Book Title: Tattvarth vrutti aur Shrutsagarsuri
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 26
________________ २१० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ मान्य नहीं । जैन तो यह कहते हैं कि 'ध्यानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते क्षणात् ।” अर्थात् ध्यानरूपी अग्नि सभी कर्मोंको क्षण भरमें भस्म कर सकती है। ऐसे अनेक दृष्टान्त मौजूद है-जिन्होंने अपनी प्राक्साधनाका इतना बल प्राप्त कर लिया था कि साधुदीक्षा लेते ही उन्हें कैवल्य लाभ हो गया । पुरानी वासनाओंको और राग, द्वेष आदि कुसंस्कारोंको नष्ट करनेका एकमात्र मुख्य साधन है ध्यान अर्थात् चित्तवृत्तियोंका निरोध करके उसे एकाग्र करना। इस प्रकार भगवान् महावीरने बन्ध ( दुःख ) बन्धके कारण ( आस्रव ) मोक्ष और मोक्षके कारणसंवर, निर्जरा इन पांच तत्त्वोंके साथ ही साथ आत्मतत्त्वके ज्ञानकी भी खास आवश्यकता बताई जिसे बन्धन और मोक्ष होता है तथा उस अजीव तत्त्वके ज्ञानकी जिसके कारण अनादिसे यह जीव बन्धनबद्ध हो रहा है। मोक्षके साधन-वैदिक संस्कृति विचार या ज्ञानसे मोक्ष मानती है जब कि श्रमण संस्कृति आचार अर्थात् चारित्रको मोक्षका साधन स्वीकार करती है। यद्यपि वैदिक संस्कृतिमें तत्त्वज्ञानके साथ ही साथ वैराग्य और संन्यासको भी मुक्तिका अंग माना है पर वैराग्य आदिका उपयोग तत्त्वज्ञानकी पुष्टिमें होता है अर्थात् वैराग्यसे तत्त्वज्ञान परिपूर्ण होता है और फिर मुक्ति । जैन तीर्थङ्करोंने "सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग:" (तत्त्वार्थसूत्र ११) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको मोक्षका मार्ग कहा है । ऐसा सम्यग्ज्ञान जो सम्यक्चारित्रका पोषक या वर्द्धक नहीं है मोक्षका साधन नहीं हो सकता । जो ज्ञान जीवनमें उतरकर आत्मशोधन करे वही मोक्षका कारण है । अन्ततः सच्ची श्रद्धा और ज्ञानका फल चारित्रशद्धि है। ज्ञान थोड़ा भी हो पर यदि उसने जीवनशुद्धिमें प्रेरणा दी है तो वह सम्यग्ज्ञान है। अहिंसा, संयम और तप साधनात्मक वस्तुएँ हैं, ज्ञानात्मक नहीं । अतः जैनसंस्कृतिने कोरे ज्ञानको भार ही बताया है । तत्त्वोंकी सच्ची श्रद्धा खासकर धर्मकी श्रद्धा मोक्ष-प्रासादका प्रथम सोपान है। आत्मधर्म अर्थात आत्मस्वभावका और आत्मा तथा शरीरादि परपदार्थका स्वरूपज्ञान होना-इनमें भेदविज्ञान होना ही म्यग्दर्शन है। सम्यकुदर्शन अर्थात् आत्मस्वरूपका स्पष्ट दर्शन, अपने लक्ष्य और कल्याण-मार्गकी दृढ़ प्रतीति । भय, आशा, स्नेह और लोभादि किसी भी कारणसे जो श्रद्धा चल और मलिन न हो सके, कोई साथ दे या न दे पर भीतरसे जिसके प्रति जीवनकी भी बाजी लगानेवाला परमावगाढ संकल्प हो वह जीवन्त श्रद्धा सम्यकदर्शन है। इस ज्यो के जगते ही साधकको अपने तत्त्वका स्पष्ट दर्शन होने लगता है। उसे स्वानुभूति-अर्थात आत्मानुभव प्रतिक्षण होता है। वह समझता है कि धर्म आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमें है, बाह्य पदार्थाधित क्रियाकाण्डमें नहीं । इसीलिए उसकी परिणति एक विलक्षण प्रकारकी हो जाती है। उसे आत्मकल्याण, मानवजातिका कल्याण, देश और समाजके कल्याणके मार्गका स्पष्ट भान हो जाता है। अपने आत्मासे भिन्न किसी भी परपदार्थकी अपेक्षा ही दुःखका कारण है । सुख स्वाधीन वृत्तिमें है। अहिंसा भी अन्ततः यही है कि हमारा परपदार्थसे स्वार्थसाधनका भाव कम हो । जैसे स्वयं जीवित रहनेको इच्छा है उसी तरह प्राणिमात्रका भी जीवित रहनेका अधिकार स्वीकार करें। स्वरूपज्ञान और स्वाधिकार मर्यादाका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। उसके प्रति दृढ़ श्रद्धा सम्यग्दर्शन है और तद्रप होनेके यावत प्रयत्न सम्यकुचारित्र है। यथा-प्रत्येक आत्मा चैतन्यका धनी है। प्रतिक्षण पर्याय बदलते हुए भी उसकी अविच्छिन्न धारा अनन्तकाल तक चलती रहेगी। उसका कभी समल नाश न होगा। एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर कोई अधिकार नहीं है। रागादि कषायें और वासनाएँ आत्माका निजरूप नहीं हैं, विकारभाव हैं । शरीर भी पर है। हमारा स्वरूप तो चैतन्यमात्र है। हमारा अधिकार अपनी गुणपर्यायोंपर है । अपने विचार और अपनी क्रियाओंको हम जैसा चाहें वैसा बना सकते हैं। दूसरेको बनाना बिगाड़ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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