Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
तस्वार्थवृत्ति और श्रुतसागर सूरि
१ ग्रन्थविभाग
तस्व और तत्त्वाधिगमके उपाय
आजसे २५००-२६०० वर्ष पूर्व इस भारतभूमिके बिहार प्रदेशमें दो महान् नक्षत्रोंका उदय हुआ था, जिनकी प्रभासे न केवल भारत ही आलोकित हुआ था किन्तु सुदूर एशियाके चीन, जापान, तिब्बत आदि देश भी प्रकाशित हुए थे। आज भी विश्वमें जिनके कारण भारतका मस्तक गर्वोन्नत वे थे निग्गंठनाथपुत्त वर्धमान और शौद्धोदन - गौतम बुद्ध । इनके उदयके २५० वर्ष पहले तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने काशी देशमें जन्म लिया था और श्रमणपरंपराके चातुर्याम संवरका जगत्को उपदेश दिया था । बुद्धने बोधिलाभके पहिले पार्श्वनाथकी परंपरा केशलुंच, आदि उग्रतपोंको तपा था, पर वे इस मार्ग में सफल न हो सके और उनने मध्यम मार्ग निकाला । निग्गंठनाथपुत्त साधनोंकी पवित्रता और कठोर आत्मानुशासनके पक्षपाती थे । वे नग्न रहते थे, किसी भी प्रकार के परिग्रहका संग्रह उन्हें हिंसाका कारण मालूम होता था । मात्र लोकसंग्रहके लिए आचारके नियमोंको मृदु करना उन्हें इष्ट नहीं था । संक्षेपमें बुद्ध मातृहृदय दयामूर्ति थे और निग्गंठनाथपुत्त पितृचेतक साधनामय संशोधक योगो थे । बुद्ध के पास जब उनके शिष्य आकर कहते थे- 'भन्ते, जन्ताघरकी अनुज्ञा दीजिए, या तीन चीवरकी अनुज्ञा दीजिए' तो दयालु बुद्ध शिष्यसंग्रहके लिए उनकी सुविधाओंका ध्यान रखकर आचारको मृदु कर उन्हें अनुज्ञा देते थे । महावीरकी जीवनचर्या इतनी अनुशासित थी कि उनके संघ के शिष्यों के मन में यह कल्पना हो नहीं आती थी कि आचार के नियमोंको मृदु करानेका प्रस्ताव भी महावीरसे किया जा सकता है। इस तरह महावीरकी संघपरम्परामें चुने हुए अनुशासित दीर्घ तपस्वी थे, जब कि बुद्धका संघ मृदु, मध्यम, सुकुमार सभी प्रकारके भिक्षुओंका संग्राहक था । यद्यपि महावीरकी तपस्याके नियम अत्यन्त अहिंसक, अनुशासनबद्ध और स्वावलंबी थे फिर भी उस समय उनका संघ काफी बड़ा था। उसकी आचारनिष्ठा दीर्घ तपस्या और अनुशासनकी साक्षी पाली साहित्य में पग-पगपर मिलती है ।
महावीर कालमें ६ प्रमुख संघनायकों की चर्चा पिटक साहित्य और आगम साहित्यमें आती है । बौद्धोंके पाली ग्रन्थोंमें उनकी जो चर्चा है उस आधारसे उनका वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते हैं
१- अजित केशकम्बलि - भौतिकवादी, उच्छेदवादी |
२ - मक्ख लिगोशाल - नियतिवादी, संसारशुद्धिवादी ।
३- पूरण कश्यप-अक्रियावादी ।
४ - प्रक्रुध कात्यायन -- शाश्वतार्थवादी, अन्योन्यवादी ।
५- संजयवेलट्ठपुत्त - संशयवादी, अनिश्चयवादी या विक्षेपवादी ।
६- बुद्ध - अव्याकृतवादी, चतुरार्यं सत्यवादी, अभौतिक क्षणिक अनात्मवादी ।
७- निग्गंठनाथपुत्त – स्याद्वादी, चातुर्यामसंवरवादी ।
अजित केशकम्बलिका कहना था कि - "दान, यज्ञ तथा होम सब कुछ नहीं है । भले बुरे कर्मोंका हल नहीं मिलता । न इहलोक है, न परलोक है, न माता है, न पिता है, न अयोनिज ( औपपातिक देव ) सत्य है, और न इहलोक में वैसे ज्ञानी और समर्थश्रमण या ब्राह्मण हैं जो इसलोक और परलोकको स्वयं ज़ानकर और साक्षात्कारकर कहेंगे । मनुष्य पाँच महाभूतोंसे मिलकर बना है । मनुष्य जब मरता है तब पृथ्वी
४-२४
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ महापृथ्वीमें, जल-जलमें, तेज-तेजमें, वायु-वायुमें और इंद्रियाँ आकाशमें लीन हो जाती हैं। लोग मरे हुए मनुष्यको खाटपर रखकर ले जाते हैं, उसकी निन्दा प्रशंसा करते हैं। हड्डियाँ उजली हो बिखर जाती हैं और सब कुछ भस्म हो जाता है। मुर्ख लोग जो दान देते हैं उसका कोई फल नहीं होता। आस्तिकवाद झूठा है । मर्ख और पंडित सभी शरीरके नष्ट होते ही उच्छेदको प्राप्त हो जाते हैं। मरने के बाद कोई नहीं रहता।"
इस तरह अजितका मत उच्छेद या भौतिकवादका प्रख्यापक था।
२-मक्खलिगोशालका मत-"सत्त्वोंके क्लेशका कोई हेतु नहीं है, प्रत्यय नहीं है। बिना हेतुके और बिना प्रत्ययके ही सत्त्व क्लेश पाते हैं । सत्त्वोंकी शुद्धिका कोई हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है । बिना हेतुके और बिना प्रत्ययके सत्त्व शुद्ध होते हैं। अपने कुछ नहीं कर सकते हैं, पराये भी कुछ नहीं कर सकते हैं, ( कोई ) पुरुष भी कुछ नहीं कर सकता है, बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुषका कोई पराक्रम नहीं है। सभी सत्त्व, सभी प्राणी, सभी भूत और सभी जीव अपने वशमें नहीं है, निर्बल, निर्वीर्य, भाग्य और संयोगके फेरसे छै जातियोंमें उत्पन्न हो सुख और दुःख भोगते हैं। वे प्रमुख योनियां चौदह लाख छियासठ सौ हैं। पांच सौ पाँच कर्म, तीन अधं कम ( केवल मनसे शरीरसे नहीं), बासठ प्रतिपदाएँ (मार्ग ), बासठ अन्तरकल्प, छै अभिजातियाँ, आठ पुरुषभ मियाँ, उन्नीस सौ आजीवक, उनचास सौ परिव्राजक, उनचास सौ नाग-आवास, बीस सौ इंदियां, तीस सौ नरक, छत्तीस रजोधातु, सात संज्ञी ( होशवाले ) गर्भ सात, असंज्ञी गर्भ, सात निर्ग्रन्थ गर्भ, सात देव, सात मनुष्य, सात पिशाच, सात स्वर, सात सौ सात गाँठ, सात सौ सात प्रपात, सात सौ सात स्वप्न, और अस्सी लाख छोटे बड़े कल्प है, जिन्हें मर्ख और पंडित जानकर और अनुगमनकर दुःखोंका अंत कर सकते हैं। वहाँ यह नहीं है-इस शील या व्रत या तप, ब्रह्मचर्यसे मैं अपरिपक्व कर्मको परिपक्व करूंगा। परिपक्व कर्मको भोगकर अन्त करूंगा। सुख दुःख द्रोण (-नाप) से तुले हुए हैं, संसारमें घटना-बढ़ना उत्कर्ष, अपकर्ष नहीं होता। जैसे कि सतकी गोली फेंकनेपर उछलती हुई गिरती है, वैसे ही मूर्ख और पंडित दौड़कर-आवागमनमें पड़कर, दुःखका अन्त करेंगे।"
गोशालक पूर्ण भाग्यवादी था । स्वर्ग, नरक आदि मानकर भी उनकी प्राप्ति नियत समझता था, उसके लिए पुरुषार्थ कोई आवश्यक या कार्यकारी नहीं था। मनुष्य अपने नियत कार्यक्रमके अनुसार सभी योनियों में पहुँच जाता है । यह मत पूर्ण नियतिवादका प्रचारक था।
३-पूरण कश्यप-“करते कराते, छेदन करते, छेदन कराते, पकाते पकवाते, शोक करते, परेशान होते, परेशान कराते, चलते चलाते, प्राण मारते, बिना दिये लेते, सेंध काटते, गाँव लूटते, चोरी करते, बटमारी करते, परस्त्रीगमन करते, झूठ बोलते भी, पाप नहीं किया जाता । छुरेसे तेज चक्र द्वारा जो इस पथ्वीके प्राणियोंका ( कोई ) एक मांसका खलियान, एक मांसका पुञ्ज बना दे; तो इसके कारण उसको पाप नहीं, पापका आगम नहीं होगा। यदि घात करते कराते, काटते, कटाते, पकाते पकवाते, गंगाके दक्षिण तीरपर भी जाये; तो भी इसके कारण उसको पाप नहीं, पापका आगम नहीं होगा। दान देते, दान दिलाते, यज्ञ करते, यज्ञ कराते, यदि गंगाके उत्तर नीर भी जाये, तो इसके कारण उसको पुण्य नहीं, पुण्यका आगम नहीं होगा। दान दम संयमसे, सत्य बोलनेसे न पुण्य है, न पुण्यका आगम है।"
पूरण कश्यप परलोकमें जिनका फल मिलता है ऐसे किसी भी कर्मको पुण्य या पापरूप नहीं समझता था। इस तरह पूरण कश्यप पूर्ण अक्रियावादी था।
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ | विशिष्ट निबन्ध : १८७ ४-प्रवध कात्यायनका मत था-"यह सात काय ( समह ) अकृत-अकृतविध-अनिर्मित-निर्माणरहित, अबध्य-कूटस्थ, स्तम्भवत् ( अचल ) है। यह चल नहीं होते, विकारको प्राप्त नहीं होते; न एकदूसरेको हानि पहुंचाते हैं; न एक-दूसरेके सुख, दुःख या सुख-दुःखके लिए पर्याप्त है। कौनसे सात ? पृथिवीकाय, अपकाय, तेज काय, वायु-काय, सुख, दुःख और जीवन यह सात काय अकृत० सुख-दुःखके योग्य नहीं हैं । यहाँ न हन्ता ( -मारनेवाला ) है, न घातयिता ( -हनन करनेवाला), न सुननेवाला, न सुनानेवाला, न जाननेवाला, न जतलानेवाला। जो तीक्ष्ण शस्त्रसे शीश भी काटे ( तो भी) कोई किसोको प्राणसे नहीं । मारता । सातों कायोंसे अलग, विवर ( -खाली जगह ) में शस्त्र ( -हथियार ) गिरता है।"
यह मत अन्योन्यवाद या शाश्वतवाद कहलाता था ।।
५-संजय वेला का मत था-"यदि आप पूछे. क्या परलोक है ? और यदि मैं समझं कि परलोक है, तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है । मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरहसे भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि 'यह नहीं है', मैं यह भी नहीं कहता कि 'यह नहीं नहीं है ।' परलोक नहीं है । परलोक है भी और नहीं भी०, परलोक न है और न नहीं है । अयोनिज (-औपपातिक) प्राणी है। अयोनिज प्राणी नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न नहीं है । अच्छे बुरे काम के फल है, नहीं हैं, हैं भो और नहीं भी, न है और न नहीं है । तथागत मरनेके बाद होते है, नहीं होते है । यदि मुझे ऐसा पूछे और मैं ऐसा समझं कि मरने के बाद तथागत न रहते हैं और न नहीं रहते हैं तो मैं ऐसा आपको कहूँ । मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता।"
संजय स्पष्टतः संशयालु क्या घोर अनिश्चयवादी या आज्ञानिक था। उसे तत्त्वकी प्रचलित चतुकोटियोंमेंसे एकका भी निर्णय नहीं था। पालीपिटकमें इसे 'अमराविक्षेपवाद' नाम दिया है। भले ही हमलोगोंकी समझमें यह विक्षेपवादी ही हो पर संजय अपने अनिश्चयमें निश्चित था।
६-बुद्ध-अव्याकृतवादी थे । उनने इन दस बातोंको अव्याकृत' बतलाया है। १-लोक शाश्वत है ? २-लोक अशाश्वत है ? ३-लोक अन्तवान है? ४-लोक अनन्त है? ५-वही जीव वही शरीर है? ६-जीव अन्य और शरीर अन्य है ? ७-मरनेके बाद तथागत रहते हैं ? ८-मरनेके बाद तथागत नहीं रहते ? ९-मरने के बाद तथागत होते भी हैं नहीं भी होते ? १०-मरनेके बाद तथागत नहीं होते, नहीं नहीं होते ?
इन प्रश्नोंमें लोक आत्मा और परलोक या निर्वाण इन तीन मुख्य विवादग्रस्त पदार्थोंको बुद्धने अव्याकत कहा। दीघनिकायके पोवादसूत्तमें इन्हीं प्रश्नोंको अव्याकत कहकर अनेकांशिक कहा है। जो व्याकरणीय हैं उन्हें 'ऐकांशिक' अर्थात् एक सुनिश्चितरूपमें जिनका उत्तर हो सकता है कहा है। जैसे दुःख आर्यसत्य है हो ? उसका उत्तर हो 'है ही' इस एक अंशरूपमें दिया जा सकता है। परन्तु लोक आत्मा और निर्वाण
१. "सस्सतों लोको इतिपि, असस्सतो लोको इतिपि, अन्तवा लोको इतिपि, अनन्तवा लोको इतिपि, तं जीवं
त सरीरं इतिपि, अझं जीवं अझं सरीर इतिपि, होत्ति तथागतो परम्मरणा इतिपि, होतिच न च होति च तथागतो पम्मरणा इतिपि, नेव होति न नहोति तथागतो परम्भरणा इतिपि।"-मज्झिमनि०
चूलमालुक्यसुत्त । २. "कतमे च ते पोट्टपाद मया अनेकसिका धम्मा देसिता पञत्ता ? सस्सतो लोको ति वा पोटुपाद मया
अनेकसिको धम्मो देसितो पञ्जतो । असस्सतो लोको ति खो पोट्ठपाद मया अनेकसिको.."-दीघनिक पोठ्ठपादसुत्त ।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं
संबंधी प्रश्न अनेकांशिक हैं अर्थात इनका उत्तर हाँ या न इनमेंसे किसी एकके द्वारा नहीं दिया जा सकता। कारण बुद्धने स्वयं बताया है कि यदि वही जीव वही शरीर कहते हैं तो उच्छेदवाद अर्थात् भौतिकवादका प्रसंग आता है जो बुद्धको इष्ट नहीं और यदि अन्य जीव और अन्य शरीर कहते हैं तो नित्य आत्मवादका प्रसंग आता है जो भी बुद्धको इष्ट नहीं था। बुद्धने प्रश्नव्याकरण चार प्रकारका बताया है-(१) एकाश (है या नहीं एकमें ) व्याकरण, प्रतिपृच्छाव्याकरणीय प्रश्न , विभज्य व्याकरणीय प्रश्न और स्थापनीय प्रश्न । जिन प्रश्नोंको बुद्धने अव्याकृत कहा है उन्हें अनेकांशिक भी कहा है अर्थात् उनका उत्तर एक है या नहीं में नहीं दिया जा सकता । फिर इन प्रश्नोंके बारेमें कुछ कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्याके लिए उपयोगी नहीं और न निर्वेद, निरोध, शांति, परमज्ञान या निर्वाणके लिए आवश्यक है। .. इस तरह बुद्ध जब आत्मा, लोक और निर्वाणके सम्बन्धमें कुछ भी कहनेको अनुपयोगी बताते हैं तो उसका सीधा अर्थ यही ज्ञात होता है कि वे इन तत्त्वोंके सम्बन्धमें अपना निश्चित मत नहीं बना सके थे । शिष्योंके तत्त्वज्ञानके झगड़ेमें न डालनेकी बात तो इसलिए समझमें नहीं आती कि जब उस समयका प्रत्येक मतप्रचारक इनके विषयमें अपने मतका प्रतिपादन करता था, उसका समर्थन करता था, जगह-जगह इन्हीं के विषयमें वाद रोपे जाते थे, तब उस हवासे शिष्योंकी बुद्धिको अचलित रखना दुःशक ही नहीं अशक्य ही था। बल्कि इन अव्याकृत कोटिकी सृष्टि ही उन्हें बौद्धिक होनताका कारण बनती होगी।
बुद्धका इन्हें अनेकांशिक कहना भी अर्थपूर्ण हो सकता है। अर्थात् वे एकान्त न मानकर अनेकाश मानते तो थे पर चूंकि निग्गंठनाथपुत्तने इस अनेकांशताका प्रतिपादन सियावाद अर्थात् स्याद्वादसे करना प्रारम्भ कर दिया था, अतः विलक्षणशैली स्थापनके लिए उनने इन्हें अव्याकृत कह दिया हो। अन्यथा अनेकांशिक और अनेकान्तवादमें कोई खास अन्तर नहीं मालम होता । यद्यपि संजयवेलठिपुत्त, बुद्ध और निग्गंठनाथपुत्त इन तीनोंका मत अनेकांशको लिए हुए है, पर संजय उन अनेक अंशोंके सम्बन्धमें स्पष्ट अनिश्चयवादी है । वह साफ-साफ कहता है कि "यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ कि परलोक है या नहीं है आदि" | बुद्ध कहते हैं यह अव्याक त है। इस अव्याकृति और संजयकी अनिश्चि तिमें क्या सूक्ष्म अन्तर है सो तो बद्ध ही जानें, पर व्यवहारतः शिष्योंके पल्ले न तो संजय ही कुछ दे सके और न बुद्ध ही। बल्कि संजयके शिष्य अपना यह मत बना भी सके होंगे कि-इन आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका निश्चय नहीं हो सकता, किन्तु बुद्ध शिष्योंका इन पदार्थों के विषयमें बुद्धिभेद आज तक बना हुआ है। आज श्री राहल सांकृत्यायन बुद्धके मतको अभौतिक अनात्मवाद जैमा उभयप्रतिषेधी नाम देते हैं । इधर आत्मा शब्दसे नित्यत्वका डर है उधर भौतिक कहनेसे उच्छेदवादका भय है। किंतु यदि निर्वाणदशामें दीपनिर्वाणकी तरह चित्तसन्ततिका निरोध हो जाता है तो भौतिकवादसे क्या विशेषता रह जाती है ? चार्वाक हर एक जन्ममें आत्माकी भतोंसे उत्पत्ति मानकर उनका भतविलय मरणकालमें मान लेता है । बुद्धने इस चित्तसन्ततिको पंचस्कंधरूप मानकर उसका विलय हर एक मरणके समय न मानकर संसारके अन्त में माना। जिस प्रकार रूप एक मौलिक तत्त्व अनादि अनन्त धारारूप है उस प्रकार चित्तधारा न रही, अर्थात् चार्वाकका भौतिकत्व एक जन्मका है जब कि बुद्ध का भौतिकत्व एक संसारका । इस प्रकार बुद्ध तत्त्वज्ञानकी दिशामें संजय या भौतिकवादी अजितके विचारोंमेंही दोलान्दोलित रहे और अपनी इस दशामें भिक्षुओंको न डालनेकी शुभेच्छासे उनने इनका अव्याकत रूपसे उपदेश दिया। उनने शिष्योंको समझा दिया कि इस वाद-प्रतिवादसे निर्वाण नहीं मिलेगा, निर्वाणके लिए चार आर्यसत्योंका ज्ञान ही आवश्यक है। बुद्धने कहा कि दुःख, दुःखके कारण, दुःखनिरोध
और दुःखनिरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्योंको जानो। इनके यथार्थ ज्ञानसे दुःखनिरोध होकर मक्ति हो जायगी। अन्य किसी ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है।
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : १८९
निग्गंठनाथपूत्त-निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र महावीर स्याद्वादी और सप्ततत्त्वप्रतिपादक थे। उनके विषयमें यह प्रवाद था कि निग्गंठनाथपुत्त सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, उन्हें सोते जागते हर समय ज्ञानदर्शन उपस्थित रहता है। ज्ञातपुत्र वर्धमानने उस समयके प्रत्येक तीर्थंकरकी अपेक्षा वस्तुतत्त्वका सर्वांगीण साक्षात्कार किया था। वे न संजयकी तरह अनिश्चयवादी थे और न बुद्धकी तरह अव्याकृतवादी और न गोशालक आदिकी तरह भतवादी ही। उनने प्रत्येक वस्तुको परिणामीनित्य बताया। आजतक उस समयके प्रचलित मतवादियोंके तत्त्वोंका स्पष्ट पता नहीं मिलता। बुद्धने स्वयं कितने तत्त्व या पदार्थ माने थे यह आजभी विवादग्रस्त है। पर महावीरके तत्त्व आजतक निर्विवाद चले आए हैं। महावीरने वस्तुतत्त्वका एक स्पष्टदर्शन प्रस्तुत किया उनने कहा कि-इस जगत्में कोई द्रव्य या सत् नया उत्पन्न नहीं होता और जो द्रव्य या सत् विद्यमान है उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन होनेपरभी उनका अत्यंत विनाश नहीं हो सकत।। पर कोई भी पदार्थ दो क्षणतक एक पर्यायमें नहीं रहता, प्रतिक्षण नतन पर्याय उत्पन्न होती है पूर्व पर्याय विनष्ट होती है पर उस मौलिक तत्त्वका आत्यन्तिक उच्छेद नहीं होता, उसकी धारा प्रवाहित रहती है। चित्त सन्तति निर्वाणावस्थामें शुद्ध हो जाती है पर दीपककी तरह बुझकर अस्तित्वविहीन नहीं होती। रूपान्तर तो हो सकता है पदार्थान्तर नहीं और न अपदार्थ ही या पदार्थविलय ही। इस संसारमें अनन्त चेतन आत्माएँ अनन्त पुद्गल परमाणु, एक आकाश द्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य और असंख्य कालपरमाणु इतने मौलिक द्रव्य हैं। इनकी संख्यामें कमी नहीं हो सकती और न एक भी नतन द्रव्य उत्पन्न होकर इनकी संख्या एककी भी वृद्धि कर सकता है। प्रतिक्षण परिवर्तन प्रत्येक द्रव्यका होता रहता है उसे कोई नहीं रोक सकता, यह उसका स्वभाव है।
महावीरकी जो मातृकात्रिपदी समस्त द्वादशांगका आधार बनी, वह यह है-"उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" अर्थात् प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होता है, विनष्ट होता है, और ध्रुव है । उत्पाद और विनाशसे पदार्थ रूपान्तरको प्राप्त होता है पर ध्रुवसे अपना मौलिक अस्तित्व नहीं खोता। जगत्से किसी भी 'सत्' का समल विनाश नहीं होता। इतनी ही ध्रुवता है। इसमें न कूटस्थनित्यत्व जैसे शाश्वतवादका प्रसंग है और न सर्वथा उच्छेदवादका ही । मूलतः प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप है। उसमें यही अनेकांशता या अनेकान्तता या अनेकधर्मात्मकता है । इसके प्रतिपादनके लिए महावीरने एक खास प्रकारकी भाषाशैली बनाई थी। उस भाषाशैलीका नाम स्याद्वाद है। अर्थात् अमुक निश्चित अपेक्षासे वस्तु ध्रव है और अमुक निश्चित अपेक्षासे उत्पादव्ययवाली । अपने मौलिक सत्त्वसे च्युत न होनेके कारण उसे ध्रुव कहते हैं तथा प्रतिक्षण रूपान्तर होनेके कारण उत्पादव्ययवाली या अध्रुव कहते हैं। ध्रुव कहते समय अध्रुव अंशका लोप न हो जाय और अध्रुव कहते समय ध्रुव अंशका उच्छेद न समझा जाय इसलिए 'सिया' या 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करना चाहिए । अर्थात् 'स्यात् ध्रुव है' इसका अर्थ है कि अपने मौलिक अस्तित्वकी अपेक्षा वस्तु ध्रुव है, पर ध्रुवमात्र ही नहीं है इसमें ध्रुवत्वके सिवाय अन्य धर्म भी हैं इसकी सूचनाके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग आवश्यक है। इसी तरह रूपान्तरकी दृष्टिसे वस्तुमें अध्रुवत्व ही है पर वस्तु अध्रुवमात्र ही नहीं है उसमें अध्रुवत्वके सिवाय अन्य धर्म भी विद्यमान है इसकी सूचना 'स्यात्' पद देता है। तात्पर्य यह कि 'स्यात्' शब्द वस्तुमें विद्यमान अविवक्षित शेष धर्मोंकी सूचना देता है। बुद्ध जिस भाषाके सहज प्रकारको नहीं पा सके या प्रयोगमें नहीं लाये और जिसके कारण उन्हें अनेकांशिक प्रश्नोंको अव्याकृत कहना पड़ा उस भाषाके सहज प्रकारको महावीरने दृढ़ताके साथ व्यवहारमें लिया । पाली साहित्यमें 'स्यात' 'सिया' शब्द का प्रयोग इसी निश्चित प्रकारकी सूचनाके लिए हुआ है। यथा मज्झिमनिकायके महाराहलोवादसूत्तमें आपोधातुका वर्णन करते हुए लिखा है कि-"कतमा च राहुल आपोधातु ? आपोधातु सिया अज्झत्तिका
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ सिया वाहिरा।" अर्थात् आपोधातु कितने प्रकारकी है। एक आभ्यन्तर और दूसरी बाह्य । यहाँ आभ्यन्तर धातुके साथ 'सिया' स्याद् शब्दका प्रयोग आपोधातुके आभ्यन्तरके सिवाय द्वितीय प्रकारकी सूचनाके लिए है। इसी तरह बाह्यके साथ 'सिया' शब्दका प्रयोग बाह्यके सिवाय आभ्यन्तर भेदकी सूचना देता है । तात्पर्य यह कि न तो तेजोधातु बाह्यरूप ही है और न आभ्यन्तर रूप ही। इस उभयरूपताकी सूचना ‘सिया'-स्यात्' शब्द देता है। यहाँ न तो स्यात् शब्दका शायद अर्थ है और न संभवतः और न कदाचित ही, क्योंकि तेजोधातु शायद आभ्यन्तर और शायद बाह्य नहीं है और न संभवतः आभ्यन्तर और बाह्य और न कदाचित आभ्यन्तर और कदाचित् बाह्य, किन्तु सुनिश्चित रूपसे आभ्यन्तर और बाह्य उभय अंशवाली है । इसी तरह महावीरने प्रत्येक धर्मके साथ सिया-स्यात्' शब्द जोड़कर अविवक्षित शेष धर्मोकी सूचना दी है। 'स्यात्' शब्दको शायद संभव या कदाचितका पर्यायवाची कहना सिद्धान्त भ्रमपूर्ण है।
महावीरने वस्तुतत्त्वको अनन्तधर्मात्मक देखा और जाना। प्रत्येक पदार्थ अनन्त ही गुण पर्यायोंका अखण्ड आधार है । उसका विराट रूप पूर्णतया ज्ञानका विषय हो भी जाय पर शब्दोंके द्वारा तो नहीं ही कहा जा सकता । कोई ऐसा शब्द नहीं जो उसके पूर्ण रूपको स्पर्श कर सके। शब्द एक निश्चित दृष्टिकोणसे प्रयुक्त होते हैं और वस्तुके एक ही धर्मका कथन करते हैं। इस तरह जब स्वभावतः विवक्षानुसार अमुक धर्मका प्रतिपादन करते हैं तब अविवक्षित धर्मोंकी सूचनाके लिए एक ऐसा शब्द अवश्य ही रखना चाहिए जो वक्ता या श्रोताको भूलने न दे। 'स्यात्' शब्दका यही कार्य है, वह श्रोताको वस्तुके अनेकान्त स्वरूपका द्योतक करा देता है । यद्यपि बद्धने इस अनेकांशिक सत्यके प्रकाशनकी स्याद्वादवाणीको न अपनाकर उन्हें अव्याकृत कोटिमें डाला है, पर उनका चित्त वस्तुकी अनेकांशिकताको स्वीकार अवश्य करता था।
निग्गंठनाथपुत्त महावोर ने वैदिक क्रियाकाण्डको उतना ही निरर्थक और श्रेयःप्रतिरोधी मानते थे जितना कि बुद्ध, और आचार अर्थात् चरित्रको वे मोक्षका अन्तिम साधन मानते थे। पर उनने यह साक्षात् अनुभव किया कि जबतक विश्वव्यवस्था और खासकर उस आत्माके स्वरूपके सम्बन्धमें शिष्य निश्चित विचार नहीं बना लेता है जिस आत्माको दुःख होता है और जिसे दुःखकी निवृत्ति करके निर्वाण पाना है तबतक वह मानसविचिकित्सासे मुक्त होकर साधना कर ही नहीं सकता। जब बाह्यजगत्के प्रत्येक झोकेमें यह आवाज गूंज रही हो कि-"आत्मा देहरूप है या देहसे भिन्न? परलोक क्या है ? निर्वाण क्या है ?" और अन्यतीथिक अपना मत प्रचारित कर रहे हों, इसीको लेकर वाद रोपे जाते हों उस समय शिष्योंको यह कहकर तत्काल चुप तो किया जा सकता है कि 'क्या रखा है इस विवादसे कि आत्मा है, हमें तो दुःखनिवृत्तिके लिए प्रयास करना चाहिए' परन्तु उनकी मानसशल्य और बुद्धिविचिकित्सा नहीं निकल सकती और वे इस बौद्धिकहीनता और विचारदीनताके हीनतर भावोंसे अपने चित्तकी रक्षा नहीं कर सकते । संघमें इन्हीं अन्यतीथिकोंके शिष्य और खासकर वैदिक ब्राह्मण भी दीक्षित होते थे। जब ये सब पंचमेल व्यक्ति जो मूल आत्माके विषयमें विभिन्न मत रखते हों और चर्चा भी करते हों तो मानस अहिंसक कैसे रह सकते हैं ? जबतक उनका समाधान वस्तुस्थिति मलक न हो जाय तब तक वे कैसे परस्पर समता और अहिंसाका वातावरण बना सकते होंगे?
