्रत्येक भारतवासीको जब यह स्वरूप-बोध कराया कि-"तुम्हें भी अपने देशमें स्वतंत्र रहनेका अधिकार है इन परदेशियोंने तुम्हारी स्वतन्त्रता विकृत कर दी है, तुम्हारा इस प्रकार शोषण करके पददलित कर रहे है । भारत सन्तानों, उठो, अपने स्वातन्त्र्य-स्वरूपका भान करो" तभी भारतने अंगड़ाई ली और परतंत्रताका बन्धन तोड़ स्वातन्त्र्य प्राप्त किया । स्वातन्त्र्यस्वरूपका भान किए बिना उसके सुखदरूपकी झाँकी पाए बिना केवल परतन्त्रता तोड़नेके लिए वह उत्साह और सन्नद्धत्ता नहीं आ सकती थी। अतः उस आधारभूत आत्माके मूलस्वरूपका ज्ञान प्रत्येक मुमक्षको सर्वप्रथम होना ही चाहिए जिसे बन्धनमुक्त होना है। भगवान् महावीरने मुमुक्षके लिए दुःख अर्थात् बन्ध, दुःखके कारण अर्थात् मिथ्यात्व आदि आस्रव, मोक्ष अर्थात् दुःखनिवृत्तिपूर्वक स्वरूपप्राप्ति और मोक्षके कारण संवर अर्थात् नूतन बन्धके कारणोंका अभाव और निर्जरा अर्थात् पूर्वसंचित दुःखकारणोंका क्रमशः विनाश, इस तरहके चतुरार्यसत्यकी तरह बन्ध, मोक्ष, आस्रव, संवर और निर्जरा इन पाँच तत्त्वोंके ज्ञानके साथ ही साथ जिस जीवको यह सब बन्ध मोक्ष होता है उस जीवका ज्ञान भी आवश्यक बताया है । शुद्ध जीवको बन्ध नहीं हो सकता । बन्ध दोमें होता है। अतः जिस कर्म-पुद्गलसे यह जीव बँधता है उस अजीव तत्त्वको भी जानना चाहिए जिससे उसमें रागद्वेष आदिकी धारा आगे न चले । अतः मुमुक्षके लिए जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका ज्ञान आवश्यक है। जीव-आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है । अनन्त है । अमूर्त है । चैतन्यशक्तिवाला है। ज्ञानादि पर्यायोंका कर्ता है । कर्मफलका भोक्ता है । स्वयंप्रभु है । अपने शरीरके आकारवाला है। मुक्त होते ही ऊर्ध्वगमनकर लोकान्तमें पहुँच जाता है । भारतीय दर्शनोंमें प्रत्येकने कोई न कोई पदार्थ अनादि माने हैं। परम नास्तिक चार्वाक भी पृथ्वी आदि महाभतोंको अनादि मानता है। ऐसे किसी क्षणकी कल्पना नहीं आती जिसके पहले कोई क्षण न रहा हो । समय कबसे प्रारम्भ हुआ इसका निर्देश असंभव है । इसी तरह समय कब तक रहेगा यह उत्तरावधि बताना भी असंभव है। जिस प्रकार काल आनादि अनन्त है उसकी पूर्वावधि और उत्तरावधि निश्चित नहीं की जा सकती उसी तरह आकाशकी कोई क्षेत्रकृत मर्यादा नहीं बताई जा सकती। 'सर्वतो ह्यनन्तं तत' सभी ओरसे वह अनन्त है । आकाश और कालकी तरह हम प्रत्येक सद्के विषयमें यह कह सकते हैं कि उसका न किसी खास क्षणमें नतन उत्पाद हुआ है और न किसी समय उसका समूल विनाश ही होगा। "नाऽसतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सतः" अर्थात् किसी असत्का सद्पसे उत्पाद नहीं होता और न किसी सत्का समल विनाश ही हो सकता है। जितने गिने हुए सत् हैं उनकी संख्यामें वृद्धि नहीं हो सकती और उनकी संख्यामेसे किसी एककी भी एक ही हो सकती है । रूपान्तर प्रत्येकका होता रहता है । यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्तके अनुसार आत्मा एक स्वतंत्र सत् है तथा पुद्गल परमाणु स्वतन्त्र सत् । अनादिसे यह आत्मा पुद्गलसे सम्बद्ध ही मिलता आया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70