महावीरने तत्त्वका साक्षात्कार किया और उनने धर्मकी सीधी परिभाषा बताई वस्तुका स्वरूपस्थित होना-"वस्तुस्वभावो धम्मो"-जिस वस्तुका जो स्वरूप है उसका उस पूर्णस्वरूपमें स्थिर होना ही धर्म है। अग्नि यदि अपनी उष्णताको लिए हुए है तो वह धर्मस्थित है। यदि वह वायुके झोंकोसे स्पन्दित हो रही है तो कहना होगा कि वह चंचल है अतः अपने निश्चलस्वरूपसे च्यत होनेके कारण उतने अंशमें धर्मस्थित नहीं
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : १९१
है। जल जबतक अपने स्वाभाविक शीतस्पर्शमें है तबतक वह धर्मस्थित है। यदि वह अग्निके संसर्गसे स्वरूपच्युत हो जाता है तो वह अधर्मरूप हो जाता है और इस परसंयोगजन्य विभावपरिणतिको हटा देना ही जलकी मुक्ति है उसकी धर्मप्राप्ति है। रोगीके यदि अपने आरोग्यस्वरूपका भान न कराया जाय तो वह रोगको विकार क्यों मानेगा और क्यों उसकी निवृत्ति के लिए चिकित्सा प्रवृत्ति करेगा? जब उसे यह ज्ञात हो जाता है कि मेरा तो स्वरूप आरोग्य है । इस अपथ्य आदिसे भेरा स्वाभाविक आरोग्य विकृत हो गया है, तभी वह उस आरोग्य प्राप्तिके लिए चिकित्सा कराता है । भारतकी राष्ट्रीय कांग्रेसने प्रत्येक भारतवासीको जब यह स्वरूप-बोध कराया कि-"तुम्हें भी अपने देशमें स्वतंत्र रहनेका अधिकार है इन परदेशियोंने तुम्हारी स्वतन्त्रता विकृत कर दी है, तुम्हारा इस प्रकार शोषण करके पददलित कर रहे है । भारत सन्तानों, उठो, अपने स्वातन्त्र्य-स्वरूपका भान करो" तभी भारतने अंगड़ाई ली और परतंत्रताका बन्धन तोड़ स्वातन्त्र्य प्राप्त किया । स्वातन्त्र्यस्वरूपका भान किए बिना उसके सुखदरूपकी झाँकी पाए बिना केवल परतन्त्रता तोड़नेके लिए वह उत्साह और सन्नद्धत्ता नहीं आ सकती थी। अतः उस आधारभूत आत्माके मूलस्वरूपका ज्ञान प्रत्येक मुमक्षको सर्वप्रथम होना ही चाहिए जिसे बन्धनमुक्त होना है।
भगवान् महावीरने मुमुक्षके लिए दुःख अर्थात् बन्ध, दुःखके कारण अर्थात् मिथ्यात्व आदि आस्रव, मोक्ष अर्थात् दुःखनिवृत्तिपूर्वक स्वरूपप्राप्ति और मोक्षके कारण संवर अर्थात् नूतन बन्धके कारणोंका अभाव और निर्जरा अर्थात् पूर्वसंचित दुःखकारणोंका क्रमशः विनाश, इस तरहके चतुरार्यसत्यकी तरह बन्ध, मोक्ष, आस्रव, संवर और निर्जरा इन पाँच तत्त्वोंके ज्ञानके साथ ही साथ जिस जीवको यह सब बन्ध मोक्ष होता है उस जीवका ज्ञान भी आवश्यक बताया है । शुद्ध जीवको बन्ध नहीं हो सकता । बन्ध दोमें होता है। अतः जिस कर्म-पुद्गलसे यह जीव बँधता है उस अजीव तत्त्वको भी जानना चाहिए जिससे उसमें रागद्वेष आदिकी धारा आगे न चले । अतः मुमुक्षके लिए जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका ज्ञान आवश्यक है।
जीव-आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है । अनन्त है । अमूर्त है । चैतन्यशक्तिवाला है। ज्ञानादि पर्यायोंका कर्ता है । कर्मफलका भोक्ता है । स्वयंप्रभु है । अपने शरीरके आकारवाला है। मुक्त होते ही ऊर्ध्वगमनकर लोकान्तमें पहुँच जाता है ।
भारतीय दर्शनोंमें प्रत्येकने कोई न कोई पदार्थ अनादि माने हैं। परम नास्तिक चार्वाक भी पृथ्वी आदि महाभतोंको अनादि मानता है। ऐसे किसी क्षणकी कल्पना नहीं आती जिसके पहले कोई क्षण न रहा हो । समय कबसे प्रारम्भ हुआ इसका निर्देश असंभव है । इसी तरह समय कब तक रहेगा यह उत्तरावधि बताना भी असंभव है। जिस प्रकार काल आनादि अनन्त है उसकी पूर्वावधि और उत्तरावधि निश्चित नहीं की जा सकती उसी तरह आकाशकी कोई क्षेत्रकृत मर्यादा नहीं बताई जा सकती। 'सर्वतो ह्यनन्तं तत' सभी ओरसे वह अनन्त है । आकाश और कालकी तरह हम प्रत्येक सद्के विषयमें यह कह सकते हैं कि उसका न किसी खास क्षणमें नतन उत्पाद हुआ है और न किसी समय उसका समूल विनाश ही होगा। "नाऽसतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सतः" अर्थात् किसी असत्का सद्पसे उत्पाद नहीं होता और न किसी सत्का समल विनाश ही हो सकता है। जितने गिने हुए सत् हैं उनकी संख्यामें वृद्धि नहीं हो सकती और उनकी संख्यामेसे किसी एककी भी एक ही हो सकती है । रूपान्तर प्रत्येकका होता रहता है । यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्तके अनुसार आत्मा एक स्वतंत्र सत् है तथा पुद्गल परमाणु स्वतन्त्र सत् । अनादिसे यह आत्मा पुद्गलसे सम्बद्ध ही मिलता आया है।
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
अनादिबद्ध माननेका कारण - आज आत्मा स्थूल शरीर और सूक्ष्म कर्मशरीरसे बद्ध मिलता है । आज इसका ज्ञान और सुख यहाँ तक कि जीवन भी शरीराधीन है । शरीर में विकार होनेसे ज्ञानतन्तुओं में क्षीणता आते ही स्मृतिभ्रंश आदि देखे ही जाते हैं । अतः आज संसारो आत्मा शरीरबद्ध होकर ही अपनी गतिविधि करता है । यदि आत्मा शुद्ध होता तो शरीरसम्बन्धका कोई हेतु ही नहीं था । शरीरसम्बन्ध या पुनर्जन्म के कारण हैं- राग, द्वेष, मोह और कषायादिभाव । शुद्ध आत्मामें ये विभावभाव हो ही नहीं सकते । चूंकि आज ये विभाव और उनका फल शरीरसम्बन्ध प्रत्यक्ष अनुभवमें आ रहा है अतः मानना होगा कि आज तक इनकी अशुद्ध परम्परा चली आई है ।
भारतीय दर्शनों में यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर विधिमुखसे नहीं दिया जा सकता । ब्रह्ममें अविद्याका कब उत्पन्न हुई ? प्रकृति और पुरुषका संयोग कब हुआ ? आत्मासे शरीरसम्बन्ध कब हुआ ? इसका एकमात्र उत्तर है- अनादिसे । दूसरा प्रकार है कि यदि ये शुद्ध होते तो इनका संयोग हो ही नहीं सकता था । शुद्ध होनेके बाद कोई ऐसा हेतु नहीं रह जाता जो प्रकृतिसंसर्ग या अविद्योत्पत्ति होने दे। उसी तरह आत्मा यदि शुद्ध हो जाता है तो कोई कारण उसके अशुद्ध होने का या पुद्गलसंयोगका नहीं रह जाता । जब दो स्वतंत्र सत्ताक द्रव्य हैं तब उनका संयोग चाहे जितना भी पुराना क्यों न हो नष्ट किया जा सकता है और दोनोंको पृथक्-पृथक् किया जा सकता है । उदाहरणार्थ - खानि से सर्वप्रथम निकाले गये सोनेमें कीट असंख्य कालसे लगी होगी पर प्रयोगसे चूँकि वह पृथक् की जाती है, अतः यह निश्चय किया जाता है कि सुवर्ण अपने शुद्धरूपमें इस प्रकार है तथा कीट इस प्रकार । सारांश यह कि जीव और पुद्गलका बंध अनादि है। चूंकि वह दो द्रव्योंका बन्ध है अतः स्वरूपबोध हो जानेपर वह पृथक् किया जा सकता है ।
आज जीवका ज्ञान दर्शन सुख राग द्वेष आदि सभी भाव बहुत कुछ इस जीवन पर्यायके अधीन है । एक मनुष्य जीवन भर अपने ज्ञानका उपयोग विज्ञान या धर्मके अध्ययनमें लगाता है । जवानीमें उसके मस्तिष्क में भौतिक उपादान अच्छे थे, प्रचुर मात्रामें थे, तो वे ज्ञानतन्तु चैतन्यको जगाए रखते थे । बुढ़ापा आनेपर उसका मस्तिष्क शिथिल पड़ जाता है । विचारशक्ति लुप्त होने लगती है । स्मरण नहीं रहता । वही व्यक्ति अपनी जवानी में लिखे गये लेखकों को बुढ़ापेमें पढ़ता है तो उसे स्वयं आश्चर्य होता है । वह विश्वास नहीं करता कि यह उसीने लिखा होगा । मस्तिष्ककी यदि कोई भौतिक ग्रन्थि बिगड़ जाती है तो मनुष्य पागल हो जाता है । दिमागका यदि कोई पेंच अनेक प्रकारकी धारायें जीवनको ही बदल देती हैं।
कस गया या ढीला हो गया तो उन्माद, सन्देह आदि मुझे एक ऐसे योगीका प्रत्यक्ष अनुभव है जिसे शरीर की का विशिष्ट ज्ञान था । वह मस्तिष्ककी एक किसी खास नसको दबाता था तो मनुष्यको हिंसा और क्रोधके भाव उत्पन्न हो जाते थे । दूसरे ही क्षण दूसरी नसके दबाते ही अत्यन्त दया और करुणाके भाव होते थे और वह रोने लगता था । एक तीसरी नसके दबाते ही लोभका तीव्र उदय होता था और यह इच्छा होती थी कि चोरी कर लें । एक नसके दबाते ही परमात्मभक्तिकी ओर मनकी गति होने लगती थी । इन सब घटनाओंसे एक इस निश्चित परिणामपर तो पहुँच ही सकते हैं कि हमारी सारी शक्तियाँ जिनमें ज्ञान दर्शन सुख राग द्वेष कषाय आदि हैं, इस शरीर पर्यायके अधीन हैं । शरीरके नष्ट होते ही जीवन भरमें उपासित ज्ञान आदि पर्यायशक्तियाँ बहुत कुछ नष्ट हो जाती हैं । परलोक तक इनके कुछ सूक्ष्म संस्कार जाते हैं ।
आज इस अशुद्ध आत्माकी दशा अर्धभौतिक जैसी हो रही है । इन्द्रियां यदि न हों तो ज्ञानकी शक्ति बनी रहनेपर भी ज्ञान नहीं हो सकता । आत्मामें सुननेकी और देखनेकी शक्ति मौजूद है पर यदि आँखें फूट और कान फट जायें तो वह शक्ति रखी रह जायगी और देखना-सुनना नहीं हो सकेगा । विचारशवित
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : १९३
विद्यमान है पर मन यदि ठीक नहीं है तो विचार नहीं किये जा सकते । पक्षाघात यदि हो जाय तो शरीर देखने में वैसा ही मालम होता है पर सब शून्य । निष्कर्ष यह कि अशुद्ध आत्माकी दशा और इसका सारा विकास पुद्गलके अधीन हो रहा है। जीवननिमित्त भी खान-पान श्वासोच्छ्वास आदि सभी साधन भौतिक ही अपेक्षित होते हैं । इस समय यह जीव जो भी विचार करता है, देखता है, जानता है या क्रिया करता है उसका एक जातिका संस्कार आत्मापर पड़ता है और उस संस्कारकी प्रतीक एक भौतिक रेखा मस्तिष्कमें खिंच जाती है । दूसरे, तीसरे, चौथे जो भी विचार या क्रियाएँ होती हैं उन सबके संस्कारोंको यह आत्मा धारण करता है और उनकी प्रतीक टेढी सीधी. गहरी-उथली. छोटी-बडी नाना प्रकारकी रेखाएं मस्तिष्कमें भरे हुए मक्खन जैसे भौतिक पदार्थपर खिंचती चली जाती हैं। जो रेखा जितनी गहरी होगी वह उतने ही अधिक दिनों तक उस विचार या क्रियाको स्मति करा देती है। तात्पर्य यह कि आजका ज्ञान शक्ति और सुख आदि सभी पर्याय शक्तियाँ हैं जो इस शरीर-पर्याय तक ही रहती है ।
व्यवहारनयसे जीवको मूर्तिक माननेका अर्थ यही है कि अनादिसे यह जीव शरीरसम्बद्ध ही मिलता आया है। स्थूल शरीर छोड़नेपर भी सूक्ष्म कर्म शरीर सदा इसके साथ रहता है। इसी सूक्ष्म कर्म शरीरके नाशको ही मुक्ति कहते हैं। जीव पुद्गल दो द्रव्य ही ऐसे हैं जिनमें क्रिया होती है तथा विभाव या अशुद्ध परिणमन होता है । पुद्गलका अशुद्ध परिणमन पुद्गल और जीव दोनोंके निमित्तसे होता है जबकि जीवका अशद्ध परिणमन यदि होगा तो पुद्गलके ही निमित्तसे । शुद्ध जीवमें अशद्ध परिणमन न तो जीवके निमित्तसे हो सकता है और न पदगलके निमित्तसे । अशद्ध जीवके अशद्ध परिणमनको धारामें पदगल या पदगलसम्बद्ध जीव निमित्त होता है। जैन सिद्धान्तने जीवको देहप्रमाण माना है। यह अनुभवसिद्ध भी है। शरीरके बाहर उस आत्माके अस्तित्व माननेका कोई खास प्रयोजन नहीं रह जाता और न यह तर्कगम्य ही है । जीवके ज्ञानदर्शन आदि गुण उसके शरीरमें ही उपलब्ध होते है शरीरके बाहर नहीं। छोटे बड़े शरीरके अनुसार असंख्यातप्रदेशी आत्मा संकोच-विकोच करता रहता है । चार्वाकका देहात्मवाद तो देहको ही आत्मा मानता है तथा देहकी परिस्थितिके साथ आत्माका भी विनाश आदि स्वीकार करता है। जैनका देहपरिमाण-आत्मवाद पुद्गलदेहसे आत्मद्रव्यकी अपनी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है । न तो देहकी उत्पत्तिसे आत्माकी उत्पत्ति होती है और न देहके विनाशसे आत्मविनाश । जब कर्मशरीरकी श्रृंखलासे यह आत्मा मुक्त हो जाता है तब अपनी शद्ध चैतन्य दशामें अनन्तकाल तक स्थिर रहता है। प्रत्येक द्रव्यमें एक अगुरुलघुगुण होता है जिसके कारण उसमें प्रशिक्षण परिणमन होते रहनेपर भी न तो उसमें गुरुत्व ही आता है और न लघुत्व ही । द्रव्य अपने स्वरूपमें सदा परिवर्तन करते रहते भी अपनी अखण्ड मौलिकताको भी नहीं खोता।
आजका विज्ञान भी हमें बताता है कि जीव जो भी विचार करता है उसकी टेढ़ी-सीधी, उथली-गहरी रेखाएँ मस्तिष्कमें भरे हुए मक्खन जैसे श्वेत पदार्थ में खिंचती जाती है और उन्हीं के अनुसार स्मृति तथा वासनाएँ उबुद्ध होती हैं । जैन कर्म सिद्धान्त भी यही है कि-रागद्वेष प्रवृत्तिके कारण केवल संस्कार ही आत्मापर नहीं पड़ता किन्तु उस संस्कारको यथासमय उद्बुद्ध करानेवाले कर्मद्रव्यका संबंध भी होता जाता है। यह कर्मद्रव्य पुद्गल द्रव्य ही है । मन, वचन, कायकी प्रत्येक क्रियाके अनुसार शुक्ल या कृष्ण कर्म पुद्गल आत्मासे सम्बन्धको प्राप्त हो जाते हैं। ये विशेष प्रकारके कर्मपद्गल बहुत कुछ तो स्थूल शरीरके भीतर ही पड़े रहते हैं जो मनोभावोंके अनुसार आत्माके सूक्ष्म कर्मशरीरमें शामिल होते जाते हैं, कुछ बाहिरसे भी आते हैं। जैसे तपे हुए लोहेके गोलेको पानीसे भरे हुए बर्तनमें छोड़िये तो वह गोला जलके भरे हुए बहुतसे परमाणुओंको जिस तरह अपने भीतर सोख लेता है उसी तरह अपनी गरमी और भापसे बाहिरके परमाणुओंको भी खींचता है। लोहेका
४-२५
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
गोला जब तक गरम रहता है, पानी में उथल-पुथल पैदा करता रहता है, कुछ परमाणुओंको लेगा, कुछको निकालेगा, कुछको भाप बनाएगा, एक अजीबसी परिस्थिति समस्त वातावरण में उपस्थित कर देता है । उसी तरह जब यह आत्मा रागद्वेषादिसे उत्तप्त होता है तब शरीरमें एक अद्भुत हलनचलन उपस्थित करता है । क्रोध आते ही आँखें लाल हो जाती हैं, खूनकी गति बढ़ जाती है, मुँह सूखने लगता है, नथुने फड़कने लगते हैं । कामवासनाका उदय होते ही सारे शरीरमें एक विलक्षण प्रकारका मन्थन शुरू होता है । और जब तक वह कषाय या वासना शांत नहीं हो लेती, यह चहल-पहल -मन्थन आदि नहीं रुकता । आत्माके विचारोंके अनुसार पुद्गल द्रव्योंमें परिणमन होता है और विचारोंके उत्तेजक पुद्गल द्रव्य आत्मा के वासनामय सूक्ष्म कर्मशरीरमें शामिल होते जाते हैं । जब-जब उन कर्मपुद्गलोंपर दबाव पड़ता है तब-तब वे कर्मपुद्गल फिर उन्हीं रागादि भावोंको आत्मामें उत्पन्न कर देते हैं । इसी तरह रागादि भावोंसे नए कर्मपुद्गल कर्मशरीर में शामिल होते हैं तथा उन कर्मपुद्गलोंके परिपाकके अनुसार नूतन रागादि भावोंकी सृष्टि होती है । फिर नए कर्मपुद्गल बँधते हैं फिर उनके परिपाकके समय रागादिभाव होते हैं । इस तरह रागादिभाव और कर्म पुद्गलबन्धका चक्र बराबर चलता रहता है जबतक कि चरित्रके द्वारा रागादि भावोंको रोक नहीं दिया जाता । इस बन्ध परम्पराका वर्णन आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें इस प्रकार किया है
"जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२ ॥ परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पौदगलिकं कर्म तस्यापि ॥ १३ ॥ "
अर्थात् जीवके द्वारा किये गए राग-द्वेष-मोह आदि परिणामोंको निमित्त पाकर पुद्गल परमाणु स्वतः ही कर्मरूपसे परिणत हो जाते हैं । आत्मा अपने चिदात्मक भावोंसे स्वयं परिणत होता है, पुद्गल कर्म तो उसमें निमित्तमात्र है । जीव और पुद्गल एक-दूसरेके परिणमनमें परस्पर निमित्त होते हैं ।
सारांश यह कि जीवको वासनाओं राग-द्वेष-मोह आदिकी और पुद्गल कर्मबन्धकी धारा बीजवृक्ष - सन्ततिकी तरह अनादिसे चालू है । पूर्वबद्ध कर्मके उदयसे इस समय राग-द्वेष आदि उत्पन्न हुए हैं, इनमें जो जीवकी आसक्ति और लगन होती है वह नूतन कर्मबन्ध करती है । उस बद्धकर्मके परिपाकके समय फिर राग-द्वेष होते हैं, फिर उनमें आसक्ति और मोह होनेसे नया कर्म बँधता है । यहाँ इस शंकाको कोई स्थान नहीं है कि- ' जब पूर्वकर्मसे रागद्वेषादि तथा रागद्वेषादिसे नूतन कर्मबन्ध होता तब इस चक्रका उच्छेद ही नहीं हो सकता, क्योंकि हर एक कर्म रागद्वेष आदि उत्पन्न करेगा और हर एक रागद्वेष कर्मबन्धन करेंगे ।' कारण यह है कि पूर्वकर्मके उदयसे होनेवाले कर्मफलभूत रागद्वेष वासना आदिका भोगना कर्मबन्धक नहीं होता किन्तु भोगकालमें जो नूतन राग-द्वेषरूप अध्यवसान भाव होते हैं वे बन्धक होते हैं । यही कारण है कि सम्यग्दृष्टिका कर्मभोग निर्जराका कारण होता है और मिथ्यादृष्टिका बन्धका कारण | सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वकर्मके उदयकालमें होनेवाले राग-द्वेष आदिको विवेकपूर्वक शान्त तो करता है, पर उनमें नूतन अध्यवसान नहीं करता, अतः पुराने कर्म तो अपना फल देकर निर्जीर्ण हो जाते हैं और नूतन आसक्ति न होने के कारण नवीन बन्ध होता नहीं अतः सम्यग्दृष्टि तो दोनों तरफसे हलका हो चलता है जब कि मिथ्यादृष्टि कर्मफलके समय होनेवाले राग, द्वेष, वासना आदिके समय उनमें की गई नित नई आसक्ति और लगन के परिणामस्वरूप नूतन कर्मोंको और भी दृढ़तासे बाँधता है, और इस तरह मिथ्यादृष्टिका
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : १९५ कर्मचक्र और भी तेजीसे चालू रहता है । जिस प्रकार हमारे भौतिक मस्तिष्कपर अनुभवकी असंख्य सीधी-टेढ़ी, गहरी - उथली रेखाएँ पड़ती रहती हैं, एक प्रबल रेखा आई तो उसने पहिलेकी निर्बल रेखाको साफ कर दिया और अपना गहरा प्रभाव कायम कर दिया, दूसरी रेखा पहिलेकी रेखाको या तो गहरा कर देती है या साफ कर देती है और इस तरह अन्तमें कुछ ही अनुभव रेखाएँ अपना अस्तित्व कायम रखती हैं, उसी तरह आज कुछ राग-द्वेषादि जन्य संस्कार उत्पन्न हुए कर्मबन्धन हुआ, पर दूसरे ही क्षण शील, व्रत, संयम और श्रुत आदिकी पूत भावनाओंका निमित्त मिला तो पुराने संस्कार धुल जायेंगे या क्षीण हो जायेंगे, यदि दुबारा और भी तीव्र रागादि भाव हुए तो प्रथमबद्ध कर्म पुद्गलमें और भी तीव्र फलदात्री अनुभागशक्ति पड़ जायगी। इस तरह जीवनके अन्तमें कर्मोंका बन्ध, निर्जरा, उत्कर्षण, अपकर्षण आदि होते-होते जो रोकड़ बाकी रहती है वही सूक्ष्म कर्मशरीरके रूपमें परलोक तक जाती है । जैसे तेज अग्निपर उबलती हुई बटलोईमें दाल, चावल, शाक जो भी डालिए उसका ऊपर-नीचे जाकर उफान लेकर नीचे बैठकर अन्तमें एक पाक बन जाता है, उसी तरह प्रतिक्षण बँधनेवाले अच्छे या बुरे कर्मों में शुभभावोंसे शुभकर्मो में रसप्रकर्ष और स्थितिवृद्धि होकर अशुभकर्मों में रसापकर्ष और स्थितिहानि होकर अनेक प्रकारके ऊँचनीच परिवर्तन होते-होते अन्तमें एक जातिका पाकयोग्य स्कन्ध बन जाता है, जिसके क्रमोदयसे रागादि सुखदुःखादि भाव उत्पन्न होते हैं । अथवा, जैसे उदरमें जाकर आहारका मल-मूत्र, स्वेद आदि रूपसे कुछ भाग बाहर निकल जाता है कुछ वहीं हजम होकर रक्तादि धातु रूपसे परिणत होता है और आगे जाकर वीर्यादिरूप बन जाता है, बीचमें चूरन चटनी आदिके योगसे लघुपाक दीर्घपाक आदि अवस्थाएँ भी होती हैं पर अन्तमें होनेवाले परिपाकके अनुसार ही भोजनमें सुपाकी दुष्पाको आदि व्यवहार होता है, उसी तरह कर्मका भी प्रतिसमय होनेवाले शुभ-अशुभ विचारोंके अनुसार तीव्र मन्द मध्यम मृदु मदुतर आदि रूपसे परिवर्तन बराबर होता रहता है । कुछ कर्म संस्कार ऐसे हैं जिनमें परिवर्तन नहीं होता और उनका फल भोगना ही पड़ता है, पर ऐसे कर्म बहुत कम हैं जिनमें किसी जातिका परिवर्तन न हो । अधिकांश कर्मों में अच्छे-बुरे विचारके अनुसार उत्कर्षण ( स्थिति और अनुभागकी वृद्धि ), अपकर्षण ( स्थिति और अनुभागकी हानि ), संक्रमण ( एकका दूसरे रूप में परिवर्तन ), उदीरणा ( नियत समय से पहिले उदयमें ले आना) आदि होते रहते हैं और अन्तमें शेष कर्मबन्धका एक नियत परिपाकक्रम बनता है । उसमें भी प्रतिसमय परिवर्तनादि होते हैं । तात्पर्य यह कि यह आत्मा अपने भले-बुरे विचारों और आचारोंसे स्वयं बन्धन में पड़ता है और ऐसे संस्कारोंको अपनेमें डाल लेता है जिनसे छुटकारा पाना सहज नहीं होता । जैन सिद्धान्तने उन विचारोंके प्रतिनिधिभूतकर्मद्रव्यका इस आत्मासे बंध माना है जिससे उस कर्मद्रव्यपर भार पड़ते ही या उसका उदय आते ह वे भाव आत्मामें उदित होते हैं ।
जगत् भौतिक है । वह पुद्गल और आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है । कर्मका एक भौतिक पिण्ड, जो विशिष्ट शक्तिका केन्द्र है, आत्मासे सम्बद्ध हो गया तब उसकी सूक्ष्म पर तीव्र शक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं । बाह्य पदार्थों के समवधान के अनुसार कर्मोंका यथासम्भव प्रदेशोदय या फलोदय रूपसे परिपाक होता रहता है । उदयकालमें होनेवाले तीव्र मन्द मध्यम शुभ-अशुभ भावोंके अनुसार आगे उदय आनेवाले कर्मोंके रसदानमें अन्तर पड़ जाता है । तात्पर्य यह है कि बहुत कुछ कर्मोंका फल देना या अन्य रूपमें देना या न देना हमारे पुरुषार्थके ऊपर निर्भर है ।
इस तरह जैनदर्शनमें यह आत्मा अनादिसे अशुद्ध माना गया है और प्रयोगसे शुद्ध हो सकता है । शुद्ध होने के बाद फिर कोई कारण अशुद्ध होनेका नहीं रह जाता । आत्माके प्रदेशों में संकोच विस्तार भी
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं
कर्मके निमित्तसे भी होता है। अतः कर्म निमित्तके हट जानेपर आत्मा अपने अन्तिम आकारमें रह जाता है और ऊर्ध्व लोकमें लोकाग्रभागमें स्थिर हो अपने अनन्त चैतन्यमें प्रतिष्ठित हो जाता है।
इस आत्माका स्वरूप उपयोग है। आत्माकी चैतन्यशक्तिको उपयोग कहते हैं। यह चिति शक्ति बाह्य अभ्यन्तर कारणोंसे यथासंभव ज्ञानाकार पर्यायको और दर्शनाकार पर्यायको धारण करती है। जिस समय यह चैतन्यशक्ति ज्ञेयको जानती है उस समय साकार होकर ज्ञान कहलाती है तथा जिस समय मात्र चैतन्याकार रहकर निराकर रहती है तब दर्शन कहलाती है । ज्ञान और दर्शन क्रमसे होनेवाली पर्याएँ हैं । निरावरण दशामें चैतन्य अपने शुद्ध चैतन्य रूपमें लीन रहता है। इस अनिर्वचनीय स्वरूपमात्र प्रतिष्ठित आत्ममात्र दशाको ही निर्वाण कहते हैं। निर्वाण अर्थात् वासनाओंका निर्वाण । स्वरूपसे अमर्तिक होकर भी यह आत्मा अनादि कर्मबन्धनबद्ध होने के कारण मूर्तिक हो रहा है और कर्मबन्धन हटते ही फिर अपनी शुद्ध अमूर्तिक दशामें पहुँच जाता है । यह आत्मा अपनी शुभ-अशुभ परिणतियोंका कर्ता है। और उनके फलोंका भोवता है। उसमें स्वयं परिणमन होता है। उपादान रूपसे यही आत्मा रागद्वेष मोह अज्ञान क्रोध आदि विकार परिणामोंको धारण करता है और उसके फलोंको भोगता है । संसार दशामें कर्मके अनुसार नानाविध योनियों में शरीरोंका धारण करता है पर मुक्त होते ही स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करता है और लोकाग्रभागमें सिद्धलोकमें स्वरूपप्रतिष्ठित हो जाता है।
अतः महावीरने बन्ध मोक्ष और उसके कारणभूत तत्त्वोंके सिवाय इस आत्माका भी ज्ञान आवश्यक बताया जिसे शुद्ध होना है तथा जो अशुद्ध हो रहा है। आत्माकी अशुद्ध दशा स्वरूपप्रच्युतिरूप है और यह स्वस्वरूपको भलकर परपदार्थों में ममकार और अहंकार करनेके कारण हुई है। अतः इस अशुद्ध दशाका अन्त भी स्वरूपज्ञानसे ही हो सकता है । जब इस आत्माको यह तत्त्वज्ञानहोता है कि-"मेरा स्वरूप तो अनन्त चैतन्यमय वीतराग निर्मोह निष्कषाय शान्त निश्चल अप्रमत्त ज्ञानरूप है । इस स्वरूपको भलकर पर पदार्थोंमें ममकार तथा शरीरको अपना मानने के कारण रागद्वेष मोह कषाय प्रमाद मिथ्यात्व आदि विकासरूप मेरा परिणमन हो गया है और इन कषायोंकी ज्वालामें मेरा रूप समल और चंचल हो रहा है। यदि पर पदार्थों से ममकार और रागादिभावोंसे अहंकार हट जाय तथा आत्मपरविवेक हो जाय तो यह अशुद्ध दशा ये वासनाएँ अपने आप क्षीण हो जायँगी ।" तो यह विकारोंको क्षीण करता हुआ निर्विकार चैतन्यरूप होता जाता है। इसी शद्धिकरणको मोक्ष कहते हैं। यह मोक्ष जबतक शुद्ध आत्मस्वरूपका बोध न हो तबतक कैसे हो सकता है ?
बद्धके तत्त्वज्ञानका प्रारम्भ दुःखसे होता है और उसकी समाप्ति दुःखनिवृत्तिमें होती है । पर महावीर बन्ध और मोक्षके आधारभूत आत्माको ही मूलतः तत्त्वज्ञानका आधार बनाते हैं। बुद्धको आत्मा शब्दसे ही चिढ है। वे समझते है कि आत्मा अर्थात् उपनिषद्वादियोंका नित्य आत्मा । और नित्य आत्मामें स्नेह होनेके कारण स्वबुद्धि और दूसरे पदार्थों में परबुद्धि होने लगती है । स्व-पर विभागसे रागद्वेष और रागद्वेषसे यह संसार बन जाता है। अतः सर्वानर्थमल यह आत्मदृष्टि है। पर वे इस ओर ध्यान नहीं देते कि 'आत्मा' की नित्यता या अनित्यता राग और विरागका कारण नहीं है। राग और विराग तो स्वरूपानवबोध और स्वरूपबोधसे होते हैं। रागका कारणपर पदार्थोंमें ममकार करना है। जब इस आत्माको समझाया जायगा कि "मुर्ख, तेरा स्वरूप तो निर्विकार अखण्ड चैतन्य है। तेरा इन स्त्री-पुत्र शरीरादिमें ममत्व करना विभाव है. स्वभाव नहीं।" तब यह सहज ही अपने निर्विकार सहज स्वभावकी ओर दृष्टि डालेगा और इसी विवेक दष्टि या सम्यग्दर्शनसे पर पदार्थोंसे रागद्वेष हटाकर स्वरूपमें लीन होने लगेगा । इसीके कारण आस्रव रुकते हैं और चित्त निरास्रव होता है।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : १९७ आत्मदृष्टि ही बन्धोच्छेदिका-विश्वका प्रत्येक द्रव्य अपने गुण और पर्यायोंका स्वामी है । जिस तरह अनन्त चेतन अपना पृथक अस्तित्व रखते हैं उसी तरह अनन्त पुद्गल परमाणु एक धर्म द्रव्य ( गति सहायक ), एक अधर्म द्रव्य ( स्थिति सहकारी), एक आकाशद्रव्य (क्षेत्र ) असंख्य कालाणु अपना पृथक् अस्तित्व रखते हैं । प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिवर्तित होता है । परिवर्तनका अर्थ विलक्षण परिणमन ही नहीं होता। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और कालद्रव्य इनका विभाव परिणमन नहीं होता, ये सदा सदृश परिणमन ही करते हैं । प्रतिक्षण परिवर्तन होनेपर भी एक जैसे बने रहते हैं । इनका शुद्ध परिणमन ही रहता है । रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले पुद्गल परमाणु प्रतिक्षण शुद्ध परिणमन भी करते हैं । इनका अशुद्ध परिणमन है स्कन्ध बनना। जिस समय ये शुद्ध परमाणुकी दशामें रहते हैं उस समय इनका शुद्ध परिणमन होता है और जब ये दो या अधिक मिलकर स्कन्ध बन जाते हैं तब अशुद्ध परिणमन होता है। जीव जबतक संसार दशामें है और अनेकविध सूक्ष्म कर्मशरीरसे बद्ध होनेके कारण अनेक स्थूल शरीरोंको धारण करता है तब तक इसका विभाव या विकारी परिणमन है । जब स्वरूप-बोधके द्वारा पर पदार्थोंसे मोह हटाकर स्वरूपमात्रमग्न होता है तब स्थूल शरीरके साथ ही सूक्ष्म कर्मशरीरका भी उच्छेद होनेपर निर्विकार शुद्ध चैतन्य भाव हो जाता है और अनन्त कालतक अपनी शुद्ध चिन्मात्र दशामें बना रहता है। फिर इसका विभाव या अशुद्ध परिणमन नहीं होता क्योंकि विभाव परिणमनकी उपादानभूत रागादि सन्तति उच्छिन्न हो चुकी है। इस प्रकार द्रव्य स्थिति है। जो पर्याय प्रथमक्षणमें है वह दूसरे क्षणमें नहीं रहती है। कोई भी पर्याय दो क्षण ठहरनेवाली नहीं है। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायका उपादान है । दूसरा द्रव्य चाहे वह सजातीय हो या विजातीय, निमित्त ही हो सकता है, उपादान नहीं। पुद्गलमें अपनी योग्यता ऐसी है जो दूसरे परमाणुसे सम्बन्ध करके स्वभावतः अशुद्ध बन जाता है पर आत्मा स्वभावसे अशुद्ध नहीं बनता। एक बार शुद्ध होनेपर वह कभी भी फिर अशुद्ध नहीं होगा।
इस तरह इस प्रतिक्षण परिवर्तनशील अनन्तद्रव्यमय लोकमें मैं एक आत्मा हूँ। मेरा किसी दूसरे आत्मा या पुद्गल आदि द्रव्योंसे कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं अपने चैतन्यका स्वामी हूँ, मात्र चैतन्यरूप हूँ। यह शरीर अनन्त पुद्गल परमाणुओंका एक पिण्ड है, इसका मैं स्वामी नहीं हूँ। यह सब पर द्रव्य है । इसके लिए पर पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि करना हो संसार है। मैं एक व्यक्ति हूँ। आजतक मैंने पर पदार्थोंको अपने अनुकूल परिणमन करानेकी अनधिकार चेष्टा की। मैंने यह भी अनधिकार चेष्टा की कि संसारके अधिकसे अधिक पदार्थ मेरे अधीन हों, जैसा मैं चाहँ वैसा परिणमन करें। उनकी वृत्ति मेरे अनुकूल हो । पर मर्ख. त तो एक व्यक्ति है। अपने परिणमन पर अर्थात् अपने विचारोंपर और अपनी क्रियापर ही अधिकार रख सकता है, पर पदार्थोपर तेरा वास्तविक अधिकार क्या है ? यह अनधिकार चेष्टा ही रागद्वेषको उत्पन्न करती है । तू चाहता है कि-शरीर प्रकृति स्त्री पुत्र परिजन आदि सब तेरे इशारेपर चलें, संसारके समस्त पदार्थ तेरे अधीन हों, तु त्रैलोक्यको इशारेपर नचानेवाला एकमात्र ईश्वर बन जाय । पर यह सब तेरी निरधिकार चेष्टाएँ हैं । तू जिस तरह संसारके अधिकतम पदार्थोंको अपने अनुकूल परिणमन कराके अपने अधीन करना चाहता है उसी तरह तेरे जैसे अनन्त मढ़ चेतन भी यही दुर्वासना लिए हैं और दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन करना चाहते हैं। इसी छीनाझपटीमें संघर्ष होता है, हिंसा होती है, रागद्वेष होता है और अन्ततः दुःख । सुख और दुःखकी स्थूल परिभाषा यह है कि 'जो चाहे सो होवे' इसे कहते हैं सुख और 'चाहे कुछ और होवे कुछ, या जो चाहे सो न हो' यही है दुःख । मनुष्यकी चाह सदा यही रहती है कि मुझे सदा इष्टका संयोग रहे, अनिष्टका संयोग न हो, चाहके अनुसार समस्त भौतिक जगत् और चेतन परिणत होते रहें,
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
शरीर चिर यौवन रहे, स्त्री स्थिरयौवना हो, मृत्यु न हो, अमरत्व प्राप्त हो, धन-धान्य हों, प्रकृति अनुकूल रहे, और न जाने कितनी प्रकारकी 'चाह' इस शेखचिल्ली मानवको होती रहती है। उन सबका निचोड़ यह है कि जिन्हें हम चाहें उनका परिणमन हमारे इशारेपर हो, तब इस मूढ मानवको क्षणिक सुखका आभास हो सकता है । बुद्ध ने जिस दुःख को सर्वानुभूत बताया वह सब अभावकृत ही तो हैं । महावीरने इस तृष्णाका कारण बताया - स्वरूपरूपकी मर्यादाका अज्ञान । यदि मनुष्यको यह पता हो कि जिनकी मैं चाह करता हूँ, जिनकी तृष्णा करता हूँ वे पदार्थ मेरे नहीं मैं तो एक चिन्मात्र हूँ, तो उसे अनुचित तृष्णा ही उत्पन्न न होगी ।
इस मानवने अपने आत्माके स्वरूप और उसके अधिकारकी सीमाको न जानकर सदा मिथ्या आचरण किया और पर पदार्थों के निमित्तसे जगत् में अनेक कल्पित ऊँच-नीच भावोंकी सृष्टि कर मिथ्या अहंकारका पोषण किया । शरीराश्रित या जीविकाश्रित ब्राह्मण क्षत्रियादि वर्णों को लेकर ऊँच-नीच व्यवहारकी भेदक भित्ति खड़ीकर मानवको मानवसे इतना जुदा कर दिया जो एक उच्चाभिमानी मांसपिंड दूसरेकी छायासे या दूसरेको छूनेसे अपनेको अपवित्र मानने लगा । बाह्य परपदार्थों के संग्रही और परिग्रहीको सम्राट् राजा आदि संज्ञाएँ देकर तृष्णा की पूजा की। इस जगत् में जितने संघर्ष और हिंसाएँ हुई हैं वे सब पर पदार्थोंकी छीनाझपटीके कारण ही हुई हैं । अतः जब तक मुमुक्षु अपने वास्तविक रूपको तथा तृष्णाके मूल कारण 'परत्र आत्मबुद्धि को नहीं समझ लेता तब तक दुःखनिवृत्तिकी समुचित भूमिका ही तैयार नहीं हो सकती । बुद्धने संक्षेप में पंच स्कन्धों को दुःख कहा है, पर महावीर ने उसके भीतरी तत्त्वज्ञानको बताया —चूँकि ये स्कन्ध आत्मरूप नहीं है अतः इनका संसर्ग ही अनेक रागादिभावों का सर्जक है, अतः ये दुःखस्वरूप हैं । अतः निराकुल सुखका उपाय आत्ममात्रनिष्ठा और पर पदार्थोंसे ममत्वका हटाना ही है । इसके लिए आत्मदृष्टि ही आवश्यक है । आत्मदर्शनका उपर्युक्त प्रकार परपदार्थों में द्वेष करना नहीं सिखाता किन्तु यह बताता है कि इनमें जो तुम्हारी तृष्णा फैल रही है वह अनधिकार चेष्टा है । वास्तविक अधिकार तो तुम्हारा अपने विचार और अपनी प्रवृत्तिपर ही है । इस तरह आत्मा वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान हुए बिना दुःखनिवृत्ति या मुक्तिकी संभावना ही नहीं की जा सकती । अतः धर्मकीर्तिकी यह आशंका भी निर्मूल है कि
"आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ ।
अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते ||" - प्रमाण वा० १।२२१
अर्थात् आत्माको माननेपर दूसरोंको पर मानना होगा । स्त्र और पर विभाग होते ही स्वका परिग्रह और परसे द्वेष होगा । परिग्रह और द्वेष होनेसे रागद्वेषमूलक सैकड़ों अन्य दोष उत्पन्न होते हैं ।
यहाँ तक तो ठीक है कि कोई व्यक्ति आत्माको स्व और आत्मेतरको पर मानेगा । पर स्व-परविभागसे परिग्रह और द्वेष कैसे होंगे ? आत्मस्वरूपका परिग्रह कैसा ? परिग्रह तो शरीर आदि पर पदार्थोंका और उसके सुखसाधनोंका होता है जिन्हें आत्मदर्शी व्यक्ति छोड़ेगा ही, ग्रहण नहीं करेगा । उसे तो जैसे स्त्री आदि सुखसाधनपर हैं वैसे शरीर भी । राग और द्वेष भी शरीरादिके सुखसाधनों और असाधनों से होते हैं सो आत्मदर्शीको क्यों होंगे ? उलटे आत्मदृष्टा शरीरादिनिमित्तक यावत् रागद्वेष द्वन्द्वोंके त्यागका ही स्थिर प्रयत्न करेगा । हाँ, जिसने शरीरस्कन्धको ही आत्मा माना है उसे अवश्य आत्मदर्शनसे शरीरदर्शन प्राप्त होगा और शरीर के इष्टानिष्टनिमित्तक पदार्थों में परिग्रह और द्वेष हो सकते हैं, किन्तु जो शरीरको भी पर ही मान रहा है तथा दुःखका कारण समझ रहा है वह क्यों उसमें तथा उसके इष्टानिष्ट साधनोंमें रागद्वेष करेगा ?
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/विशिष्ट निबन्ध : १९९
अतः शरीरादिसे भिन्न आत्मस्वरूपका परिज्ञान ही रागद्वेषकी जड़को काट सकता है और वीतरागताको प्राप्त करा सकता है।
आत्मदर्शी व्यक्ति जहाँ अपने आत्मस्वरूपको उपादेय समझता है वहाँ यह भी तो समझता है कि शरीरादि पर पदार्थ आत्माके हितकारक नहीं हैं। इनमें रागद्वेष करना ही आत्माको बन्धमें डालनेवाला है। आत्माको स्वरूपमात्रप्रतिष्ठारूप सुखके लिए किसी साधनके ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु जिन शरीरादि परपदार्थों में सुखसाधनत्वकी मिथ्याबुद्धि कर रखी है वह मिथ्याबुद्धि ही छोड़ना है। आत्मगुणका दर्शन आत्ममात्रमें लीनताका कारण होगा न कि बन्धनकारक पर पदार्थों के ग्रहणका । शरीरादि पर पदार्थों में होनेवाला आत्माभिनिवेश अवश्य रागादिका सर्जक हो सकता है किन्तु शरीरादिसे भिन्न आत्मतत्त्वका दर्शन क्यों शरीरादिमें रागादि उत्पन्न करेगा? यह तो धर्मकीर्ति तथा उनके अनुयायियोंका आत्मतत्त्वके अव्याकृत होनेके कारण दृष्टिव्यामोह है जो वे अँधेरेमें उसका शरीरस्कन्धस्वरूप ही स्वरूप टटोल रहे हैं और आत्मदृष्टिको मिथ्यादृष्टि कहनेका दुःसाहस कर रहे हैं। एक ओर वे पृथिवी आदि भूतोंसे आत्माकी उत्पत्तिका खंडन भी करते हैं दूसरी ओर रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कन्धोंसे व्यतिरिक्त किसी आत्माको मानना भी नहीं चाहते। इनमें वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये चार स्कन्ध चेतनात्मक हो सकते हैं पर रूपस्कन्धको चेतन कहना चार्वाकके भूतात्मवादसे कोई विशेषता नहीं रखता। जब बुद्ध स्वयं आत्माको अन्याकृतकोटिमें डाल गए तो उनके शिष्योंका युक्तिमूलक दार्शनिक क्षेत्रोंमें भी आत्माके विषयमें परस्पर विरोधी दो विचारोंमें दोलित रहना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। आज राहुल सांकृत्यायन बुद्धके इन विचारोंको 'अभौतिकअनात्मवाद' जैसे उभयप्रतिषेधक नामसे पुकारते हैं। वे यह नहीं बता स आखिर फिर आत्माका स्वरूप है क्या ? क्या उसको रूपस्कन्धकी तरह स्वतन्त्र सत्ता है ? क्या वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये स्कन्ध भी रूपस्कन्धकी तरह स्वतन्त्र सत् है ? और यदि निर्वाणमें चित्तसन्त ति निरुद्ध हो जाती है तो चार्वाकके एकजन्म तक सीमित देहात्मवादसे इस अनेकजन्म-सीमित देहात्मवादमें क्या मौलिक विशेषता रहती है ? अन्तमें तो उसका निरोध हआ ही।।
महावीर इस असंगतिजालमें न तो स्वयं पड़े और न शिष्योंको हो उनने इसमें डाला। यही कारण है जो उन्होंने आत्माका पूरा-पूरा निरूपण किया और उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना । जैसा कि मैं पहिले लिख आया हूँ कि धर्मका लक्षण है वस्तुका स्व-स्वभावमें स्थिर होना । आत्माका खालिस आत्मरूपमें लीन होना ही धर्म है और मोक्ष है। यह मोक्ष आत्मतत्त्वकी जिज्ञासाके बिना हो ही नहीं सकता।
आत्मा तीन प्रकारके हैं-वहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । जो आत्माएँ शरीरादिको ही अपना रूप मानकर उनकी ही प्रिय साधनामें लगे रहते हैं वे बहिर्मख बहिरात्मा हैं। जिन्हें स्वपरविवेक या भेदविज्ञान उत्पन्न हो गया है, शरीरादि बहिःपदार्थोसे आत्मदृष्टि हट गई है वे सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा हैं। जो समस्त कर्ममल कलंकोंसे रहित होकर शुद्ध चिन्मात्र स्वरूपमें मग्न है वे परमात्मा हैं। एक ही आत्मा अपने स्वरूपका यथार्थ परिज्ञानकर अन्तर्दृष्टि हो क्रमशः परमात्मा बन जाता है। अतः आत्मधर्मकी प्राप्तिके लिए या बन्धमोक्षके लिए आत्मतत्त्वका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है।
जिस प्रकार आत्मतत्त्वका ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार जिन अजीवोंके सम्बन्धसे आत्मा विकत होता है उसमें विभावपरिणति होती है उस अजीवतत्त्वके ज्ञानकी भी आवश्यकता है। जब तक इस अजीवतत्त्वको नहीं जानेंगे तब तक किन दोमें बन्ध हुआ यह मूल बात ही अज्ञात रह जाती है। अतः अजीवतत्त्वका ज्ञान जरूरी है। अजीवतत्त्वमें चाहे धर्म, अधर्म, आकाश और कालका सामान्य ज्ञान ही हो पर पुद्गलका किंचित्
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
विशेष ज्ञान अपेक्षित है । शरीर स्वयं पुद्गलपिंड है । यह चेतनके संसर्ग से चेतनायमान हो रहा है । जगत् में रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले यावत् पदार्थ पौद्गालिक हैं । पृथिवी, जल, अग्नि, वायु सभी पौद्गलिक हैं । इनमें किसीमें कोई गुण उद्भूत रहता है किसीमें कोई गुण । अग्निमें रस अनुद्भूत है, वायुमें रूप अनुद्भूत है जलमें गन्ध अनुद्भूत है । पर ये सब विभिन्न जातीय द्रव्य नहीं हैं किन्तु एक पुद्गलद्रव्य ही हैं । शब्द, प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि पुद्गल स्कन्धकी पर्यायें हैं । विशेषतः मुमुक्षुके लिए यह जानना जरूरी है कि शरीर पुद्गल है और आत्मा इमसे पृथक् है । यद्यपि आज अशुद्ध दशामें आत्माका ९९ प्रतिशत विकास और प्रकाश शरीराधीन है। शरीरके पुर्जोंके बिगड़ते ही वर्तमान ज्ञानविकास रुक जाता है और शरीरके नाश होनेपर वर्तमानशक्तियाँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं फिर भी आत्मा स्वतन्त्र और शरीरके अतिरिक्त भी उसका अस्तित्व परलोकके कारण सिद्ध । आत्मा अपने सूक्ष्म कार्मण शरीरके अनुसार वर्तमान स्थूल शरीरके नष्ट हो जानेपर भी दूसरे स्थूल शरीरको धारण कर लेता है । आज आत्माके सात्त्विक, राजस या तामस सभी प्रकार के विचार या संस्कार शरीरकी स्थितिके अनुसार विकसित होते हैं । अतः मुमुक्षुके लिए इस शरीर पुद्गलकी प्रकृतिका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है जिससे वह इसका उपयोग आत्मविकासमें कर सके, ह्रासमें नहीं । यदि उत्तेजक या अपथ्य आहार-विहार होता है तो कितना ही पवित्र विचार करनेका प्रयत्न किया जाय पर सफलता नहीं मिल सकती । इसलिए बुरे संस्कार और विचारोंका शमन करनेके लिए या क्षीण करनेके लिए उनके प्रबल निमित्तभूत शरीर की स्थिति आदिका परिज्ञान करना ही होगा। जिन पर पदार्थोंसे आत्माको विरक्त होना है या उन्हें पर समझकर उनके परिणमनपर जो अनधिकृत स्वामित्व के दुर्भाव आरोपित हैं उन्हें नष्ट करना है उस परका कुछ विशेष ज्ञान तो होना ही चाहिए, अन्यथा विरक्ति किससे होगी ? सारांश यह कि जिसे बंधन होता है और जिससे बंधता है उन दोनों तत्त्वोंका यथार्थ दर्शन हुए बिना बन्ध परम्परा कट नहीं सकती । इस तत्त्वज्ञान के बिना चारित्रकी ओर उत्साह ही नहीं हो सकता । चारित्रकी प्रेरणा विचारोंसे ही मिलती है ।
बन्ध-बन्ध दो पदार्थोंके विशिष्ट सम्बन्धको कहते हैं । बन्ध दो प्रकारका है - एक भावबन्ध और दूसरा द्रव्यबन्ध | जिन राग-द्वेष, मोह आदि विभावोंसे कर्म वर्गणाओंका बंध होता है उन रागादिभावों को भावबंध कहते हैं और कर्मवर्गणाओंका आत्मप्रदेशोंसे सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध कहलाता है । द्रव्यबन्ध आत्मा और पुद्गलका है । यह निश्चित है कि दो द्रव्योंका संयोग ही हो सकता है तादात्म्य नहीं । पुद्गलद्रव्य परस्परमें बन्धको प्राप्त होते हैं तो एक विशेष प्रकारके संयोगको ही प्राप्त करते हैं । उनमें स्निग्धता और रूक्षता के कारण एक रासायनिक मिश्रण होता है जिससे उस स्कन्धके अन्तर्गत सभी परमाणुओंकी पर्याय बदलती है और वे ऐसी स्थितिमें आ जाते हैं कि अमुक समय तक उन सबकी एक जैसी ही पर्याएँ होती रहती हैं । स्कन्धके रूप रसादिका व्यवहार तदन्तर्गत परमाणुओं के रूपरसादिपरिणमनकी औसत से होता है । कभी-कभी एक ही स्कन्धके अमुक अंशमें रूप रसादि अमुक प्रकारके हो जाते हैं और दूसरी ओर दूसरे प्रकारके । एक ही आम स्कन्ध एक ओर पककर पीला मीठा और सुगन्धित हो जाता है तो दूसरी ओर हरा खट्टा और विलक्षण गन्धवाला बना रहता है। इससे स्पष्ट है कि स्कन्धमें शिथिल या दृढ़ बन्धके अनुसार तदन्तर्गत परमाणुओं के परिणमनकी औसत से रूपरसादि व्यवहार होते हैं । स्कन्ध अपनेमें स्वतन्त्र कोई द्रव्य नहीं है । किन्तु वह अमुक परमाणुओंकी विशेष अवस्था ही है । और अपने आधारभूत परमाणुओंके अधीन ही उसकी दशा रहती है। पुद्गलोंके बन्धमें यही रासायनिकता है कि उस अवस्था में उनका स्वतन्त्र विलक्षण परिणमन नहीं हो सकता किन्तु एक जैसा परिणमन होता रहता है । परन्तु आत्मा और कमंपुद्गलोंका ऐसा रासायनिक मिश्रण हो ही नहीं सकता। यह बात जुदा है कि कर्मस्कन्धके आ जानेसे आत्माके परिणमन में
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २०१
विलक्षणता आ जाय और आत्माके निमित्तसे कर्मस्कन्धकी परिणति विलक्षण हो जाय पर इससे आत्मा और पुद्गलकर्मके बन्धको रासायनिक मिश्रण नहीं कह सकते । क्योंकि जीव और कर्मके बन्धमें दोनोंकी एक जैसी पर्याय नहीं होती। जीवकी पर्याय चेतन रूप होगी, पुद्गलकी अचेतनरूप । पुद्गलका परिणमन रूप, रस गन्धादिरूप होगा, जीवका चैतन्यके विकाररूप। हाँ, यह वास्तविक स्थिति है कि नूतन कर्मपदगलोंका पराने बंधे हुए कर्मशरीरके साथ रासायननिक मिश्रण हो और वह उस पुराने कर्मपुद्गलके साथ बँधकर उसी स्कन्धमें शामिल हो जाय । होता भी यही है। पुराने कर्मशरीरसे प्रतिक्षण अमुक परमाणु झरते हैं और दूसरे कुछ नए शामिल होते हैं । परन्तु आत्मप्रदेशोंसे उनका बन्ध रासायनिक बिलकुल नहीं है। वह तो मात्र संयोग है । प्रदेशबन्धकी व्याख्या तत्त्वार्थसूत्रकारने यही की है-"नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः।" ( तत्त्वार्थसूत्र ८।२४ ) अर्थात् योगके कारण समस्त आत्मप्रदेशोंपर सूक्ष्म पुद्गल आकर एकक्षेत्रावगाही हो जाते हैं। इसीका नाम प्रदेशबन्ध है । द्रव्यबन्ध भी यही है। अतः आत्मा और कर्मशरीरका एकक्षेत्रावगाहके सिवाय अन्य कोई रासायनिक मिश्रण नहीं होता। रासायनिक मिश्रण नवीन कर्मपुगदलोंका प्राचीन कर्मपुद्गलोंगे ही हो सकता है, आत्मप्रदेशोंसे नहीं।
जीवके रागादिभावोंसे जो योगक्रिया अर्थात आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द होता है उससे कर्मवर्गणाएँ खिचती हैं। वे शरीरके भीतरसे भी खिंचती हैं बाहिरसे भी। खिंचकर आत्मप्रदेशोंपर या प्राबद्ध कर्मशरीरसे बन्धको प्राप्त होती है। इस योगसे उन कर्मवर्गणाओंमें प्रकृति अर्थात् स्वभाव पड़ता है। यदि वे कर्मपुद्गल किसीके ज्ञानमें बाधा डालने रूप क्रियासे खिचे हैं तो उनमें ज्ञानावरणका स्वभाव पड़ेगा और यदि रागादि कषायसे तो उनमें चारित्रावरणका । आदि । तात्पर्य यह कि आए हुए कर्म पुद्गलोंको आत्मप्रदेशोंसे एकक्षेत्रावगाही कर देना और उनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि स्वभावोंका पड़ जाना योगसे होता है। इन्हें प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध कहते हैं। कषायोंकी तीव्रता और मन्दताके अनुसार उस कर्मपुद्गलमें स्थिति और फल देनेकी शक्ति पड़ती है यह स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कहलाता है। ये दोनों बन्ध कषायसे होते हैं । केवली अर्थात जीवन्मुक्त व्यक्तिको रागादि कषाय नहीं होतीं अतः उनके योगके द्वारा जो कर्मपुद्गल आते हैं वे द्वितीय समयमें झड़ जाते हैं, उनका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध नहीं होता । बन्ध प्रतिक्षण होता रहता है और जैसा कि मैं पहिले लिख आया हूँ कि उसमें अनेक प्रकारका परिवर्तन प्रतिक्षणभावी कषायादिके अनुसार होता रहता है। अन्तमें कर्मशरीरको जो स्थिति रहती है उसके अनुसार फल मिलता है। उन कर्मनिषकोंके उदयसे वातावरणपर वैसा-वैसा असर पड़ता है । अन्तरंगमें वैसे-वैसे भाव होते हैं। आयर्बन्धके अनुसार स्थल शरीर छोड़नेपर उन-उन योनियों में जीवको नया स्थल शरीर धारण करना पड़ता है। इस तरह यह बन्धचक्र जबतक राग-द्वेष, मोह, वासनाएँ आदि विभाव भाव हैं बराबर चलता रहता है।
बन्धहेतु आस्रव-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बन्धके कारण हैं। इन्हें आस्रव-प्रत्यय भी कहते है। जिन भावोंके द्वारा कर्मोंका आस्रव होता है उन्हें भावास्रव कहते हैं और कर्मद्रव्यका आना द्रव्यास्रव कहलाता है। पुद्गलोंमें कर्मत्व प्राप्त हो जाना भी द्रव्यास्रव कहलाता है । आत्मप्रदेशतक उनका आना द्रव्यास्रव है। जिन भावोसे वे कर्म खिचते हैं उन्हें भावास्रव कहते हैं। प्रथमक्षणभावी भस्बोंको भावास्रव कहते हैं और अग्रिम क्षणभावी भावोंको भावबन्ध । भावानव जैसा तीन मन्द मध्यमात्मक होगा तज्जन्य आत्मप्रदेशपरिस्पन्दसे वैसे कर्म आयेंगे और आत्मप्रदेशोंसे बंधेगे। भावबन्धके अनुसार उस
४-२६
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
स्कन्धमें स्थिति और अनुभाग पड़ेगा। इन आस्रवोंमें मुख्य अनन्तकर्मबन्धक आस्रव है मिथ्यात्व अर्थात् मिथ्यादृष्टि । यह जीव अपने आत्मस्वरूपको भूलकर शरीरादि पर द्रव्योंमें आत्मबुद्धि करता है और इसके समस्त विचार और क्रियाएँ उन्हीं शरीराश्रित व्यवहारोंमें उलझी रहती हैं। लौकिक यशोलाभ आदिकी दृष्टिसे ही यह धर्म जैसी क्रियाओं का आचरण करता है । स्व पर विवेक नहीं रहता । पदार्थोंके स्वरूपमें भ्रान्ति बनी रहती है । तात्पर्य यह कि लक्ष्यभूत कल्याणमार्ग में ही इसकी सम्यक् श्रद्धा नहीं होती । वह सहज और गृहीत दोनों प्रकार की मिथ्यादृष्टियोंके कारण तत्त्वरुचि नहीं कर पाता । अनेक प्रकारकी देवगुरु तथा लोकमूढ़ताओंको धर्म समझता है। शरीर और शरीराश्रित स्त्री- पुत्र कुटुम्बादिके मोहमें उचित, अनुचितका विवेक किए बिना भीषण अनर्थ परम्पराओंका सृजन करता है । तुच्छ स्वार्थ के लिए मनुष्य जीवनको व्यर्थ ही खो देता है । अनेक प्रकारके ऊँच-नीच भेदोंकी सृष्टि करके मिथ्या अहंकारका पोषण करता है। जिस किसी भी देवको, जिस किसी भी वेषधारी गुरुको, जिस किसी भी शास्त्रको भय आशा स्नेह और लोभसे मानने को तैयार हो जाता है । उसका अपना कोई सिद्धान्त है और न व्यवहार । थोड़ेसे प्रलोभनसे वह सब अनर्थ करने को प्रस्तुत हो जाता है । जाति, ज्ञान, पूजा, कुल, बल, ऋद्धि, तप और शरीर आदिके कारण मदमत्त होता है और अन्योंको तुच्छ समझकर उनका तिरस्कार करता है। भय, आकांक्षा, घृणा, अन्यदोषप्रकाशन आदि दुर्गुणोंका केन्द्र होता है । इसकी प्रवृत्तिके मूलमें एक ही बात है और वह स्व-स्वरूपविभ्रम । उसे आत्मस्वरूपका कोई श्रद्धान नहीं । अतः वह बाह्य पदार्थोंमें लुभाया रहता है । यही मिथ्यादृष्टि सब दोषोंकी जननी है, इसीसे अनन्त संसारका बन्ध होता है । दर्शनमोहनीय नामक कर्मके उदयमें यह दृष्टिमूढ़ता होती है ।
अविरति - चारित्रमोह नामक कर्मके उदयसे मनुष्यको चारित्र धारण करनेके परिणाम नहीं हो पाते । वह चाहता भी है तो भी कषायोंका ऐसा तीव्र उदय रहता है जिससे न तो सकलचारित्र धारण कर पाता है और न देशचारित्र । कषाएँ चार प्रकारकी हैं
१ - अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ - अनन्त संसारका बंध करानेवाली, स्वरूपाचरणचारित्रका प्रतिबन्ध करनेवाली, प्रायः मिथ्यात्वसहचारिणी कषाय । पत्थरकी रेखाके समान ।
२ - अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ - देशचारित्र अणुव्रतोंको धारण करनेके भावोंको न होने देनेवाली कषाय । इसके उदयसे जीव श्रावक के व्रतोंको भी ग्रहण नहीं कर पाता । मिट्टीके रेखाके समान ।
३ - प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ-सम्पूर्ण चारित्रकी प्रतिबन्धिका कषाय । इसके उदयसे जीव सकल त्याग करके सम्पूर्ण व्रतोंको धारण नहीं कर पाता । धूलि रेखाके समान ।
४ -संज्वलन क्रोध मान माया लोभ - पूर्ण चारित्र में किंचिन्मात्र दोष उत्पन्न करनेवाली कषाय । यथाख्यातचारित्रकी प्रतिबन्धिका । जलरेखाके समान ।
इस तरह इन्द्रियोंके विषयोंमें तथा प्राणसंयममें निरर्गल प्रवृत्ति होनेसे कर्मोंका आस्रव होता है । अविरतिका निरोधकर विरतिभाव आनेपर कर्मोंका आस्रव नहीं होता ।
प्रमाद - असावधानीको प्रमाद कहते हैं । कुशल कर्मोंमें अनादरका भाव होना प्रमाद है । पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें लीन होनेके कारण, राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा और भोजनकथा इन चार विकथाओंमें रस लेनेके कारण, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंमें लिप्त रहनेके कारण, निद्रा और प्रणयमग्न होनेके कारण कर्त्तव्यपथ में अनादरका भाव होता है । इस असावधानीसे कुशलकर्मके प्रति अनास्था तो होती
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २०३०
ही है, साथही साथ हिंसाकी भूमिका भी तैयार होने लगती है। हिंसाके मुख्य हेतुओं में प्रमादका स्थान ही प्रमुख है । बाह्य में जीवका घात हो या न हो किन्तु असावधान और प्रमादी व्यक्तिको हिमाका दोष सुनिश्चित है। प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले अप्रमत्त साधकके द्वारा बाह्य हिंसा होनेपर भी वह अहिंसक है । अतः प्रमाद आस्रवका मुख्य द्वार है । इसीलिए भ० महावीरने बारबार गौतम गणधरको चेताया है कि "समयं गोयम मा पमादए।" अर्थात गौतम, किसी भी समय प्रमाद न करो।
कषाय-आत्माका स्वरूप स्वभावतः शान्त और निर्विकारी है। परन्तु क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाएँ आत्माको कस देती हैं और इसे स्वरूपच्युत कर देती हैं। ये चारों आत्माकी विभाव दशाएँ हैं । क्रोधकषाय द्वेष रूप है यह द्वेषका कार्य और द्वेषको उत्पन्न करती है। मान यदि क्रोधको उत्पन्न करता है तो द्वेष रूप है । लोभ रागरूप है । माया यदि लोभको जागृत करती है तो रागरूप है। तात्पर्य यह कि राग, द्वेष, मोहकी दोषत्रिपुटीमें कषायका भाग हो मुख्य है । मोहरूप मिथ्यात्व दूर हो जानेपर भी सम्यग्दृष्टिको राग-द्वेष रूप कषायें बनी रहती हैं। जिसमें लोभ कषाय तो पदप्रतिष्ठा और यशोलिप्साके रू मुनियोंको भी स्वरूपस्थित नहीं होने देतो। यह रागद्वेष रूप द्वन्द्व ही समस्त अनर्थोंका मूल हेतु है । यही प्रमुख आस्रव है । न्यायसूत्र, गीता और पाली पिटकोंमें भी इसी द्वन्द्वको ही पापमल बताया है। जैनशास्त्रोंका प्रत्येक वाक्य कषायशमनका ही उपदेश देता है। इसीलिए जैनमतियाँ वीतरागता और अकिञ्चनताकी प्रतीक होती है। उसमें न द्वेषका साधन आयुध है और न रागका आधार स्त्री आदिका साहचर्य ही। वे तो परम वोतरागता और अकिंचनताका पावन सन्देश देती हैं।
इन कषायोंके सिवाय-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ( ग्लानि) स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद यो ९ नोकषायें हैं। इनके कारण भी आत्मामें विकार परिणति उत्पन्न होती है। अतः ये भी आस्रव हैं।
योग-मन, वचन और कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो परिस्पन्द अर्थात् क्रिया होती है उसे योग कहते हैं। योगकी साधारण प्रसिद्धि चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यानके अर्थ में है पर जैन परम्परामें चूंकि मन, वचन और कायसे होनेवाली आत्माको क्रिया कर्मपरमाणुओंसे योग अर्थात् सम्बन्ध कराने में कारण होती है अतः इसे योग कहते हैं और योगनिरोधको ध्यान कहते हैं। आत्मा सक्रिय है। उसके प्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है। मन, वचन और कायके निमित्तसे सदा उसमें क्रिया होती रहती है। यह क्रिया जीवन्मक्तको भी बराबर होती है। परमुक्तिसे कुछ समय पहिले अयोगकेवली अवस्थामें मन, वचन, कायकी क्रियाका निरोध होता है और आत्मा निर्मल और निश्चल बन जाता है । सिद्ध अवस्थामें आत्माके पूर्ण शुद्धरूपका आविर्भाव होता है न उनमें कर्मजन्य मलिनता रहती और न योगजन्य चंचलता ही। प्रधानरूपसे आस्रव तो योग ही है। इसीके द्वारा कर्मोंका आगमन होता है । शुभ योग पुण्यकर्मका आस्रव कराता है तथा अशुभ योग पापकर्मके आस्रवका कारण होता है । सबका शुभचिन्तन तथा अहिंसक विचारधारा शभ मनोयोग है। हित मित प्रिय सम्भाषण शुभ वचनयोग है। परको बाधा न देनेवाली यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति शुभ काययोग है। इस तरह इस आस्रव तत्त्वका ज्ञान मुमुक्षुको अवश्य ही होना चाहिए। साधारण रूपसे यह तो उसे ज्ञात कर ही लेना चाहिए कि हमारी अमुक प्रवृत्तियोंसे शुभास्रव होता है और अमुक प्रवृत्तियोंसे अशुभास्रव, तभी वह अनिष्ट प्रवृत्तियोंसे अपनी रक्षा कर सकेगा।
सामान्यतया आस्रव दो प्रकारका होता है-एक तो कषायानुरञ्जित योगसे होनेवाला साम्परायिक आस्रव जो बन्धका हेतु होकर संसारको वृद्धि करता है तथा दूसरा केवल योगसे होनेवाला ईर्यापथ आस्रव
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थं
जो कषाय न होनेसे आगे बन्धनका कारण नहीं होता । यह आस्रव जीवन्मुक्त महात्माओंके वर्तमान शरीरसम्बन्ध तक होता रहता है । यह जीवस्वरूपका विघातक नहीं होता ।
प्रथम साम्परायिक आस्रव कषायानुरंजित योगसे होनेके कारण बन्धक होता है । कषाय और योग प्रवृत्ति शुभरूप भी होतो है और अशुभरूप भी । अतः शुभ और अशुभ योगके अनुसार आस्रव भी शुभासव या पुण्यास्रव और अशुभास्रव अर्थात् पापात्र वके भेदसे दो प्रकारका हो जाता है । साधारणतया सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्य कर्म हैं और शेष ज्ञानावरण आदि घातिया और अघातियाँ कर्मप्रकृतियाँ पापरूप हैं । इस आस्रवमें कषायों के तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, आधार और शक्ति आदिकी दृष्टिसे तारतम्य होता है । संरम्भ ( संकल्प ), सामारंभ ( सामग्री जुटना ), आरम्भ ( कार्यकी शुरुआत, कृत (स्वयं करना), कारित ( दूसरों से कराना ), अनुमत ( कार्यकी अनुमोदना करना ) मन, वचन, काय, योग और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें परस्पर मिलकर ३ x ३ x ३४ x १०८ प्रकारके हो जाते हैं । इनसे आस्रव होता है । आगे ज्ञानावरण आदि कर्मोंमें प्रत्येक के आस्रव कारण बताते हैंज्ञानावरण, दर्शनावरण-ज्ञानी और दर्शनयुक्त पुरुषकी या ज्ञान और दर्शनकी प्रशंसा सुनकर भीतरी द्वेषवश उनकी प्रशंसा नहीं करना तथा मनमें दुष्टभावोंका लाना ( प्रदोष ) ज्ञानका और ज्ञानके साधनोंका अपलाप करना ( निह्नव ) योग्य पात्रको भी मात्सर्यवश ज्ञान नहीं देना, ज्ञानमें विघ्न डालना, दूसरेके द्वारा प्रकाशित ज्ञानकी अविनय करना, ज्ञानका गुण कीर्तन न करना, सम्यग्ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहकर ज्ञानके नाशका अभिप्राय रखना आदि यदि ज्ञानके सम्बन्धमें हैं तो ज्ञानावरणके आस्रवके कारण होते है और यदि दर्शनके सम्बन्धमें हैं तो दर्शनावरणके आस्रवके कारण जाते हैं । इसी तरह आचार्य और उपाध्यायसे शत्रुता रखना, अकाल अध्ययन, अरुचिपूर्वक पढ़ना, पढ़ने में आलस करना, व्याख्यानको अनादरपूर्वक सुनना, तीर्थोपरोध, बहुश्रुतके समक्ष भी ज्ञानका गर्व करना, मिथ्या उपदेश देकर दूसरेके मिथ्या ज्ञानमें कारण बनना, बहुश्रुतका अपमान करना, लोभादिवश तत्त्वज्ञानके पक्षका त्याग करके अतत्त्वज्ञानीय पक्षको ग्रहण करना, असम्बद्ध प्रलाप, सूत्र विरुद्ध व्याख्यान, कपटसे ज्ञानार्जन करना, शास्त्र विक्रय आदि जितने ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञानके साधनोंमें विघ्न और द्वेषोत्पादक भाव और क्रियाएँ होती हैं उन सबसे आत्मापर ऐसा संस्कार पड़ता है जो ज्ञानावरण कर्मके आस्रवका हेतु होता है ।
देव, गुरु आदिके दर्शन में मात्सर्य करना, दर्शनमें अन्तराय करना, किसीकी आँख फोड़ देना, इन्द्रियोंका अभिमान करना, नेत्रोंका अहंकार करना, दीर्घ निद्रा, अतिनिद्रा, आलस्य, सम्यग्दृष्टिमें दोषोद्भावन, कुशास्त्र प्रशंसा, गुरुजुगुप्सा आदि दर्शनके विघातक भाव और क्रियाएँ दर्शनावरणका आसव कराती हैं ।
असातावेदनीय - अपने में परमें और दोनोंमें दुःख शोक आदि उत्पन्न करनेसे आसातावेदनीयका आस्रव होता है । स्व पर या उभयमें दुःख उत्पन्न करना, इष्टवियोग में अत्यधिक विकलता और शोक करना, निन्दा, मानभंग या कर्कशवचन आदिसे भीतर ही भीतर जलना, परितापके कारण अश्रुपातपूर्वक बहु विलाप करना, छाती कूटकर या सिर फोड़कर आक्रन्दन करना, दुःखसे आँखें फोड़ लेना या आत्महत्या कर लेना, इस प्रकार रोना-चिल्लाना कि सुननेवाले भी रो पड़ें, शोक आदिसे लंघन करना, अशुभ प्रयोग, परनिन्दा, पिशुनता, अदया, अंग- उपांगोंका छेदन भेदन ताड़न, त्रास, अँगुली आदिसे तर्जन करना, वचनोंसे भर्त्सना करना, रोधन, बंधन, दमन, आत्म प्रशंसा, क्लेशोत्पादन, बहुपरिग्रह, आकुलता, मन, वचन, कायकी कुटिलता, पाप कार्यों से आजीविका करना, अनर्थदण्ड, विषमिश्रण, बाण जाल पिंजरा आदिका बनाना इत्यादि
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २०५ जितने कार्य स्वयंमें परमें या दोनोंमें दुःख आदिके उत्पादक है वे सब असातावेदनीय कर्मके आस्रवमें कारण होते हैं।
सातावेदनीय-प्राणिमात्रपर दयाका भाव, मुनि और श्रावकके व्रत धारण करनेवाले व्रतियोंपर अनकम्पाके भाव. परोपकारार्थ दान देना, प्राणिरक्षा. इन्द्रियजय, शान्ति अर्थात क्रोध, मान, मायाका त्याग, शौच अर्थात् लोभका त्याग, रागपूर्वक संयम धारण करना, अकामनिर्जरा अर्थात् शान्तिसे कर्मोके फलका भोगना, कायक्लेश रूप कठिन बाह्यतप, अर्हत्पूजा आदि शुभ राग, मुनि आदिकी सेवा आदि स्व पर तथा उभयमें निराकुलता सुखके उत्पादक विचार और क्रियाएँ सातावेदनीयके आस्रवका कारण होती हैं।
दर्शनमोहनीय-जीवन्मुक्त केवली शास्त्र संघ धर्म और देवोंकी निन्दा करना, इनमें अवर्णवाद अर्थात् अविद्यमान दोषोंका कथन करना दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व कर्मका आस्रव करता है। केवली रोगी होते हैं, कवलाहारी होते हैं, नग्न रहते हैं पर वस्त्रयुक्त दिखाई देते हैं, इत्यादि केवलीका अवर्णवाद है। शास्त्रमें मांसाहार आदिका समर्थन करना श्रतका अवर्णवाद है । शास्त्र मुनि आदि मलिन है, स्नान नहीं करते, कलिकालके साधु हैं इत्यादि संघका अवर्णवाद है । धर्म करना व्यर्थ है, अहिंसा कायरता है आदि धर्मका अवर्णवाद है। देव मद्यपायी और मांसभक्षी होते हैं आदि देवोंका अवर्णवाद है। सारांश यह कि देव, गुरु, धर्म, संघ और श्रतके सम्बन्धमें अन्यथा विचार और मिथ्या धारणाएँ मिथ्यात्वको पोषण करती हैं और इससे दर्शनमोहका आस्रव होता है जिससे यथार्थ तत्त्वरुचि नहीं हो पाती ।
चारित्रमोहनीय स्वयं और परमें कषाय उत्पन्न करना, ब्रतशीलवान् पुरुषोंमें दूषण लगाना, धर्मका नाश करना, धर्ममें अन्तराय करना, देश संयमियोंसे व्रत और शीलका त्याग कराना, मात्सर्यादिसे रहित सज्जन पुरुषों में मतिविभ्रम उत्पन्न करना, आर्त और रौद्र परिणाम आदि कषायकी तोव्रताके साधन कषाय चारित्रमोहनीयके आस्रवके कारण है। समीचीन धार्मिकोंकी हँसी करना, दीनजनोंको देखकर हँसना, काम विकारके भावों पूर्वक हँसना, बहु प्रलाप तथा निरन्तर भाँडों जैसी हँसोड़ प्रवृत्तिसे हास्य नोकषायका आस्रव होता है। नाना प्रकार क्रीड़ा, विचित्र क्रीड़ा, देशादिके प्रति अनौत्सुक्य, व्रत शील आदिमें अरुचि आदि रति नोकषाय आस्रवके हेतु है। दूसरोंमें अरति उत्पन्न करना, रतिका विनाश करना, पापशीलजनोंका संसर्ग, पाप क्रियाओंको प्रोत्साहन देना आदि अरति नोकषायके आस्रवके कारण हैं। अपने और दसरे में शोक उत्पन्न करना, शोकयुक्तका अभिनन्दन, शोकके वातारवणमें रुचि आदि शोक नोकषायके कारण हैं। स्व और परको भय उत्पन्न करना. निर्दयता, दसरोंको त्रास देना, आदि भयके आस्रवके कारण हैं। पण्यक्रियाओंमें जुगुप्सा करना, पर निन्दा आदि जुगुप्साके आस्रवके कारण है। परस्त्रीगमन, स्त्रीके स्वरूपको धारण करना, असत्य वचन, परवञ्चना, परदोष दर्शन, वृद्ध होकर भी युवकों जैसी प्रवृत्ति करना आदि स्त्रीवेदके आस्रवके हेतु है। अल्पक्रोध, मायाका अभाव, गर्वका अभाव, स्त्रियोंमें अल्प आसक्ति, ईर्षाका न होना, रागवर्धक वस्तुओंमें अनादर, स्वदारसन्तोष, परस्त्रीत्याग आदि पुंवेदके आस्रवके कारण हैं। प्रचर कषाय, गुह्येन्द्रियोंका विनाश, परांगनाका अपमान, स्त्री या पुरुषोंमें अनंगक्रीड़ा, व्रतशीलयुक्त पुरुषोंको कष्ट उत्पन्न करना, तीव्रराग आदि नपुंसक वेदनीय नोकषायके आस्रवके हेतु हैं ।।
नरकायु-बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह नरकायुका आस्रव कराते हैं । मिथ्यादर्शन, तीव्रराग, मिथ्याभाषण, परद्रव्यहरण, निःशीलता, तीव्र वैर, परोपकार न करना, यतिविरोध, शास्त्र विरोध, कृष्णलेश्या रूप अतितामसपरिणाम, विषयोंमें अतितृष्णा, रौद्र ध्यान, हिंसादि कर कार्यों में प्रवृत्ति, बाल वृद्ध स्त्री हत्या आदि करकर्म नरकायुके आस्रवके कारण होते हैं ।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६ : डॉ. महेन्द्र कुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
तिर्यंचायु-छल कपट आदि मायाचार, मिथ्या अभिप्रायसे धर्मोपदेश देना, अधिक आरम्भ, अधिक परिग्रह, निःशीलता, परवञ्चकता, नील लेश्या और कपोत लेश्या रूप तामस परिणाम । मरणकालमें आतध्यान, क्रूरकर्म, भेद करना, अनर्थोद्भावन, सोना-चाँदी आदिको खोटा करना, कृत्रिम चन्दनादि बनाना, जाति कुल शीलमें दूषण लगाना, सद्गुणोंका लोप, दोष दर्शन आदि पाशव भाव तिथंचायुके आस्रवके कारण होते हैं।
मनुष्यायु--अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह, विनय, भद्र स्वभाव, निष्कपट व्यवहार, अल्पकषाय, मरणकालमें संक्लेश न होना, मिथ्यात्वी व्यक्तिमें भी नम्रभाव, सुखबोध्यता, अहिंसकभाव, अल्पक्रोध, दोषरहितता, क्रूरकर्मों में अरुचि, अतिथिस्वागततत्परता, मधुर वचन, जगत्में अल्प आसक्ति, अनसूया, अल्पसंक्लेश, गुरु आदिकी पूजा, कापोत और पीतलेश्याके राजस और अल्प सात्त्विक भाव, निराकुलता आदि मानवभाव मनुष्यायुके आस्रवके कारण होते हैं। स्वाभाविक मृदुता और निरभिमान वृत्ति मनुष्यायुके आस्रवके असाधारण हेतु हैं।
देवायु-सराग संयम अर्थात् अभ्युदयकी कामना रहते हुए संयम धारण करना, श्रावकके व्रत, समता पूर्वक कर्मोंका फल भोगनारूप अकामनिर्जरा, संन्यासी, एकदण्डी, त्रिदण्डी, परमहंस आदि तापसोंका बालतप और सम्यक्त्व आदि सात्त्विक परिणाम देवायुके कारण होते हैं।
नाम कर्म-मन. वचन, कायकी कुटिलता, विसंवादन अर्थात् श्रेयोमार्गमें अश्रद्धा उत्पन्न करके उससे च्युत करना, मिथ्यादर्शन, पैशुन्य, अस्थिरचित्तता, झूठे बाँट तराजू गज आदि रखना, मिथ्या साक्षी देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, परद्रव्य ग्रहण , असत्यभाषण, अधिक परिग्रह, सदा विलासीवेश धारण करना, रूपमद, कठोरभाषण, असभ्य भाषण, आक्रोश, जान बूझकर छैल छबीला वेश धारण करना, वशीकरण चूर्ण आदिका प्रयोग, मन्त्र आदिके प्रयोगसे दूसरोंमें कुतूहल उत्पन्न करना, देवगुरु पूजाके बहाने गन्ध माला धूप आदि लाकर अपने रागकी पुष्टि करना, पर विडम्बना, परोपहास, ईंटोंके भट्टे लगाना. दावानल प्रज्वलित कराना, प्रतिमा तोड़ना, मन्दिर ध्वंस, उद्यान उजाड़ना, तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ, पापजीविका आदि कार्योंसे अशुभ शरीर आदिके उत्पादक अशुभ नामकर्मका आस्रव होता है।
इनसे विपरीत मन, वचन, कायकी सरलता, ऋजु प्रवृत्ति आदिसे सुन्दर शरीरोत्पादक शुभनाम कर्मका आस्रव होता है।
तीर्थंकर नाम-निर्मल सम्यग्दर्शन, जगद्धितैषिता, जगत्के तारनेकी प्रकृष्ट भावना, विनयसम्पन्नता, निरतिचार शीलव्रतपालन, निरन्तर ज्ञानोपयोग, संसार दुःखभीरुता, यथाशक्ति तप, यथाशक्ति त्याग, समाधि, साधु सेवा, अर्हन्त आचार्य बहुश्रुत और प्रवचनमें भक्ति, आवश्यक क्रियाओंमें सश्रद्ध निरालस्य प्रवृत्ति, शासन प्रभावना, प्रवचन वात्सल्य आदि सोलह भावनाएँ जगदुद्धारक तीर्थंकर प्रकृतिके आस्रवका कारण होती हैं। इनमें सम्यग्दर्शनके साथ होनेवाली जगदुद्धारकी तीव्र भावना ही मख्य है।
नीचगोत्र-परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, परगुणविलोप, अपनेमें अविद्यमान गुणोंका प्रख्यापन, जातिमद, कूलमद, बलमद, रूपमद, श्रुतमद, ज्ञानमद, ऐश्वर्यमद, तपोमद, परापमान, परहास्यकरण, परपरिवादन, गुरुतिरस्कार, गुरुओंसे टकराकर चलना, गुरु दोषोद्भावन, गुरु विभेदन, गुरुओंको स्थान न देना, भर्त्सना करना, स्तुति न करना, विनय न करना, उनका अपमान करना, आदि नीचगोत्रके आस्रवके कारण हैं।
उच्चगोत्र-पर प्रशंसा, आत्मनिन्दा, पर सद्गुणोद्भावन, स्वसद्गुणाच्छादन, नीचैवृत्ति-नम्रभाव,
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २०७
निर्मद भाव रूप अनुत्सेक, परका अपमान, हास परिहास न करना, मृदुभाषण आदि उच्चगोत्रके आस्रवके कारण होते हैं।
अन्तराय-दूसरोंके दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यमें विघ्न करना, दानकी निन्दा करना, देवद्रव्यका भक्षण, परवीर्यापहरण, धर्मोच्छेद, अधर्माचरण, परनिरोध, बन्धन, कर्णछेदन गुह्यछेदन, इन्द्रिय विनाश आदि विघ्नकारक विचार और क्रियाएँ अन्तराय कर्मका आस्रव कराती हैं।
सारांश यह कि इन भावोंसे उन उन कर्मोको स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध विशेष रूपसे होता है। वैसे आयुके सिवाय अन्य सात कर्मोंका आस्रव न्यूनाधिक भावसे प्रतिसमय होता रहता है। आयुका आस्रव आयुके त्रिभागमें होता है।
मोक्ष-बन्धनमुक्तिको मोक्ष कहते हैं। बन्धके कारणोंका अभाव होनेपर तथा संचित कर्मोंकी निर्जरा होनेपर समस्त कर्मोंका सकल उच्छेद होना मोक्ष है । आत्माकी वैभाविकी शक्तिका संसार अवस्थामें विभाव परिणमन हो रहा था। विभाव परिणमनके निमित्त हट जानेसे मोक्षदशामें उसका स्वभाव परिणमन हो जाता है । जो आत्माके गुण विकृत हो रहे थे वे ही स्वाभाविक दशामें आ जाते हैं। मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन बन जाता है, अज्ञान ज्ञान और अचारित्र चारित्र । तात्पर्य यह कि आत्माका सारा नक्शा ही बदल जाता है । जो आत्मा मिथ्यादर्शनादि रूपसे अनादिकालसे अशुद्धिका पुज बना हुआ था वही निर्मल निश्चल और अनन्त चैतन्यमय हो जाता है। उसका आगे सदा शुद्ध परिणमन ही होता है । वह चैतन्य निर्विकल्प है। वह निस्तरंग समुद्रकी तरह निर्विकल्प निश्चल और निर्मल है। न तो निर्वाण दशामें आत्माका अभाव होता है
और न वह अचेतन ही हो जाता है । जब आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक द्रव्य है तब उसका अभाव हो ही नहीं सकता। उसमें परिवर्तन कितने ही हो जायँ पर अभाव नहीं हो सकता। किसीकी भी यह सामर्थ्य नहीं जो जगत्के किसी भी एक सत्का समल उच्छेद कर सके।
बुद्धसे जब प्रश्न किया गया कि-'मरनेके बाद तथागत होते हैं या नहीं तो उनने इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें डाल दिया था। यही कारण हआ कि बुद्धके शिष्योंने निर्वाणके विषय में दो तरहकी कल्पनाएँ कर डालीं । एक निर्वाण वह जिसमें चित्त सन्तति निरास्रव हो जाती है और दूसरा निर्वाण वह जिसमें दीपकके समान चित्त सन्तति भी बुझ जाती है अर्थात् उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पाँच स्कन्ध रूप ही आत्माको माननेका यह सहज परिणाम था कि निर्वाण दशामें उसका अस्तित्व न रहे। आश्चर्य है कि बुद्ध निर्वाण और आत्माके परलोकगामित्वका निर्णय बताए बिना कही दुःख निवृत्तिके उपदेशके सर्वांगीण औचित्यका समर्थन करते रहे। यदि निर्वाणमें चित्तसन्ततिका निरोध हो जाता है, वह दीपककी तरह बुझ जाती है अर्थात् अस्तित्वशन्य हो जाती है तो उच्छेदवादके दोषसे बुद्ध कैसे बचे? आत्माके नास्तित्वसे इनकार तो इसी भयसे करते थे कि यदि आत्माको नास्ति कहते हैं तो उच्छेदवादका प्रसंग आता है और अस्ति कहते हैं तो शाश्वतवादका प्रसंग आता है । निर्वाणावस्थ मानने और मरणके बाद उच्छेद मानने में तत्त्वदृष्टिसे कोई विशेष अन्तर नहीं है। बल्कि चार्वाकका सहज उच्छेद सबको सुकर क्या अयत्नसाध्य होनेसे सहजग्राह्य होगा और बुद्ध का निर्वाणोत्तर उच्छेद अनेक प्रकारके ब्रह्मचर्यवास ध्यान आदिसे साध्य होनेके कारण दुर्गाह्य होगा। अतः मोक्ष अवस्थामें शुद्ध चित्त सन्ततिकी सत्ता मानना ही उचित है ।
मोक्षके कारण-१ संवर-संवर रोकनेको कहते हैं । सुरक्षाका नाम संवर है । जिन द्वारोंसे कर्मोंका आस्रव होता था उन द्वारोंका, निरोध कर देना संवर कहलाता है। आस्रवका मूल कारण योग है । अतः
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
योगनिवृत्ति ही मूलतः संवरके पदपर प्रतिष्ठित हो सकती है। पर, मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको सर्वथा रोकना संभव नहीं है । शारीरिक आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिए आहार करना, मलमत्रका विसर्जन करना चलना फिरना, बोलना, रखना, उठाना आदि क्रियाएँ करनी ही पड़ती हैं। अतः जितने अंशोंमें मन, वचन, कायकी क्रियाओंका निरोध है उतने अंशको गुप्ति कहते हैं। गुप्ति अर्थात् रक्षा । मन, वचन और कायकी अकशल प्रवत्तियोंसे रक्षा करना। यह गप्ति ही संवरका प्रमख कारण है। गप्तिके अतिरिक्त समिति. धर्म अनप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र आदिसे संवर होता है। समिति आदिमें जितना निवत्तिका भाग है उतना संवरका कारण होता है और प्रवृत्तिका अंश शुभबन्धका हेतु होता है।
समिति-सम्यक् प्रवृत्ति, सावधानीसे कार्य करना। ईर्या समिति-देखकर चलना । भाषा समितिहित मित प्रिय वचन बोलना । एषणा समिति-विधिपूर्वक निर्दोष आहार लेना । आदान-निक्षेपण समितिदेख शोधकर किसी भी वस्तुका रखना उठाना । उत्सर्ग समिति-निर्जन्तु स्थानपर मलमूत्रका विसर्जन करना।
धर्म-आत्मस्वरूपमें धारण करानेवाले विचार और प्रवृत्तियां धर्म हैं । उत्तम क्षमा-क्रोधका त्याग करना । क्रोधके कारण उपस्थित होनेपर भी विवेकवारिसे उन्हें शान्त करना । कायरता दोष है और क्षमा गण । जो क्षमा आत्मामें दीनता उत्पन्न करे वह धर्म नहीं। उत्तम मार्दव-मदता, कोमलता, विनयभाव, मानका त्याग । ज्ञान पूजा कुल जाति बल ऋद्धि तप और शरीर आदिकी किंचित विशिष्टताके कारण आत्मस्वरूपको न भूलना, इनका अहंकार न करना । अहंकार दोष है, स्वमान गुण है। उत्तम आर्जव-ऋजुता, सरलता, मन वचन कायमें कुटिलता न होकर सरलभाव होना। जो मनमें हो, तदनुसारी ही वचन और
न व्यवहारका होना । मायाका त्याग-सरलता गुण है। भोंदूपन दोष है। उत्तम शौच-शुचिता, पवित्रता, निर्लोभ वृत्ति, प्रलोभनमें नहीं फंसना । लोभ कषायका त्यागकर मनमें पवित्रता लाना । शौच गुण है पर बाह्य सोला और चौकापन्थ आदिके कारण छू-छू करके दूसरोंसे घृणा करना दोष है। उत्तम सत्यप्रामाणिकता, विश्वास परिपालन, तथ्य स्पष्ट भाषण । सच बोलना धर्म है परन्तु परनिन्दाके लिए दूसरोंके दोषोंका ढिंढोरा पीटना दोष है । पर बाधाकारी सत्य भी दोष हो सकता है । उत्तम संयम-इन्द्रिय विजय, प्राणि रक्षण । पांचों इन्द्रियोंकी विषय प्रवृत्तिपर अंकुश रखना, निरर्गल प्रवृत्तिको रोकना, वश्येन्द्रिय होना। प्राणियोंकी रक्षाका ध्यान रखते हुए खान-पान जीवन व्यवहारको अहिंसाकी भूमिकापर चलाना । संयम गुण है पर भावशून्य बाह्य-क्रियाकाण्डमेंका अत्यधिक आग्रह दोष है । उत्तम तप-इच्छानिरोध । मनकी आशा तृष्णाओंको रोककर प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्त्य ( सेवाभाव ) स्वाध्याय और व्युत्सर्ग (परिग्रहत्याग ) में चित्तवृत्ति लगाना । ध्यान-चित्तकी एकाग्रता। उपवास, एकाशन, रसत्याग, एकान्तसेवन, मौन, शरीरको सुकुमार न होने देना आदि बाह्यतप है। इच्छानिवृत्ति रूप तप गुण है और मात्र बाह्य कायक्लेश, पंचाग्नि तपना, हठयोगकी कठिन क्रियायें बालतप हैं। उत्तमत्याग-दान देना, त्यागकी भूमिकापर आना। शक्त्यनसार भखोंकों भोजन, रोगीको औषधि, अज्ञाननिवृत्तिके लिए ज्ञानके साधन जुटाना और प्राणिमात्रको अभय देना । समाज और देशके निर्माणके लिए तन धन आदि साधनोंका त्याग । लाभ पूजा नाम आदिके लिए किया जानेवाला दान उत्तम दान नहीं है। उत्तम आकिंचन्य-अकिञ्चनभाव, बाह्यपदार्थों में ममत्व भावका त्याग । धन-धान्य आदि बाह्यपररिग्रह तथा शरीरमें 'यह मेरा स्वरूप नहीं है, आत्माका धन तो उसका शुद्ध चैतन्यरूप है 'नास्तिमें किञ्चन'-मेरा कुछ महीं है आदि भावनाएँ आकिञ्चन्य हैं । कर्तव्यनिष्ठ रहकर भौतिकतासे दृष्टि हटाकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त करना। उत्तम ब्रह्मचर्य-ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूपमें विचरण करना । स्त्रीसुखसे विरक्त होकर समस्त शारीरिक मानसिक आत्मिक शक्तियोंको
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २०९ आत्मविकासोन्मुख करना । मनःशुद्धिके बिना केवल शारीरिक ब्रह्मचर्यं न तो शरीरको ही लाभ पहुँचाता है ओर न मन और आत्मा में ही पवित्रता लाता है ।
अनुप्रेक्षा - सद्भावनाएँ आत्मविचार । ऐसी भावनाओंको सदाँ चित्तमें भाते रहना चाहिये । इन विचारोंसे सुसंस्कृत चित्त समय आनेपर विचलित नहीं हो सकता, सभी द्वन्द्वोंमें समताभाव रख सकता है। और कर्मो को रोककर संवरकी ओर ले जा सकता है ।
परोषहजय - साधकको भूख प्यास ठंड गरमी बरसात डांस मच्छर चलने फिरने सोने में आनेवाली कंकड़ आदि बाधाएँ, वध आक्रोश मल रोग आदिकी बाधाओंको शान्तिसे सहना चाहिए। नग्न रहते हुए भी स्त्री आदिको देखकर अविकृत बने रहना चाहिए । चिरतपस्या करनेपर भी यदि कोई ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त न ' तो भी तपस्या के प्रति अनादर नहीं होना चाहिए। कोई सत्कार पुरस्कार करे तो हर्ष न करे तो खेद नहीं करना चाहिए । यदि तपस्यासे कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हो गया हो तो अहंकार और प्राप्त न हुआ हो तो खेद नहीं करना चाहिए। भिक्षावृत्ति से भोजन करते हुए भी दीनताका भाव आत्मामें नहीं आने देना चाहिए । इस तरह परीषहजयसे चारित्रमें दृढ़ निष्ठा होती है और इससे आस्रव रुककर संवर होता है । चारित्र - चारित्र अनेक प्रकारका है। इसमें पूर्ण चारित्र मुनियोंका होता है तथा देशचारित्र श्रावका । मुनि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन व्रतोंका पूर्णरूपमें पालन करता है तथा श्रावक इनको एक अंशसे । मुनियोंके महाव्रत होते हैं तथा श्रावकों के अणुव्रत । इनके सिवाय सामायिक आदि चारित्र भी होते हैं । सामायिक – समस्त पापक्रियाओंका त्याग, समताभावकी आराधना । छेदोपस्थापना - यदि व्रतोंमें दूषण आ गया हो तो फिरसे उसमें स्थिर होना । परिहारविशुद्धि - इस चारित्रवाले व्यक्तिके शरीरमें इतना हलकापन आ जाता है जो सर्वत्र गमन करते हुए भी इसके शरीरसे हिंसा नहीं होती । सूक्ष्मसाम्पराय - अन्य सब कषायों का उपशम या क्षय होनेपर जिसके मात्र सूक्ष्म लोभकषाय रह जाती है उसके सूक्ष्मसाम्परायचारित्र होता है । यथाख्यातचारित्र —– जीवन्मुक्त व्यक्तिके समस्त कषायों के क्षय होनेपर होता है । जैसा आत्माका स्वरूप है वैसा ही उसका प्राप्त हो जाना यथाख्यात है । इस तरह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र आदिकी किलेबन्दी होनेपर कर्मशत्रुके प्रवेशका कोई अवसर नहीं रहता और पूर्णसंवर हो जाता 1
निर्जरा - गुप्ति आदिसे सर्वतः संवृत व्यक्ति आगामी कर्मोंके आस्रवको तो रोक ही देता है साथ ही साथ पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा करके क्रमशः मोक्षको प्राप्त करता है । निर्जरा झड़नेको कहते हैं । यह दो प्रकारकी होती है— ( १ ) औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा (२) अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा । तप आदि साधनाओं के द्वारा कर्मोंको बलात् उदयमें लाकर बिना फल दिये ही झड़ा देना अविपाक निर्जरा है । स्वाभाविक क्रमसे प्रति समय कर्मोंका फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है । यह सविपाक निर्जरा प्रतिगुप्ति, समिति और खासकर निर्जरा या औपक्रमिक निर्जरा
समय हर एक प्राणी के होती ही रहती है और नूतन कर्म बँधते जाते हैं। तपरूपी अग्निके द्वारा कर्मोंको उदयकालके पहिले ही भस्म कर देना अविपाक है । सम्यग्दृष्टि, श्रावक, मुनि, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षय करनेवाला, उपशान्तमोह गुणस्थानवाला, क्षपकश्रेणीवाले, क्षीणमोही और जीवन्मुक्त व्यक्ति क्रमशः असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा करते हैं । 'कर्मोकी गति टल नहीं सकती' यह एकान्त नहीं है। यदि आत्मामें पुरुषार्थं हो और वह साधना करे तो समस्त कर्मोंको अन्तर्मुहूर्त में ही नष्ट कर सकता है । "नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।" अर्थात् सैकड़ों कल्पकाल बीत जानेपर भी बिना भोगे कर्मोंका क्षय नहीं हो सकता - यह मत जैनोंको ४-२७
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ मान्य नहीं । जैन तो यह कहते हैं कि 'ध्यानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते क्षणात् ।” अर्थात् ध्यानरूपी अग्नि सभी कर्मोंको क्षण भरमें भस्म कर सकती है। ऐसे अनेक दृष्टान्त मौजूद है-जिन्होंने अपनी प्राक्साधनाका इतना बल प्राप्त कर लिया था कि साधुदीक्षा लेते ही उन्हें कैवल्य लाभ हो गया । पुरानी वासनाओंको और राग, द्वेष आदि कुसंस्कारोंको नष्ट करनेका एकमात्र मुख्य साधन है ध्यान अर्थात् चित्तवृत्तियोंका निरोध करके उसे एकाग्र करना।
इस प्रकार भगवान् महावीरने बन्ध ( दुःख ) बन्धके कारण ( आस्रव ) मोक्ष और मोक्षके कारणसंवर, निर्जरा इन पांच तत्त्वोंके साथ ही साथ आत्मतत्त्वके ज्ञानकी भी खास आवश्यकता बताई जिसे बन्धन और मोक्ष होता है तथा उस अजीव तत्त्वके ज्ञानकी जिसके कारण अनादिसे यह जीव बन्धनबद्ध हो रहा है।
मोक्षके साधन-वैदिक संस्कृति विचार या ज्ञानसे मोक्ष मानती है जब कि श्रमण संस्कृति आचार अर्थात् चारित्रको मोक्षका साधन स्वीकार करती है। यद्यपि वैदिक संस्कृतिमें तत्त्वज्ञानके साथ ही साथ वैराग्य और संन्यासको भी मुक्तिका अंग माना है पर वैराग्य आदिका उपयोग तत्त्वज्ञानकी पुष्टिमें होता है अर्थात् वैराग्यसे तत्त्वज्ञान परिपूर्ण होता है और फिर मुक्ति । जैन तीर्थङ्करोंने "सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग:" (तत्त्वार्थसूत्र ११) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको मोक्षका मार्ग कहा है । ऐसा सम्यग्ज्ञान जो सम्यक्चारित्रका पोषक या वर्द्धक नहीं है मोक्षका साधन नहीं हो सकता । जो ज्ञान जीवनमें उतरकर आत्मशोधन करे वही मोक्षका कारण है । अन्ततः सच्ची श्रद्धा और ज्ञानका फल चारित्रशद्धि है। ज्ञान थोड़ा भी हो पर यदि उसने जीवनशुद्धिमें प्रेरणा दी है तो वह सम्यग्ज्ञान है। अहिंसा, संयम और तप साधनात्मक वस्तुएँ हैं, ज्ञानात्मक नहीं । अतः जैनसंस्कृतिने कोरे ज्ञानको भार ही बताया है । तत्त्वोंकी सच्ची श्रद्धा खासकर धर्मकी श्रद्धा मोक्ष-प्रासादका प्रथम सोपान है। आत्मधर्म अर्थात आत्मस्वभावका और आत्मा तथा शरीरादि परपदार्थका स्वरूपज्ञान होना-इनमें भेदविज्ञान होना ही म्यग्दर्शन है। सम्यकुदर्शन अर्थात् आत्मस्वरूपका स्पष्ट दर्शन, अपने लक्ष्य और कल्याण-मार्गकी दृढ़ प्रतीति । भय, आशा, स्नेह और लोभादि किसी भी कारणसे जो श्रद्धा चल और मलिन न हो सके, कोई साथ दे या न दे पर भीतरसे जिसके प्रति जीवनकी भी बाजी लगानेवाला परमावगाढ संकल्प हो वह जीवन्त श्रद्धा सम्यकदर्शन है। इस ज्यो के जगते ही साधकको अपने तत्त्वका स्पष्ट दर्शन होने लगता है। उसे स्वानुभूति-अर्थात आत्मानुभव प्रतिक्षण होता है। वह समझता है कि धर्म आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमें है, बाह्य पदार्थाधित क्रियाकाण्डमें नहीं । इसीलिए उसकी परिणति एक विलक्षण प्रकारकी हो जाती है। उसे आत्मकल्याण, मानवजातिका कल्याण, देश और समाजके कल्याणके मार्गका स्पष्ट भान हो जाता है। अपने आत्मासे भिन्न किसी भी परपदार्थकी अपेक्षा ही दुःखका कारण है । सुख स्वाधीन वृत्तिमें है। अहिंसा भी अन्ततः यही है कि हमारा परपदार्थसे स्वार्थसाधनका भाव कम हो । जैसे स्वयं जीवित रहनेको इच्छा है उसी तरह प्राणिमात्रका भी जीवित रहनेका अधिकार स्वीकार करें।
स्वरूपज्ञान और स्वाधिकार मर्यादाका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। उसके प्रति दृढ़ श्रद्धा सम्यग्दर्शन है और तद्रप होनेके यावत प्रयत्न सम्यकुचारित्र है। यथा-प्रत्येक आत्मा चैतन्यका धनी है। प्रतिक्षण पर्याय बदलते हुए भी उसकी अविच्छिन्न धारा अनन्तकाल तक चलती रहेगी। उसका कभी समल नाश न होगा। एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर कोई अधिकार नहीं है। रागादि कषायें और वासनाएँ आत्माका निजरूप नहीं हैं, विकारभाव हैं । शरीर भी पर है। हमारा स्वरूप तो चैतन्यमात्र है। हमारा अधिकार अपनी गुणपर्यायोंपर है । अपने विचार और अपनी क्रियाओंको हम जैसा चाहें वैसा बना सकते हैं। दूसरेको बनाना बिगाड़ना
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
| विशिष्ट निबन्ध : २११
हमारा स्वाभाविक अधिकार नहीं है । यह अवश्य है कि दूसरा हमारे बनने बिगड़नेमें निमित्त होता है पर निमित्त उपादानकी योग्यताका ही विकास करता है । यदि उपादान कमजोर है तो निमित्तके द्वारा अत्यधिक प्रभावित हो सकता । अतः बनना बिगडना बहुत कुछ अपनो भीतरी योग्यतापर ही निर्भर है। इस तरह अपने आत्माके स्वरूप और स्वाधिकारपर अटल श्रद्धा होना और आचार व्यवहार में इसका उल्लंघन न करनेकी दृढ़ प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन
___ सम्यग्दर्शनका अर्थ मात्र यथार्थ देखना या वास्तविक पहिचान ही नहीं है, किन्तु उस दर्शनके पीछे होनेवाली दृढ़ प्रतीति, जीवन्त श्रद्धा और उसको कायम रखने के लिए प्राणोंकी भी बाजी लगा देनेका अट विश्वास ही वस्तुतः सम्यग्दर्शनका स्वरूपार्थ है ।
सम्यग्दर्शनमें दो शब्द हैं सम्यक् और दर्शन। सम्यक् शब्द सापेक्ष है, उसमें विवाद हो सकता है। एक मत जिसे सम्यक समझता है दसरा मत उसे सम्यक नहीं मानकर मिथ्या मानता है । एक ही वस्तु परिस्थिति विशेषमें एकको सम्यक् और दूसरोंको मिथ्या हो सकती है। दर्शनका अर्थ देखना या निश्चय करना है। इसमें भी भ्रान्तिकी सम्भावना है। सभी मत अपने-अपने धर्मको दर्शन अर्थात् साक्षात्कार किया हुआ बताते हैं, अतः कौन सम्यक् और कौन असम्यक् तथा कौन दर्शन और कौन अदर्शन ये प्रश्न मानव मस्तिष्कको आन्दोलित करते रहते हैं। इन्हीं प्रश्नोंके समाधान में जीवनका लक्ष्य क्या है ? धर्मकी आवश्यकता क्यों है ? आदि प्रश्नोंका समाधान निहित है।
सम्यक्दर्शन एक क्रियात्मक शब्द है, अर्थात् सम्यक्-अच्छी तरह दर्शन-देखना । प्रश्न यह है कि'क्यों देखना, किसको देखना और कैसे देखना ।' 'क्यों देखना' तो इसलिए कि मनष्य स्वभाव
और दर्शनशील प्राणी होते हैं। उनका मन यह तो विचारता ही है कि यह जीवन क्या है ? क्या जन्मसे मरण तक ही इसकी धारा है या आगे भी ? जिन्दगी भर जो अनेक द्वन्दों और संघर्षोंसे जूझना है वह किसलिए? अतः जब इसका स्वभाव ही मननशील है तथा संसारमें सैकड़ों मत प्रचारक मनुष्यको बलात् वस्तुस्वरूप दिखाते हुए चारों ओर घूम रहे हैं, 'धर्म डूबा, संस्कृति डूबी, धर्मकी रक्षा करो, संस्कृतिको बचाओ' आदि धर्म प्रचारकोंके नारे मनुष्यके कानके पर्दे फाड़ रहे हैं तब मनुष्यको न चाहनेपर भी देखना तो पड़ेगा ही। यह तो करीब-करीब निश्चित ही है कि मनुष्य या कोई भी प्राणी अपने लिए ही सब कुछ करता है, उसे सर्वप्रिय वस्तु अपनी ही आत्मा है। उपनिषदोंमें आता है कि "आत्मनो वै कामाय सर्व प्रियं भवति ।" कुटुम्ब स्त्री पुत्र तथा शरीरका भी ग्रहण अपनी आत्माकी तुष्टिके लिए किया जाता है। अतः 'किसको देखना' इस प्रश्नका उत्तर है कि सर्वप्रथम उस आत्माको ही देखना चाहिए जिसके लिए यह सब कुछ किया जा रहा है, और जिसके न रहनेपर यह सब कुछ व्यर्थ है, वही आत्मा द्रष्टव्य । सम्यकदर्शन हमें करना चाहिए । 'कैसे देखना' इस प्रश्नका उत्तर धर्म और सम्यग्दर्शनका निरूपण है।
जैनाचार्योंने 'वत्थुस्वभावो धम्मो' यह धर्मकी अन्तिम परिभाषा की है। प्रत्येक वस्तुका अपना निज स्वभाव ही धर्म है तथा स्वभावसे च्युत होना अधर्म है । मनुष्यका मनुष्य रहना धर्म है पशु बनना अधर्म है। आत्मा जब तक अपने स्वरूपमें है धर्मात्मा है, जहाँ स्वरूपसे च्युत हआ अधर्मात्मा बना। अतः जब स्वरूपस्थिति ही धर्म है तब धर्मके लिए भी स्वरूपका जानना नितान्त आवश्यक है। यह भी जानना चाहिए कि आत्मा स्वरूपच्युत क्यों होता है ? यद्यपि जलका गरम होना उसकी स्वरूपच्युति है, एतावता वह अधर्म है पर जल चूंकि जड़ है, अतः उसे यह भान ही नहीं होता कि मेरा स्वरूप नष्ट हो गया
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ है। जैन तत्त्वज्ञान तो यह कहता है कि जिस प्रकार अपने स्वरूपसे च्युत होना अधर्म है उसी प्रकार दूसरेको स्वरूपसे च्युत करना भी अधर्म है । स्वयं क्रोध करके शान्तस्वरूपसे च्युत होना जितना अधर्म है उतना ही दूसरेके शान्तस्वरूपमें विघ्न करके उसे स्वरूपच्युत करना भी अधर्म है। अतः ऐसी प्रत्येक विचारधारा, वचनप्रयोग और शारीरिक प्रवृत्ति अधर्म है जो अपनेको स्वरूपच्युत करती हो या दूसरेकी स्वरूपच्युतिका कारण होती हो।
आत्माके स्वरूपच्युत होनेका मुख्य कारण है-स्वरूप और स्वाधिकारकी मर्यादाका अज्ञान । संसारमें अनन्त अचेतन और अनन्त चेतन द्रव्य अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। प्रत्येक अपने स्वरूपमें परिपूर्ण है। इन सबका परिणमन मूलतः अपने उपादानके अनुसार होकर भी दुसरेके निमित्तसे प्रभावित होता है । अनन्त अचेतन द्रव्योंका यद्यपि संयोगोंके आधारसे स्वरसतः परिणमन होता रहता है। पर जड़ होनेके कारण उनमें बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती। जैसी-जैसी सामग्री जुटती जाती है वैसा-वैसा उनका परिणमन होता रहता है। मिट्टीमें यदि विष पड़ जाय तो उसका विषरूप परिणमन हो जायगा यदि क्षार पड़ जाय तो खारा परिणमन हो जायगा । चेतन द्रव्य ही ऐसे हैं जिनमें बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति होती है । ये अपनी प्रवृत्ति तो बुद्धिपूर्वक करते ही हैं साथ ही साथ अपनी बुद्धिके अनधिकार उपयोगके कारण दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन करनेकी कुचेष्टा भी करते हैं। यह सही है कि जबतक आत्मा अशुद्ध या शरीर परतन्त्र है तब तक उसे परपदार्थोंकी आवश्यकता होगी और वह परपदार्थोंके बिना जीवित भी नहीं रह सकता। पर इस अनिवार्य स्थितिमें भी उसे यह सम्यक्दर्शन तो होना ही चाहिए कि-'यद्यपि आज मेरी अशुद्ध दशामें शरीरादिके परतन्त्र होनेके कारण नितान्त परवश स्थिति है और इसके लिए यत्किचित् परसंग्रह आवश्यक है पर मेरा निसर्गतः परद्रव्योंपर कोई अधिकार नहीं है, प्रत्येक द्रव्य अपना-अपना स्वामी है।" इस परम व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी उद्घोषणा जैनतत्त्वज्ञानियोंने अत्यन्त निर्भयतासे की है। और इसके पीछे हजारों राजकुमार राजपाट छोड़कर इस व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी उपासनामें लगते आए हैं। यही सम्यग्दर्शनकी ज्योति है।
प्रत्येक आत्मा अपनी तरह जगत्में विद्यमान अनन्त आत्माओंका भी यदि समान-आत्माधिकार स्वीकार कर ले और अचेतन द्रव्योंके संग्रह या परिग्रहको पाप और अनधिकार चेष्टा मान ले तो जगत में युद्ध संघर्ष हिंसा द्वेष आदि क्यों हों ? आत्माके स्वरूपच्युत होनेका मुख्य कारण है परसंग्रहाभिलाषा और परपरिग्रहेच्छा । प्रत्येक मिथ्यादर्शी आत्मा यह चाहता है कि संसारके समस्त जीवधारी उसके इशारेपर चलें, उसके अधीन रहें, उसकी उच्चता स्वीकार करें। इसी व्यक्तिगत अनधिकार चेष्टाके फलस्वरूप जगतमें जाति वर्ण रंग आदिप्रयुक्त वैषम्यकी सृष्टि हुई है। एक जातिमें उच्चत्वका अभिमान होनेपर उसने दूसरी जातियोंको नीचा रखनेका प्रयत्न किया। मानवजातिके काफी बड़े भागको अस्पृश्य घोषित किया गया । गरिरंगवालोंकी शासक जाति बनी। इस जाति वर्ण और रंगके आधारसे गुट बने और इन गिरोहोंने अपने वर्गकी उच्चता और लिप्साकी पुष्टिके लिए दूसरे मनुष्योंपर अवर्णनीय अत्याचार किए। स्त्रीमात्र भोगकी
स्तु रही। स्त्री और शूद्रका दर्जा अत्यन्त पतित समझा गया। जैन तीर्थंकरोंने इन अनधिकार चेष्टाको मिथ्यादर्शन कहा और बताया कि इस अनधिकार चेष्टाको समाप्त किये बिना सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः मूलतः सम्यग्दर्शन-आत्मस्वरूपदर्शन और आत्माधिकारके ज्ञान में ही परिसमाप्त है। शास्त्रोंमें इसका ही स्वानुभव, स्वानुभूति, स्वरूपानुभव जैसे शब्दोंसे वर्णन किया गया है। जैन परम्परामें सम्यकदर्शनके विविधरूप पाए जाते हैं । १-तत्त्वार्थश्रद्धान २-जिनदेव शास्त्र गुरुका श्रद्धान ३-आत्मा और परका भेदज्ञान आदि ।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २१३
जैनदेव, जैनशास्त्र और जैनगुरुकी श्रद्धाके पीछे भी वही आत्मसमानाधिकारकी बात है । जैनदेव परम वीतरागता प्रतीक हैं । उस वीतरागता और आत्ममात्रत्व के प्रति सम्पूर्ण निष्ठा रखे बिना शास्त्र और गुरुभक्ति भी अधूरी है । अतः जैनदेव शास्त्र और गुरुकी श्रद्धाका वास्तविक अर्थ किसी व्यक्तिविशेषको श्रद्धा न होकर उन गुणोंके प्रति अटूट श्रद्धा है जिन गुणोंके वे प्रतीक हैं ।
आत्मा और पदार्थों का विवेकज्ञान भी उसी आत्मदर्शनकी ओर इशारा करता है । इसी तरह तत्त्वार्थश्रद्धानमें उन्हीं आत्माको बन्ध करनेवाले और आत्माकी मुक्ति में कारणभूत तत्त्वोंकी श्रद्धा ही अपेक्षित है । इस विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन आत्मस्वरूपदर्शन और आत्माधिकारका परिज्ञान तथा उसके प्रति अटूट जीवन्त श्रद्धारूप ही है । सम्यग्द्रष्टाके जीवनमें परिग्रहसंग्रह और हिंसाका कोई स्थान नहीं रह सकता । वह तो मात्र अपनी आत्मापर ही अपना अधिकार समझकर जितनी दूसरी आत्माओंको या अन्य जड़द्रव्योंको अधीन करनेकी चेष्टाएँ हैं उन सभीको अधर्म ही मानता है । इस तरह यदि प्रत्येक मानवको यह आत्मस्वरूप और आत्माधिकारका परिज्ञान हो जाय और वह जीवनमें इसके प्रति निष्ठावान हो जाय तो संसार में परम शान्ति और सहयोगका साम्राज्य स्थापित हो सकता है ।
सम्यग्दर्शन के इस अन्तरस्वरूपकी जगह आज बाहरी पूजा-पाठने ले ली है । अमुक पद्धतिसे पूजन और अमुक प्रकारकी द्रव्यसे पूजा आज सम्यक्त्व समझी जाती है। जो महावीर और पद्मप्रभु वीतरागता के प्रतीक थे, आज उनकी पूजा व्यापारलाभ, पुत्रप्राप्ति, भूतबाधाशान्ति जैसी क्षुद्र कामनाओंकी पूर्तिके लिए ही की जाने लगी है । इतना ही नहीं, इन तीर्थंकरोंका 'सच्चा दरबार' कहलाता है । इनके मन्दिरों में शासनदेवता स्थापित हुए हैं और उनकी पूजा और भक्तिने हो मुख्य स्थान प्राप्त कर लिया है। और यह सब हो रहा है सम्यग्दर्शनके पवित्र नामपर ।
जिस सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न चाण्डालको स्वामी समन्तभद्रने देवके समान बताया उसी सम्यग्दर्शनकी ओटमें और शास्त्रोंकी ओटमें जातिगत उच्चत्व नीचत्वके भावका प्रचार किया जा रहा है । जिस बाह्यपदार्थाश्रित या शरीराश्रित भावोंके विनाशके लिए आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शनका उपदेश दिया गया था उन्हीं शरीराश्रित पिण्डशुद्धि आदिके नामपर ब्राह्मणधर्मकी वर्णाश्रमव्यवस्थाको चिपटाया जा रहा है । इस तरह जबतक हमें सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होगा तबतक न जाने क्या-क्या अलाय बलाय उसके पवित्र नामसे मानवजातिका पतन करती रहेगी । अतः आत्मस्वरूप और आत्माधिकारको मर्यादाको पोषण करनेवाली धारा ही सम्यग्दर्शन है अन्य नहीं । यही धर्म है ।
जिस प्रकार मिथ्यादर्शन दो प्रकारका उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके भी निसर्गज - अर्थात् बुद्धिपूर्वक प्रयत्नके बिना अनायास प्राप्त होनेवाला और अधिगमज अर्थात् बुद्धिपूर्वक - परोपदेशसे सीखा हुआ, इस प्रकार दो भेद हैं । जन्मान्तरसे आये हुए सम्यग्दर्शन संस्कारका निसर्गजमें ही समावेश है । अतः जबतक माँ बाप, शिक्षक, समाजके नेता, धर्मगुरु और धर्मप्रचारक आदिको सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन न होगा तबतक ये अनेक निरर्थक क्रियाकाण्डों और विचारशून्य रूढ़ियोंकी शराब धर्म और सम्यग्दर्शनके नामपर नूतनपीढ़ीको पिलाते जायेंगे और निसर्गमिथ्यादृष्टियोंकी सृष्टि करते जायँगे । अतः नई पीढ़ीके सुधार के लिए व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त करना होगा । हमें उस मूलभूत तत्त्व - आत्मस्वरूप और आत्माधिकारको इन नेताओंको समझाना होगा और इनसे करबद्ध प्रार्थना करनी होगी कि इन कच्चे बच्चोंपर दया करो, इन्हें सम्यग्दर्शन और धर्म नामपर बाह्यगत उच्चत्वनीचत्व शरीराश्रित पिण्डशुद्धि आदिमें न उलझाओ, थोड़ा-थोड़ा आत्मदर्शन करने दो । परम्परागत रूढ़ियोंको धर्मका जामा मत पहिनाओ। बुद्धि और विवेकको जाग्रत् होने दो ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ श्रद्धाके नामपर बुद्धि और विवेककी ज्योतिको मत बुझावो। अपनी प्रतिष्ठा स्थिर रखने के लिए पीढ़ीके विकासको मत रोको। स्वयं समझो जिससे तुम्हारे संपर्कमें आनेवाले लोगोंमें समझदारी आवे । रूढ़िचक्रका आम्नाय परम्परा आदिके नामपर आँख मूंदकर अनुसरण न करो। तुम्हारा यह पाप नई पीढ़ीको भोगना
र पूर्वजोंकी ही गलती या संकुचित दृष्टिका परिणाम थी, और आज जो स्वतन्त्रता मिली वह गान्धीयुगके सम्यग्द्रष्टाओंके पुरुषार्थका फल है। इस विचारधाराको प्राचीनता, हिन्दुत्व, धर्म और संस्कृतिके नामपर फिर तमःछन्न मत करो।
सारांश यह कि आत्मस्वरूप और आत्माधिकारके पोषक उपबृहक परिवर्धक और संशोधक कर्तव्योंका प्रचार करो जिससे सम्यग्दर्शनकी परम्परा चले। व्यक्तिका पाप व्यक्तिको भोगना ही साधनों की सत्ता है। अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन
पदार्थस्थिति-"नाऽसतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते सतः"-जगतमें जो सत है उसका सर्वथा विनाश नहीं हो सकता और सर्वथा नए किसी असत्का सद्रूपमें उत्पाद नहीं हो सकता । जितने मौलिक द्रव्य इस जगतमें अनादिसे विद्यमान है अपनी अवस्थाओंमें परिवर्तित होते रहते हैं। अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल अणु, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाश और असंख्य कालाणु इनसे यह लोक व्याप्त है। ये छह जातिके द्रव्य मौलिक हैं, इनमेंसे न तो एक भी द्रव्य कम हो सकता है और न कोई नया उत्पन्न होकर इनकी संख्या वृद्धि ही कर सकता है। कोई भी द्रव्य अन्यद्रव्यरूपमें परिणमन नहीं कर सकता । जीव जीव ही रहेगा पुद्गल नहीं हो सकता। जिस तरह विजातीय द्रव्यरूपमें किसी भी द्रव्यका परिणमन नहीं होता उसी तरह एक जीव दूसरे सजातीय जीवद्रव्यरूप या एक पुद्गल दूसरे सजातीय पुद्गलद्रव्यरूपमें परिणमन भी नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों-अवस्थाओंकी धारामें प्रवाहित है। वह किसी भी विजातीय या सजातीय द्रव्यान्तरकी धारामें नहीं मिल सकता। यह सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तरमें असंक्रान्ति ही प्रत्येक द्रव्यकी मौलिकता है। इन द्रव्योंमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और कालद्रव्योंका परिणमन सदा शुद्ध ही रहता है, इनमें विकार नहीं होता, एक जैसा परिणमन प्रतिसमय होता रहता है । जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें शुद्धपरिणमन भी होता है तथा अशुद्ध परिणमन भी । इन दो द्रव्योंमें क्रियाशक्ति भी है जिससे इनमें हलन-चलन, आना-जाना आदि क्रियाएं होती हैं। शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं, वे जहाँ हैं वहीं रहते हैं । आकाश सर्वव्यापी है। धर्म और अधर्म लोकाकाशके बराबर है। पुदगल और काल अणुरूप है। जीव असंख्यातप्रदेशी है और अपने शरीरप्रमाण विविध आकारों में मिलता है। एक पुदगलद्रव्य ही ऐसा है जो सजातीय अन्य पुद्गलद्रव्योंसे मिलकर स्कन्ध बन जाता है और कभी-कभी इनमें इतना रासायनिक मिश्रण हो जाता है कि उसके अणुओंकी पृथक् सत्ताका भान करना भी कठिन होता है। तात्पर्य यह कि जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्यमें अशुद्ध परिणमन होता है और वह एक दूसरेके निमित्तसे । पुद्गलमें इतनी विशेषता है कि उसकी अन्य सजातीय पुद्गलोंसे मिलकर स्कन्ध-पर्याय भी होती है पर जीवकी दूसरे जीवसे मिलकर स्कन्ध पर्याय नहीं होती। दो विजातीय द्रव्य बँधकर एक पर्याय प्राप्त नहीं कर सकते । इन दो द्रव्योंके विविध परिणमनोंका स्थूलरूप यह दृश्य जगत् है।
द्रव्य-परिणमन-प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य है । पूर्वपर्याय नष्ट होती है उत्तर उत्पन्न होती है पर मलद्रव्यकी धारा अविच्छिन्न चलती है। यही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता प्रत्येक द्रव्यका निजी स्वरूप है। धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्योंका सदा शुद्ध परिणमन ही होता है । जीवद्रव्यमें जो मुक्त जीव हैं उनका
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २१५
परिणमन शुद्ध ही होता है कभी भी अशुद्ध नहीं होता। संसारी जीव और अनन्त पुद्गलद्रव्यका शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही प्रकारका परिणमन होता है । इतनी विशेषता है कि जो संसारी जीव एकबार मुक्त होकर शुद्ध परिणमनका अधिकारी हुआ वह फिर कभी भी अशुद्ध नहीं होगा, पर पुद्गलद्रव्यका कोई नियम नहीं है। वे कभी स्कन्ध बनकर अशुद्ध परिणमन करते हैं तो परिमाणु रूप होकर अपनी शद्ध अवस्थामें आ जाते हैं फिर स्कन्ध बन जाते हैं। इस तरह उनका विविध परिणमन होता रहता है। जीव और पुदगलमें वैभाविकी शक्ति है, उसके कारण विभाव परिणमनको भी प्राप्त होते हैं।
द्रव्यगतशक्ति-धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन द्रव्य एक एक एक हैं। कालाणु असंख्यात है। प्रत्येक कालाणमें एक-जैसी शक्तियाँ हैं। वर्तना करनेकी जितने अविभागप्रतिच्छेदवाली शक्ति एक कालाणमें है वैसी ही दूसरे कालाणुमें । इस तरह कालाणुओंमें परस्पर शक्ति-विभिन्नता या परिणमनविभिन्नता नहीं है। पुदगलद्रव्यके एक अणमें जितनी शक्तियाँ हैं उतनी ही और वैसी ही शक्तियाँ परिणमनयोग्यताएँ अन्य पुद्गलाणुओंमें हैं। मूलतः पुद्गल-अणु द्रव्योंमें शक्तिभेद, योग्यताभेद या स्वभावभेद नहीं है । यह तो सम्भव है कि कुछ पुद्गलाणु मूलतः स्निग्ध स्पर्शवाले हों और दूसरे मूलतः रूक्ष, कुछ शीत और कुछ उष्ण, पर उनके ये गुण भी नियत नहीं है, रूक्षगुणवाला भी अणु स्निग्धगुणवाला बन सकता है तथा स्निग्धगुणवाला भी रूक्ष, शीत भी उष्ण बन सकता है उष्ण भी शीत । तात्पर्य यह कि पुद्गलाणोंमें ऐसा कोई जातिभेद नहीं है जिससे किसी भी पुद्गलाणुका पुद्गलसम्बन्धी कोई परिणमन न हो सकता हो । पुदगलद्रव्यके जितने भी परिणमन हो सकते हैं उन सबकी योग्यता और शक्ति प्रत्येक पुद्गलाणु में स्वभावतः है। यही द्रव्यशक्ति कहलाती है। स्कन्ध अवस्थामें पर्यायशक्तियाँ विभिन्न हो सकती हैं। जैसे किसी अग्निस्कन्धमें सम्मिलित परमाणुका उष्णस्पर्श तेजोरूप था, पर यदि वह अग्निस्कन्धसे जुदा हो जाय तो उसका शीतस्पर्श तथा कृष्णरूप हो सकता है, और यदि वह स्कन्ध ही भस्म बन जाय तो सभी परमाणुओंका रूप और स्पर्श आदि बदल सकते हैं।
सभी जीवद्रव्योंकी मूल स्वभावशक्तियाँ एक जैसी हैं, ज्ञानादि अनन्तगुण और अनन्त चैतन्यपरिणमनकी शक्ति मूलतः प्रत्येक जीवद्रव्यमें है। हाँ, अनादिकालीन अशुद्धताके कारण उनका विकास विभिन्न प्रकारसे होता है । चाहे भव्य हो या अभव्य दोनों ही प्रकारके प्रत्येक जीव एक-जैसी शक्तियों के आधार हैं। शद्ध दशामें सभी एक जैसी शक्तियोंके स्वामी बन जाते हैं और प्रतिसमय अखण्ड शुद्ध परिणमनमें लीन रहते हैं। संसारी जीवोंमें भी मूलतः सभी शक्तियाँ हैं। इतना विशेष है कि अभव्यजीवोंमें केवलज्ञानादि शक्तियोंके आविर्भावकी शक्ति नहीं मानी जाती । उपर्युक्त विवेचनसे एक बात निर्वादरूपसे स्पष्ट हो जाती है कि चाहे द्रव्य चेतन हो या अचेतन, प्रत्येक मूलतः अपनी-अपनी चेतन-अचेतन शक्तियोंका धनी है उनमें कहीं कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं है। अ द्ध दशामें अन्य पर्यायशक्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं और विलीन होती रहती हैं।
परिणमनके नियतत्वकी सीमा-उपयुक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि द्रव्योंमें परिणमन होनेपर भी कोई भी द्रव्य सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपमें परिणमन नहीं कर सकता। अपनी धारामें सदा उसका परिणमन होता रहता है। द्रव्यगत मूल स्वभावकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके अपने परिणमन नियत है। किसी भी पद्गलाण के वे सभी पुद्गलसम्बन्धी परिणमन यथासमय हो सकते हैं और किसी भी जीवके जीवसम्बन्धी अनन्त परिणमन । यह तो सम्भव है कि कुछ पर्यायशक्तियोंसे सीधा सम्बन्ध रखनेवाले परिणमन कारणभूत पर्यायशक्तिके न होनेपर न हों। जैसे प्रत्येक पुद्गलपरमाणु यद्यपि घट बन सकता है फिर भी
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
जबतक अमुक परमाणु मिट्टी स्कन्धरूप पर्यायको प्राप्त न होंगे तब तक उनमें मिट्टीरूप पर्यायशक्तिके विकाससे होनेवाली घटपर्याय नहीं हो सकती। परन्तु मिट्टी पर्यायसे होनेवाली घट, सकोरा आदि जितनी पर्यायें सम्भवित हैं वे निमित्तके अनुसार कोई भी हो सकती हैं। जैसे जीवमें मनुष्यपर्यायमें आँखसे देखनेकी योग्यता विकसित है तो वह अमुक समयमें जो भी सामने आयेगा उसे देखेगा। यह कदापि नियत नहीं है कि अमुक समयमें अमुक पदार्थको ही देखनेकी उसमें योग्यता है शेषकी नहीं, या अमुक पदार्थ में उस समय उसके द्वारा ही देखे जानेकी योग्यता है अन्यके द्वारा नहीं। मतलब यह कि परिस्थितिवश जिस पर्यायशक्तिका द्रव्यमें विकास हुआ है उस शक्तिसे होनेवाले यावत्कार्योंमेंसे जिस कार्यकी सामग्री या बलवान् निमित्त मिलेंगे उसके अनुसार उसका वैसा परिणमन होता जायगा। एक मनुष्य गद्दीपर बैठा है उस समय उसमें हँसना-रोना, आश्चर्य करना, गम्भीरतासे सोचना आदि अनेक कार्योंकी योग्यता है । यदि वहुरूपिया सामने आजाय और उसकी उसमें दिलचस्पी हो तो हँसनेरूप पर्याय हो जायगी। कोई शोकका निमित्त मिल जाय तो रो भी सकता है। अकस्मात् बात सुनकर आश्चर्य में डूब सकता है और तत्त्वचर्चा सुनकर गम्भीरतापूर्वक सोच भी सकता है। इसलिए यह समझना कि 'प्रत्येक द्रव्यका प्रतिसमयका परिणमन नियत है उसमें कुछ भी हेर-फेर नहीं हो सकता और न कोई हेर-फेर कर सकता है' द्रव्यके परिणमनस्वभावको गम्भीरतासे न सोचनेके कारण भ्रमात्मक है । द्रव्यगत परिणमन नियत हैं। अमुक स्थूलपर्यायगत शक्तियोंके परिणमन भी नियत हो सकते हैं, जो उस पर्यायशक्तिके सम्भावनीय परिणमनोंमेंसे किसी एकरूपमें निमित्तानुसार सामने आते हैं । जैसे एक अंगुली अगले समय टेड़ी हो सकती है, सीधी रह सकती है, टूट सकती है, घूम सकती है, जैसी सामग्री और कारण-कलाप मिलेंगे उसमें विद्यमान इन सभी योग्यताओंमेंसे अनुकूल योग्यताका विकास हो जायगा। उस कारणशक्तिसे वह अमुक परिणमन भी नियत कराया जा सकता है जिसकी पूरी सामग्री अविकल हो और प्रतिबन्धक कारणकी सम्भावना न हो, ऐसी अन्तिमक्षणप्राप्त शक्तिसे वह कार्य नियत ही होगा, पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि प्रत्येक द्रव्यका प्रतिक्षणका परिणमन सुनिश्चित है उसमें जिसे जो निमित्त होता है नियतिचक्रके पेटमें पड़कर ही वह उसका निमित्त बनेगा ही। यह अतिसुनिश्चित है कि हरएक द्रव्यका प्रतिसमय कोई न कोई परिणमन होना ही चाहिए। पुराने संस्कारोंके परिणामस्वरूप कुछ ऐसे निश्चित कार्यकारणभाव बनाए जा सकते हैं जिनसे यह नियत किया जा सकता है कि अमुक समयमें इस द्रव्यका ऐसा परिणमन होना ही, पर इस कारणताकी अवश्यंभाविता सामग्रीकी अविकलता तथा प्रतिबन्धक-कारणकी शन्यतापर ही निर्भर है। जैसे हल्दी और चूना दोनों एक जलपात्रमें डाले गये तो यह अवश्यंभावी है कि उनका लालरंगका परिणमन हो । एक बात यहाँ यह खासतौरसे ध्यानमें रखने की है कि अचेतन परमाणुओंमें बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती। उनमें अपने संयोगोंके आधारसे ही क्रिया होती है, भले ही वे संयोग चेतन द्वारा मिलाए गए हों या प्राकृतिक कारणोंसे मिले हों। जैसे पृथिवीमें कोई बीज पड़ा हो तो सरदी गरमीका निमित्त पाकर उसमें अंकुर आ जायगा और वह पल्लवित पुष्पित होकर पुनः बीजको उत्पन्न कर देगा। गरमीका निमित्त पाकर जल भाप बन जायगा। पुनः सरदीका निमित्त पाकर भाप जलके रूपमें बरसकर पृथिवीको शस्यश्यामल बना देगा। कुछ ऐसे भी अचेतन द्रव्योंके परिणमन हैं जो चेतन निमित्तसे होते हैं जैसे मिट्टीका घड़ा बनना या रुईका कपड़ा बनना । तात्पर्य यह कि अतीतके संस्कारवश वर्तमान क्षणमें जितनी और जैसी योग्यताएँ विकसित होंगी और जिनके विकासके अनुकुल निमित्त मिलेंगे द्रव्योंका वैसा-वैसा परिणमन होता जायगा। भविष्यका कोई निश्चित कार्यक्रम द्रव्योंका बना हुआ हो और उसी सुनिश्चित अनन्त क्रमपर यह जगत चल रहा हो यह धारणा ही भ्रमपूर्ण है।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २१७
नियताऽनियतत्ववाद-जैनदृष्टिसे द्रव्यगत शक्तियाँ नियत हैं पर उनके प्रतिक्षणके परिणमन अनिवार्य होकर भी अनियत हैं । एक द्रव्यकी उस समयकी योग्यतासे जितने प्रकारके परिणमन हो सकते हैं उनमेंसे कोई भी परिणमन जिसके निमित्त और अनुकूल सामग्री मिल जायगी हो जायगा । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक द्रव्यकी शक्तियाँ तथा उनसे होनेवाले परिणमनोंकी जाति सुनिश्चित है । कभी भी पदगलके परिणमन जीवमें तथा जीवके परिणमन पुद्गलमें नहीं हो सकते । पर प्रतिसमय कैसा परिणमन होगा यह अनियत है । जिस समय जो शक्ति विकसित होगी तथा अनुकूल निमित्त मिल जायगा उसके बाद वैसा परिणमन हो जायगा । अतः नियतत्व और अनियतत्त्व दोनों धर्म सापेक्ष हैं, अपेक्षा भेदसे सम्भव हैं।
जीवद्रव्य और पुद्गल द्रव्यका ही खेल यह जगत है। इनकी अपनी द्रव्यशक्तियाँ नियत हैं। संसारमें किसीकी शक्ति नहीं जो द्रव्यशक्तियोंमेंसे एकको भी कम कर सके या एकको बढा सके। इनका आ और तिरोभाव पर्यायके कारण होता रहता है। जैसे मिट्टी पर्यायको प्राप्त पदगलसे तेल नहीं निकल सकता, वह सोना नहीं बन सकती, यद्यपि तेल और सोना भी पुद्गल ही बनता है, क्योंकि मिट्टी पर्यायवाले पुद्गलोंकी वह योग्यता तिरोभूत है, उसमें घट आदि बननेकी, अंकुरको उत्पन्न करनेकी, बर्तनोंके शुद्ध करनेकी, प्राकृतिक चिकित्सामें उपयोग आनेकी आदि पचासों पर्याय योग्यताएं विद्यमान हैं। जिसकी सामग्री मिलेगी अगले क्षणमें वही पर्याय उत्पन्न होगी। रेत भी पुद्गल है पर इस पर्यायमें धड़ा बननेकी योग्यता तिरोभूत है, अप्रकट है, उसमें सीमेंटके साथ मिलकर दीवालपर पुष्ट लेप करनेकी योग्यता प्रकट है, वह काँच बन सकती है या बही पर लिखी जानेवाली काली स्याहीका शोषण कर सकती है। मिट्टी पर्यायमें ये योग्यताएँ अप्रकट हैं । तात्पर्य यह कि :
(१) प्रत्येक द्रव्यकी मूलद्रव्यशक्तियाँ नियत हैं उनकी संख्यामें न्यूनाधिकता कोई नहीं कर सकता। पर्यायके अनुसार कुछ शक्तियाँ प्रकट रहती हैं और कुछ अप्रकट । इन्हें पर्याय योग्यता कहते हैं। (२) यह नियत है कि चेतन का अचेतनरूपसे तथा अचेतनका चेतनरूपसे परिणमन नहीं हो सकता । (३) यह भी नियत है कि एक चेतन या अचेतन द्रव्यका दूसरे सजातीय चेतन या अचेतन द्रव्य रूपसे परिणमन नहीं हो सकता। (४) यह भी नियत है कि दो चेतन मिलकर एक संयुक्त सदश पर्याय उत्पन्न नहीं कर सकते जैसे कि अनेक अचेतन परमाणु मिलकर अपनी संयुक्त सदृश घट पर्याय उत्पन्न कर लेते हैं । (५) यह भी नियत है कि द्रव्यमें उस समय जितनी पर्याय योग्यताएं हैं उनमें जिसके अनुकल निमित्त मिलेंगे वही परिणमन आगे होगा, शेष योग्यताएँ केवल सद्भावमें रहेंगी। (६) यह भी नियत है कि प्रत्येक द्रव्यका कोई न कोई परिणमन अगले क्षणमें अवश्य होगा। यह परिणमन द्रव्यगत मूल योग्यताओं और पर्यायगत प्रकट योग्यताओंकी सीमाके भीतर ही होगा, बाहर कदापि नहीं। (७) यह भी नियत है कि निमित्त उपादान द्रव्यकी योग्यताका ही विकास करता है, उसमें नूतन सर्वथा असद्भूत परिणमन उपस्थित नहीं कर सकता । (८) यह भी नियत है कि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने परिणमनका उपादान होता है। उस समयकी पर्याययोग्यतारूप उपादानशक्तिकी सीमाके बाहिरका कोई परिणमन निमित्त नहीं ला सकता । परन्तु
(१) यही एक बात अनियत है कि 'अमुक समयमें अमुक परिणमन ही होगा।' मिट्टीकी पिंडपर्यायमें घड़ा, सकोरा, सुराई, दिया आदि अनेक पर्यायों के प्रकटानेकी योग्यता है । कुम्हारकी इच्छा और क्रिया आदि का निमित्त मिलनेपर उनमेंसे जिसकी अनकूलता होगी वह पर्याय अगले क्षणमें उत्पन्न हो जायगी । यह कहना कि 'उस समय मिट्टीकी यही पर्याय होनी थी, उनका मेल भी सद्भाव रूपसे होना था, पानीकी यही पर्याय होनी थी' द्रव्य और पर्यायगत योग्यताके अज्ञानका फल है।
४-२८
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
नियतिवाद नहीं जो होना होगा वह होगा ही, हमारा कुछ भी पुरुषार्थ नहीं है, इस प्रकारके निष्क्रिय नियतिवादके विचार जैनतत्त्वस्थितिके प्रतिकूल हैं। जो द्रव्यगत शक्तियाँ नियत है उनमें हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं, हमारा पुरुषार्थ तो कोयलेकी होरापर्यायके विकास कराने में है । यदि कोयलेके लिए उसकी हीरापर्यायके विकासके लिए आवश्यक सामग्री न मिले तो या तो वह जलकर भस्म बनेगा या फिर खानिमें ही पड़े-पड़े समाप्त हो जायगा । इसका यह अर्थ नहीं है कि जिसमें उपादान शक्ति नहीं है उसका परिणमन भी निमित्तसे हो सकता है या निमित्तमें यह शक्ति है जो निरुपादानको परिणमन करा सके ।
नियतिवाद-दृष्टिविष-एकबार 'ईश्वरवाद'के विरुद्ध छात्रोंने एक प्रहसन खेला था। उसमें एक ईश्वरवादी राजा था, जिसे यह विश्वास था कि ईश्वरने समस्त दुनियाके पदार्थोंका कार्यक्रम निश्चित कर दिया है। प्रत्येक पदार्थकी अमुक समयमें यह दशा होगी इसके बाद यह इस प्रकार सब सुनिश्चित है। कोई अकार्य होता तो राजा सदा यह कहता था कि-'हम क्या कर सकते हैं ? ईश्वरने ऐसा ही नियत किया था। ईश्वरके नियतिचक्रमें हमारा हस्तक्षेप उचित नहीं 'ईश्वरकी मर्जी' । एकबार कुछ गुण्डोंने राजाके सामने ही रानीका अपहरण किया। जब रानीने रक्षार्थ चिल्लाहट शुरू की और राजाको क्रोध आया तब गुण्डोंके सरदारने जोरसे कहा-'ईश्वरकी मर्जी' । राजाके हाथ ढीले पड़ते हैं और वे गण्डे रानीको उसके सामने ही उठा ले जाते हैं। गुण्डे रानीको भी समझाते है कि 'ईश्वरकी मर्जी यही थी' रानी भी 'विधिविधान' में अटल विश्वास रखती थी और उन्हें आत्म समर्पण कर देती है। राज्यमें अव्यवस्था फैलती है और परचक्रका आक्रमण होता है और राजाकी छातीमें दुश्मनकी जो तलवार घुसती है वह भी 'ईश्वरकी मर्जी' इस जहरीले विश्वासविषसे बुझी हुई थी और जिसे राजाने विधिविधान मानकर ही स्वीकार किया था। राजा और रानी, गुण्डों और शत्रुओंके आक्रमणके ससय 'ईश्वरकी मर्जी' 'विधिकाविधान' इन्हीं ईश्वरास्त्रोंका प्रयोग करते थे और ईश्वरसे ही रक्षाकी प्रार्थना करते थे। पर न मालम उस समय ईश्वर क्या कर रहा था ? ईश्वर भी क्या करता? गुण्डे और शत्रुओंका कार्यक्रम भी उसीने बनाया था और वे भी 'ईश्वरकी मर्जी'
और 'विधिविधान'को दुहाई दे रहे थे। इस ईश्वरवादमें इतनी गुंजाइश थी कि यदि ईश्वर चाहता तो अपने विधानमें कुछ परिवर्तन कर देता । आज श्री कानजी स्वामीको 'वस्तुविज्ञानसार' पुस्तकको पलटते समय उस प्रहसनकी याद आ गई और ज्ञात हुआ कि यह नियतिवादका कालकूट 'ईश्वरवाद'से भी भयंकर है। ईश्वरवादमें इतना अवकाश है कि यदि ईश्वर को भक्तिकी जाय या सत्कार्य किया जाय तो ईश्वरके विधान में हेरफेर हो जाता है। ईश्वर भी हमारे सत्कर्म और दुष्कर्मों के अनुसार ही फलका विधान करता है। पर यह नियतिवाद अभेद्य है। आश्चर्य तो यह है कि इसे 'अनन्त पुरुषार्थ का नाम दिया जाता है। यह कालकूट कुन्दकुन्द, अध्यात्म, सर्वज्ञ, सम्यग्दर्शन और धर्मकी शक्करमें लपेट कर दिया जा रहा है । ईश्वरवादी साँपके जहरका एक उपाय (ईश्वर) तो है पर इस नियतिवादी कालकूटका, इस भीषण दृष्टिविषका कोई उपाय नहीं; क्योंकि हर एक द्रव्यकी हर समयकी पर्याय नियत है।
मर्मान्त वेदना तो तब होती है जब इस मिथ्या एकांत विषको अनेकान्त अमृतके नामसे कोमलमति नई पीढ़ोको पिलाकर उन्हें अनन्त पुरुषार्थी कहकर सदाके लिए पुरुषार्थसे विमुख किया जा रहा है।।
पूण्य और पाप क्यों ?-जब प्रत्येक जीवका प्रतिसमयका कार्यक्रम निश्चित है, अर्थात् परकर्तृत्व तो है ही नहीं, साथ ही स्वकर्तृत्व भी नहीं है, तब क्या पुण्य और क्या पाप ? किसी मुसलमानने जैनप्रतिमा तोड़ी, तो जब मुसलमानको उस समय प्रतिमाको तोड़ना ही था, प्रतिमाको उस समय टूटना ही था, सब कुछ नियत था तो विचारे मुसलमान का क्या अपराध ? वह तो नियतिचक्रका दास था। एक याज्ञिक ब्राह्मण
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २१९ बकरे की बलि चढ़ाता है तो क्यों उसे हिंसक कहा जाय - 'देवीकी ऐसी ही पर्याय होनी थी, बकरेके गलेको कटना ही था, छुरेको उसको गर्दन के भीतर घुसना ही था, ब्राह्मणके मुहमें मांस जाना ही था, वेदमें ऐसा लिखा ही जाना था।' इस तरह पूर्वनिश्चित योजनानुसार जब घटनाएँ घट रही हैं तब उस विचारेको क्यों हत्यारा कहा जाय ? हत्याकाण्डरूपी घटना अनेक द्रव्योंके सुनिश्चित परिणमनका फल है। जिस प्रकार ब्राह्मणके छुरेका परिणमन बकरके गलेके भीतर घुसने का नियत था उसी प्रकार बकरके गलेका परिणमन भी अपने भीतर छुरा घुसवानेका निश्चित था । जब इन दोनों नियत घटनाओंका परिणाम बकरेका बलिदान है। तो इसमें क्यों ब्राह्मणको हत्यारा कहा जाय ? किसी स्त्रीका शील भ्रष्ट करनेवाला व्यक्ति क्यों दुराचारी गुण्डा कहा जाय ? स्त्रीका परिणमन ऐसा ही होना था और पुरुषका भी ऐसा ही दोनों के नियत परिणमनोंका नियत मेलरूप दुराचार भी नियत ही था फिर उसे गुण्डा और दुराचारी क्यों कहा जाय ? इस तरह इस श्रोत्र विषरूप जिसके सुनने से ही हम तो एक महानियति चक्रके अंश हैं और उसके परिचलनके अनुसार प्रतिक्षण चल रहे हैं । यदि हिंसा करते हैं तो नियत है, व्यभिचार करते हैं तो नियत है, चोरी करते हैं तो नियत है, पापचिन्ता करते हैं तो नियत है । हमारा पुरुषार्थ कहाँ होगा ? कोई भी क्षण इस नियति भूतकी मौजूदगी से रहित नहीं है, जब हम साँस लेकर कुछ अपना भविष्य निर्माण कर सकें ।
भविष्य निर्माण कहाँ ? इस नियतिवादमें भविष्य निर्माणकी सारी योजनाएँ हवा । जिसे हम भविष्य कहते हैं वह भी नियतिचक्रमें सुनिश्चित है और होगा ही । जैन दृष्टि तो यह कहती है कि तुममें उपादान योग्यता प्रति समय अच्छे और बुरे बनने की, सत् और असत् होने की है, जैसा पुरुषार्थं करोगे, जैसी सामग्री जुटाओगे अच्छे बुरे भविष्यका निर्माण स्वयं कर सकोगे ।" पर जब नियतिचक्र निर्माण करने की बातपर ही कुठाराघात करके उसे नियत या सुनिश्चित कहता है तब हम क्या पुरुषार्थ करें ? हमारा हमारे ही परिणमनपर अधिकार नहीं है क्योंकि वह नियत है । पुरुषार्थ भ्रष्टताका इससे व्यापक उपदेश दूसरा नहीं हो सकता । इस नियतिचक्रमें सबका सब कुछ नियत है उसमें अच्छा क्या ? बुरा क्या ? हिंसा और अहिंसा क्या ?
सबसे बड़ा अस्त्र सर्वज्ञत्व-नियतिवादी या तथोक्त अध्यात्मवादियों का सबसे बड़ा तर्क है कि'सर्वज्ञ है या नहीं ? यदि सर्वज्ञ है तो वह त्रिकालज्ञ होगा अर्थात् भविष्यज्ञ भी होगा । फलतः वह प्रत्येक पदार्थका अनन्तकाल तक प्रतिक्षण जो होना है उसे ठोक रूपमें जानता है । इस तरह प्रत्येक परमाणुकी प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है उनका परस्पर जो निमित्तनैमित्तिकजाल है वह भी उसके ज्ञानके बाहिर नहीं है ।' सर्वज्ञ माननेका दूसरा अर्थ है नियतिवादी होना । पर आज जो सर्वज्ञ नहीं मानते उनके सामने हम नियतितन्त्रको कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? जिस अध्यात्मवादके मूलमें हम नियतिवादको पनपाते हैं उस अध्यात्मदृष्टिसे सर्वज्ञता व्यवहारनयकी अपेक्षासे है । निश्चयनयसे तो आत्मज्ञतामें ही उसका पर्यवसान होता है, जैसा कि स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसार (गा. १५८ ) में लिखा है
"जादि पस्सदि सव्वं व्यवहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पाणं ॥ "
अर्थात् — केवली भगवान् व्यवहारनयसे सब पदार्थोंको जानते देखते हैं । निश्चयसे केवलज्ञानी अपनी आत्माको ही जानता देखता है ।
अध्यात्मशास्त्रगत निश्चयनयकी भूतार्थना और परमार्थता तथा व्यवहारनयकी अभूतार्थता और
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
अपरमार्थता पर विचार करनेसे तो अध्यात्मशास्त्र में पूर्णज्ञानका पर्यवसान अन्ततः आत्मज्ञान में ही होता है । अतः सर्वज्ञत्वकी दलीलका अध्यात्मचिन्तनमूलक पदार्थव्यवस्था में उपयोग करना उचित नहीं है ।
समग्र और अप्रतिबद्ध कारण ही हेतु - अकलंकदेवने उस कारण को हेतु स्वीकार किया है जिसके द्वितीयक्षण में नियमसे कार्य उत्पन्न हो जाय । उसमें भी यह शर्त है कि जब उसकी शक्ति में कोई प्रतिबन्ध उपस्थित न हो तथा सामग्रयान्तर्गत अन्य कारणोंकी विकलंता न हो । जैसे अग्नि धूमकी उत्पत्ति में अनुकूल कारण है पर यह तभी कारण हो सकती है जब इसकी शक्ति किसी मन्त्र आदि प्रतिबन्धकने न रोकी हो तथा धूमोत्पादक सामग्री- गीला ईंधन आदि पूरे रूपसे विद्यमान हो। यदि कारणका अमुक कार्यरूप में परिणमन नियत हो तो प्रत्येक कारण को हेतु बनाया जा सकता था। पर कारण तबतक कार्य उत्पन्न नहीं कर सकता जब तक उसकी सामग्री पूर्ण न हो और शक्ति अप्रतिबद्ध न हो। इसका स्पष्ट अर्थ है कि शक्तिकी अप्रतिबद्धता और सामग्री की पूर्णता जबतक नहीं होगी तबतक अमुक अनुकूल भी कारण अपना अमुक परिणमन नहीं कर सकता। अग्निमें यदि गीला ईंधन डाला जाय तो ही धूम उत्पन्न होगा अन्यथा वह धीरे-धीरे राख बन जायगी । यह बिल्कुल निश्चित नहीं हैं कि उसे उस समय राख बनना ही है या धूम पैदा करना ही है। यह तो अनुकूल सामग्री जुटाने की बात है । जिस परिणमनकी सामग्री जुटेगी वही परिणमन उसका होगा ।
निश्चय और व्यवहार का सम्यग्दर्शन
" यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः " अर्थात् भावशून्य क्रियाएँ सफल नहीं होतीं । यह भाव क्या है जिसके बिना समस्त क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं ? यह भाव है निश्चयदृष्टि । निश्चयनय परनिरपेक्ष आत्मस्वरूपको कहता है । परमवीतरागता पर उसकी दृष्टि रहती है । जो क्रियाएँ इस परमवीतरागता की साधक और पोषक वे ही सफल हैं । पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें बताया है कि "निश्वयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् ।" अर्थात् निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थं । इस भूतार्थता और अभूतार्थताका क्या अर्थ है ? 'जब आत्मामें इस समय राग, द्वेष, मोह आदि भाव उत्पन्न हो रहे हैं, आत्मा इन भावों रूपसे परिणमन कर रहा है, तब परनिरपेक्ष सिद्धवत् स्वरूप के दर्शन उसमें कैसे किए जा सकते हैं ?' यह शंका व्यवहार्य है, और इसका समाधान भी सीधा और स्पष्ट है कि --- प्रत्येक आत्मामें सिद्धके समान अनन्त चैतन्य है, एक भी अविभाग प्रतिच्छेदकी न्यूनता किसी आत्माके चैतन्यमें नहीं है । सबकी आत्मा असंख्यातप्रदेशवाली है, अखण्ड द्रव्य है । मूल द्रव्यदृष्टिसे सभी आत्माओं की स्थिति एक प्रकारकी है । विभाव परिणमनके कारण गुणोंके विकासमें न्यूनाधिकता आ गई है । संसारी आत्माएँ विभाव पर्यायों को धारण कर नानारूपमें परिणत हो रही हैं। इस परिणमनमें मूल द्रव्यकी स्थिति जितनी सत्य और भूतार्थ है उतनी ही उसकी विभावपरिणतिरूप व्यवहार स्थिति भी सत्य और भूतार्थ है । पदार्थपरिणमनकी दृष्टिसे निश्चय और व्यवहार दोनों भूतार्थं और सत्य हैं । निश्चय जहाँ मूल द्रव्यस्वभावको विषय करता है, वहाँ व्यवहार परसापेक्ष पर्यायको विषय करता है, निर्विषय कोई नहीं है । व्यवहारकी अभूतार्थता इतनी ही है कि वह जिन विभाव पर्यायोंको विषय करता है वे विभाव पर्याएँ हेय हैं, उपादेय नहीं, शुद्ध द्रव्यस्वरूप उपादेय है, यही निश्चयकी भूतार्थता है । जिस प्रकार निश्चय द्रव्यके मूल स्वभावको विषय करता है उसी प्रकार शुद्ध सिद्ध पर्याय भी निश्चय का विषय है । तात्पर्य यह कि परनिरपेक्ष द्रव्य स्वरूप और परनिरपेक्ष पर्याएँ निश्चयका विषय हैं और परसापेक्ष परिणमन व्यवहार के विषय हैं । व्यवहारकी अभूतार्थता है जहाँ आत्मा कहता है कि "मैं राजा हूँ, मैं विद्वान् हूं, मैं स्वस्थ हूं, मैं ऊँच हूँ, यह नीच है, मेरा
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ | विशिष्ट निबन्ध : २२१
धर्माधिकार है, इसका धर्माधिकार नहीं है आदि" । तब अर्न्तदृष्टि कहता है कि राजा, विद्वान्, स्वस्थ, ऊँच, नीच आदि बाह्यापेक्ष होनेसे हेय हैं, इन रूप तुम्हारा मलस्वरूप नहीं है, वह तो सिद्धके समान शुद्ध है उसमें न कोई राजा है न रंक, न कोई ऊँच न नीच, न कोई रूपवान् न कुरूपी । उसकी दृष्टिमें सब अखण्ड चैतन्यमय समस्वरूप समानाधिकार है । इस व्यवहारमें अहंकारको उत्पन्न करनेका जो जहर है, भेद खड़ा करनेकी जो कुटेव है, निश्चय उसीको नष्ट करता है और अभेद अर्थात् समत्वकी ओर दृष्टिको ले जाता है और कहता है कि-मूर्ख, क्या सोच रहा है, जिसे तू नीच और तुच्छ समझ रहा है वह भी अनन्त चैतन्यका अखण्ड मौलिक द्रव्य है, परकृत भेदसे तू अहंकारकी सृष्टि कर रहा है और भेदका पोषण कर रहा है, शरीराश्रित ऊँच-नीचभावकी कल्पनासे धर्माधिकार जैसे भीषण अहंकारकी बात बोलता है ? इस अनन्त विभिन्नतामय अहंकारपूर्ण व्यवहारसंसारमें निश्चय ही एक अमृतशलाका है जो दृष्टिमें व्यवहारका भेदविष नहीं चढ़ने देती।
पर ये निश्चयकी चर्चा करने वाले ही जोवनमें अनन्त भेदोंको कायम रखना चाहते हैं । व्यवहारलोपका भय पग-पगपर दिखाते हैं। यदि दस्सा मंदिरमें आकर पूजा कर लेता है तो इन्हें व्यवहारलोपका भय व्याप्त हो जाता है। भाई, व्यवहारका विष दूर करना ही तो निश्चयका कार्य है। जब निश्चयके प्रसारका अवसर आता है तो क्यों व्यवहारलोपसे डरते हो ? कबतक इस हेय व्यवहारसे चिपटे रहोगे और धर्मके नामपर भी अहंकारका पोषण करते रहोगे ? अहंकारके लिए और क्षेत्र पड़े हुए हैं, उन कुक्षेत्रोंमें तो अहंकार कर ही रहे हो? बाह्य विभूतिके प्रदर्शनसे अन्य व्यवहारोंमें दूसरोंसे श्रेष्ठ बनने का अभिमान पुष्ट कर ही लेते हो, इस धर्मक्षेत्रको तो समताकी भूमि बनने दो । धर्मके क्षेत्रको तो धनके प्रभुत्वसे अछूता रहने दो । आखिर यह अहंकारको विषबेल कहाँ तक फैलाओगे ? आज विश्व इस अहंकारकी भीषण ज्वालाओंमें भस्मसात् हुआ जा रहा है। गोरे कालेका अहंकार, हिन्द मुसलमानका अहंकार, धनी निर्धनका अहंकार, सत्ताका अहंकार, ऊँच-नीचका अहंकार, छत-अछुतका अहंकार आदि इस सहस्रजिह व अहंकारनागकी नागदमनी औषधि निश्चय दृष्टि ही है। यह आत्ममात्रको समभूमिपर लाकर उसकी आँखें खोलती हैं किदेखो, मलमें तुम सब कहाँ भिन्न हो? और अन्तिम लक्ष्य भी तुम्हारा वही समस्वरूपस्थिति प्राप्त करना है। तब क्यों बीचके पडावोंमें अहंकारका सर्जन करके उच्चत्वको मिथ्या प्रतिष्ठाके लिए एक दसरेके खनके प्यासे हो रहे हो? धर्मका क्षेत्र तो कमसे कम ऐसा रहने दो जहाँ तुम्हें स्वयं अपनी मूलदशाका भान हो और दूसरे भी उसी समदशाका भान कर सकें । “सम्मोलने नयनयोः न हि किंचिदस्ति"-आँख मदजाने पर यह सब भेद तुम्हारे लिए कुछ नहीं है। परलोकमें तुम्हारे साथ वह अहंकारविष तो चला जायगा पर यह जो भेदसृष्टि कर जाओगे उसका पाप मानवसमाजको भोगना पड़ेगा। यह मूढ़ मानव अपने पुराने पुरुषों द्वारा किये गये पापको भी बापके नामपर पोषता रहना चाहता है । अतः मानवसमाजकी हितकामनासे भी निश्चयदष्टि-आत्मसमत्वकी दृष्टि को ग्रहण करो और पराश्रित व्यवहारको नष्ट करके स्वयं शान्तिलाभ करो और दूसरोंको उसका मार्ग निष्कंटक कर दो।
___ समयसारका सार यही है । कुन्दकुन्दकी आत्मा समयसारके गुणगानसे, उसके ऊपर अर्ध चढ़ानेसे, उसे चांदी सोने में मढ़ानेसे सन्तुष्ट नहीं हो सकती। वह तो समयसारको जोवन में उतारनेसे ही प्रसन्न हो सकती है । यह जातिगत ऊँचनीच भाव, यह धर्मस्थानोंमें किसीका अधिकार किसीका अनधिकार इन सब विषोंका समयसारके अमृतके साथ क्या मेल ? यह निश्चयमिथ्यात्वी निश्चयको उपादेय और भतार्थ तो कहेगा पर जीवन में निश्चयकी उपेक्षाके हो कार्य करेगा, उसकी जड़ खोदने का ही प्रयास करेगा।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
निश्चयनयका वर्णन तो कागजपर लिखकर सामने टाँग लो। जिससे सदा तुम्हें अपने ध्येयका भान रहे । सच पूछो तो भगवान् जिनेन्द्रको प्रतिमा उसी निश्चयनयकी प्रतिकृति है। जो निपट वीतराग होकर हमें आत्ममात्रसत्यता, सर्वात्मसमत्व और परमवीतरागताका पावन सन्देश देती है। पर व्यवहारमढ़ मानव उसका मात्र अभिषेक कर बाह्यपूजा करके ही कर्त्तव्यकी इतिश्री समझ लेता है। उलटे अपने में मिथ्या धर्मात्मत्वके अहंकारका पोषण कर मंदिरमें भी चौका लगानेका दुष्प्रयत्न करता है। 'अमुक मन्दिरमें आ सकता है अमुक नहीं' इन विधिनिषेधोंकी कल्पित अहंकारपोषक दीवारें खड़ी करके धर्म, शास्त्र और परम्पराके नामपर तथा संस्कृतिरक्षाके नामपर सिरफुडौवल और मुकदमेवाजीकी स्थिति उत्पन्न की जाती है और इस तरह रौद्रानन्दी रूपका नग्न प्रदर्शन इन धर्मस्थानों में आये दिन होता रहता है ।
इसी धारणावश निश्चयमढ़ 'मैं सिद्ध हूँ, निर्विकार हूँ, कर्मबन्धनमुक्त हूँ' आदि वर्तमानकालीन प्रयोग करने लगते हैं । और उसका समर्थन उपयुक्त भ्रान्तधारणाके कारण करने लगते हैं। पर कोई भी समझदार आजकी नितान्त अशुद्ध दशामें अपनेको शुद्ध माननेका भ्रान्त साहस भी नहीं कर सकता । यह कहना तो उचित है कि मुझमें सिद्ध होनेकी योग्यता है, मैं सिद्ध हो सकता हूँ, या सिद्धका मल द्रव्य जितने प्रदेशवाला, जितने गुणधर्मवाला है, उतने ही प्रदेशवाला, उतने ही गुणधर्मवाला मेरा भी है । अन्तर इतना ही है कि सिद्धके सब गण निरावरण हैं और मेरे सावरण । इस तरह शक्ति प्रदेश और अविभाग प्रा दृष्टिसे समत्व कहना जुदी बात है । वह समानता तो सिद्धके समान निगोदियासे भी है। पर इससे मात्र द्रव्योंकी मौलिक एकजातीयताका निरूपण होता है न कि वर्तमान कालीन पर्यायका । वर्तमान पर्यायोंमें तो अन्तरं महदन्तरम् है।
इसीतरह निश्चयनय केवल द्रव्यको विषय करता है यह धारणा भी मिथ्या है। वह तो पर निरपेक्ष स्वभावको विषय करनेवाला है चाहे वह द्रव्य हो या पर्याय । सिद्ध पर्याय परनिरपेक्ष स्वभावभूत है, उसे निश्चयनय अवश्य विषय करेगा। जिस प्रकार द्रव्यके मलस्वरूप पर दृष्टि रखनेसे आत्मस्वरूपकी प्रेरणा मिलती है उसी तरह सिद्ध पर्यायपर भी दृष्टि रखनेसे आत्मोन्मुखता होती है। अतः निश्चय और व्यवहारका सम्यग्दर्शन करके हमें निश्चयनयके लक्ष्य-आत्मसमत्वको जीवनव्यवहारमें उतारनेका प्रयत्न करना चाहिए । धर्म-अधर्मकी भी यही कसौटी हो सकती है । जो क्रियाएँ आत्मस्वभावकी साधक हों परमवीतरागता और आत्मसमताकी ओर ले जाय वे धर्म है, शेष अधर्म । परलोक का सम्यग्दर्शन
धर्मक्षेत्र में सब ओरसे 'परलोक सुधारों की आवाज सुनाई देती है। परलोकका अर्थ है मरणोत्तर जीवन । हरएक धर्म यह दावा करता है कि उसके बताए हुए मार्गपर चलनेसे परलोक सुखी और समृद्ध होगा। जैनधर्ममें भी परलोकके सुखोंका मोहक वर्णन मिलता है। स्वर्ग और नरकका सांगोपांग विवेचन सर्वत्र पाया जाता है । संसारमें चार गतियाँ हैं-मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति, नरकगति और देवगति । नरक अत्यन्त दुःखके स्थान हैं और स्वर्ग सांसारिक अभ्युदयके स्थान । इनमें सुधार करना मानवशक्तिके बाहरकी बात है। इनकी जो रचना जहाँ है सदा वैसी रहनेवाली है। स्वर्ग में एक देवको कमसे कम सदायौवना बत्तीस देवियाँ अवश्य मिलती है। शरीर कभी रोगी नहीं होता । खाने-पीनेकी चिन्ता नहीं। सब मनःकामना होते ही समुपस्थित हो जाता है । नरकमें सब दुःख ही दुःखकी सामग्री है।
यह निश्चित है कि एक स्थूल शरीरको छोड़कर आत्मा अन्य स्थूल शरीरको धारण करता है । यही परलोक कहलाता है। मैं यह पहिले विस्तारसे बता आया हूँ कि आत्मा अपने पूर्वशरीरके साथ ही साथ
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २२३
उस पर्यायमें उपाजित किये गए ज्ञान विज्ञान शक्ति आदिको वहीं छोड़ देता है, मात्र कुछ सूक्ष्म संस्कारों के साथ परलोकमें प्रवेश करता है । जिस योनिमें जाता है वहाँके वातावरणके अनुसार विकसित होकर बढ़ता है। अब यह विचारनेकी बात है कि मनुष्यके लिए मरकर उत्पन्न होनेके दो स्थान तो ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य इसी जन्ममें सुधार सकता है, अर्थात् मनुष्य योनि और पश योनि इन दो जन्मस्थानोंके संस्कार और वातावरणको सुधारना तो मनुष्यके हाथमें है ही । अपने स्वार्थकी दृष्टिसे भी आधे परलोकका सुधारना हमारी रचनात्मक प्रवृत्तिकी मर्यादामें है । बीज कितना ही परिपुष्ट क्यों न हो यदि खेत ऊबड़-खाबड़ है, उसमें कास आदि है, सांप, चूहे, छछू दर आदि रहते हैं तो उस बीजकी आधी अच्छाई तो खेतकी खराबी और गन्दे वातावरणसे समाप्त हो जाता है। अतः जिस प्रकार चतुर किसान बीजकी उत्तमत्ताकी चिन्ता करता है उसी प्रकार खेतको जोतने बखरने, उसे जीवजन्तुरहित करने, घास फूस उखाड़ने आदिको भी पूरी-पूरी कोशिश करता ही है, तभी उसकी खेती समृद्ध और आशातीत फलप्रसूत होती है। इसी तरह हमें भी अपने परलोकके मनुष्यसमाज और पशसमाज रूप दो खेतोंको इस योग्य बना लेना चाहिए कि कदाचित् इनमें पुनः शरीर धारण करना पड़ा तो अनुकल सामग्री और सुन्दर वातावरण तो मिल जाय । यदि प्रत्येक मनुष्यको यह दृढ़ प्रतीति हो जाय कि हमारा परलोक यही मनुष्य समाज है और परलोक सुधारनेका अर्थ इसी मानव समाजको सुधारना है तो इस मानवसमाजका नक्शा ही बदल जाय । इसी तरह पशुसमाजके प्रति भी सद्भावना उत्पन्न हो सकती है और उनके खानेपीने रहने आदिका समुचित प्रबन्ध हो सकता है। अमेरिकाकी गाएँ रेडियो सुनती हैं। और सिनेमा देखती हैं। वहाँकी गोशालाएँ यहाँके मानव घोंसलोंसे अधिक स्वच्छ और व्यवस्थित हैं।
परलोक अर्थात् दसरे लोग, परलोकका सुधार अर्थात् दसरे लोगोंका-मानवसमाजका सुधार । जब यह निश्चित है कि मरकर इन्हीं पशुओं और मनुष्योंमें भी जन्म लेनेकी सम्भावना है तो समझदारी और सम्यग्दर्शनकी बात तो यह है कि इस मानव और पश समाजमें आए हुए दोषोंको निकालकर इन्हें निर्दोष बनाया जाय । यदि मनुष्य अपने कुकृत्योंसे मानवजातिमें क्षय, सुजाक, कोढ़, मृगी आदि रोगीको सृष्टि करता है, इसे नीतिभ्रष्ट, आचारविहीन, कलह केन्द्र और शराबखोर आदि बना देता है तो वह कैसे अपने मानव परलोकको सुखी कर सकेगा । आखिर उसे भी इसी नरकभूत समाजमें जन्म लेना पड़ेगा। इसी तरह गाय, भैस आदि पशुओंकी दशा यदि मात्र मनुष्यके ऐहिक स्वार्थके ही आधारपर चली तो उनका कोई सुधार नहीं हो सकता । उनके प्रति सद्भाव हो। यह समझें कि कदाचित् हमें इन योनियोंमें जन्म लेना पड़ा तो यही भोग हमें भोगना पड़ेंगे। जो परम्पराएँ हम इनमें डाल रहे है उन्हींके चक्रमें हमें भी पिसना पड़ेगा। जैसा करोगे वैसा भरोगे, इसका वास्तविक अर्थ यही है कि यदि अपने कुकृत्योंसे इस मानव समाज और पशु समाजको कलंकित करोगे तो परलोकमें कदाचित् इन्हीं समाजोंमें आना पड़ा तो उन अपने कुकृत्योंका भोग भोगना ही पड़ेगा।
मानव समाजका सुख दुःख तत्कालीन समाज व्यवस्थाका परिणाम है। अतः परलोकका सम्यग्दर्शन यही है कि जिस आधे परलोकका सुधार हमारे हाथ में है उसका सुधार ऐसी सर्वोदयकारिणी व्यवस्था करके करें जिससे स्वर्गमें उत्पन्न होनेकी इच्छा ही न हो। यही मानवलोकसे भी अधिक सर्वाभ्युदय कारक बन जाय । हमारे जीवन के असदाचार असंयम कुटेव बीमारी आदि सीधे हमारे वीर्यकणको प्रभावित करते हैं और उससे जन्म लेनेवाली सन्ततिके द्वारा मानवसमाजमें वे सब बीमारियाँ और चरित्रभ्रष्टताएं फैल जाती हैं अतः इनसे परलोक बिगड़ता है । इसका तात्पर्य यही है कि खोटे संस्कार सन्तति द्वारा उस मानवजातिमें घर कर
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ लेते हैं जो मानवजाति कभी हमारा पुनः परलोक बन सकती है। हमारे कुकृत्योंसे नरक बना हुआ यही मानवसमाज हमारे पुनर्जन्मका स्थान हो सकता है । यदि हमारा जीवन मानव-समाज और पशुजातिके सुधार
और उद्धारमें लग जाता है तो नरकमें जन्म लेनेका मौका ही नहीं आ सकता । कदाचित् नरकमें पहुँच भी गए तो अपने पूर्व संस्कारवश नारकियोंको भी सुधारने का प्रयत्न किया जा सकता है । तात्पर्य यह कि हमारा परलोक यही हमसे भिन्न अखिल मनुष्य समाज और पशुजाति हैं जिनका सुधार हमारे परलोकका आधा सुधार है।
दूसरा परलोक है हमारी सन्तति । हमारे इस शरीरसे होनेवाले यावत् सत्कर्म और दुष्कर्मोंके रक्तद्वारा जीवित संस्कार हमारी सन्ततिमें आते हैं। यदि हममें कोढ़, क्षय या सूजाक जैसी संक्रामक बीमारियाँ है तो इसका फल हमारी सन्ततिको भोगना पड़ेगा । असदाचार और शराबखोरी आदिसे होनेवाले पापसंस्कार रक्तद्वारा हमारी सन्ततिमें अंकुरित होंगे तथा बालकके जन्म लेनेके बाद वे पल्लवित पुष्पित और फलित होकर मानवजातिको नरक बनायेंगे । अतः परलोकको सुधारने का अर्थ है सन्ततिको सुधारना और सन्ततिको सुधारनेका अर्थ है अपनेको सुधारना । जब तक हमारी इस प्रकारकी अन्तमुखो दृष्टि न होगी तब तक हम मानव जातिके भावी प्रतिनिधियोंके जीवनमें उन असंख्य काली रेखाओंको अंकित करते जायेंगे जो सीधे हमारे असंयम और पापाचारका फल है।
एक परलोक है-शिष्य परम्परा । जिस प्रकार मनुष्यका पुनर्जन्म रक्तद्वारा अपनी सन्ततिमें होता है उसी तरह विचारों द्वारा मनुष्यका पुनर्जन्म अपने शिष्योंमें या आसपासके लोगोंमें होता है। हमारे जैसे आचारविचार होंगे, स्वभावतः शिष्योंके जीवनमें उनका असर होगा ही। मनुष्य इतना सामाजिक प्राणी है कि वह जान या अनजानमें अपने आसपासके लोगोंको अवश्य ही प्रभावित करता है । बापको बीड़ी पीता देखकर छोटे बच्चोंको झूठे ही लकड़ीकी बीड़ी पीनेका शौक होता है और यह खेल आगे जाकर व्यसनका रूप ले लेता है । शिष्य परिवार मोमका पिंड है। उसे जैसे साँचे में ढाला जायगा ढल जायगा । अतः मनुष्यके ऊपर अपने सुधार-बिगाड़की जबाबदारी तो है ही साथ ही साथ मानव समाजके उत्थान और पतनमें भी उसका साक्षात् और परम्परया खास हाथ है। रक्तजन्य सन्तति तो अपने पुरुषार्थद्वारा कदाचित् पितृजन्य कुसंस्कारोंसे मुक्त भी हो सकती है पर यह विचारसन्तति यदि जहरीलो विचारधारासे बेहोश हुई तो इसे होशमें लाना बड़ा दुष्कर कार्य है । आजका प्रत्येक व्यक्ति इस नूतनपीढ़ी पर ही आँख गड़ाए हुए है। कोई उसे मजहबकी शराब पिलाना चाहता है तो कोई हिन्दुत्वकी, तो कोई जाति की तो कोई अपनी कुल परम्परा की। न जाने कितने प्रकारको विचारधाराओंकी रंग विरंगी शराबें मनुष्यकी दुबुद्धिने तैयार की हैं और अपने वर्गका उच्चत्व, स्वसत्ता स्थायित्व और स्थिर स्वार्थोंकी संरक्षाके लिए विविध प्रकारके धार्मिक सांस्कृतिक सामाजिक और राष्ट्रीय आदि सुन्दर मोहक पात्रोंमें ढाल-ढालकर भोली नतन पीढ़ीको पिलाकर उन्हें स्वरूपच्युत किया जा रहा है। वे इसके नशेमें उस मानवसमत्वाधिकारको भलकर अपने भाइयोंका खून बहानेमें भी नहीं हिचकिचाते । इस मानवसंहारयुगमें पशुओंके सुधार और उनकी सुरक्षाकी बात तो सुनता ही कौन है ? अतः परलोक सुधारके लिए हमें परलोकके सम्यग्दर्शनकी आवश्यकता है। हमें समझना होगा कि हमारा पुरुषार्थ किस प्रकार उस परलोकको सुधार सकता है ।
परलोकमें स्वर्गके सुखादिके लोभसे इस जन्म में कुछ चारित्र या तपश्चरणको करना तो लम्बा व्यापार है। यदि ३२ देवियोंके महासुखकी तीवकामनासे इस जन्ममें एक बूढ़ी स्त्रीको छोड़कर ब्रह्मचर्य धारण किया जाता है तो यह केवल प्रवञ्चना है । न यह चारित्रका सम्यग्दर्शन है और न परलोकका । यह तो कामना
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २२५ का अनुचित पोषण है, कषायकी पूर्तिका दुष्प्रयत्न है । अतः परलोक सम्बन्धी सम्यग्दर्शन साधक के लिए अत्यावश्यक है ।
कर्मसिद्धान्तका सम्यग्दर्शन
जैन सिद्धान्त सर्वग्रासी ईश्वरसे जिस किसी तरह मुक्ति दिलाकर यह घोषणा की थी कि प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है । वह स्वयं अपने भाग्यका विधाता है । अपने कर्मका कर्त्ता और उसके फलका भोक्ता है । परन्तु जिस पक्षीकी चिरकालसे पिंजरे में परतन्त्र रहनेके कारण सहज उड़ने की शक्ति कुण्ठित हो गई है उसे पिंजड़े से बाहर भी निकाल दीजिए तो वह पिंजड़े की ओर ही झपटता है । इसी तरह यह जीव अनादिसे पर - तन्त्र होने के कारण अपने मूल स्वातन्त्र्य - आत्मसमानाधिकारको भूला हुआ है । उसे इसकी याद दिलाते हैं। तो कभी वह भगवान्का नाम लेता है, तो कभी किसी देवी देवताका । और कुछ नहीं तो 'करमगति टाली नाहि ट' का नारा किसीने छीन ही नहीं लिया। 'विधिका विधान' 'भवितव्यता अमिट है' आदि नारे बच्चे से बड़े तक सभीकी जबानपर चढ़े हुए हैं । ईश्वरकी गुलामीसे हटे तो यह कर्म की गुलामी गले आ पड़ी ।
मैंने बन्धत्त्व के विवेचनमें कर्मका स्वरूप विस्तारसे लिखा है । हमारे विचार वचन व्यवहार और शारीरिक क्रियाओंके संस्कार हमारी आत्मापर प्रतिक्षण पड़ते हैं और उन संस्कारोंको प्रबोध देनेवाले पुद्गल स्कन्ध आत्मासे सम्बन्धको प्राप्त हो जाते हैं । आजका किया हुआ हमारा कर्म कल दैव बन जाता है । पुराकृत कर्मको ही दैव विधि भाग्य आदि शब्दोंसे कहते हैं । जो कर्म हमने किया है, जिसे हमने बोया है। उसे चाहें तो दूसरे क्षण ही उखाड़कर फेंक सकते हैं । हमारे हाथमें कर्मोंकी सत्ता है । उनकी उदीरणासमयसे पहिले उदयमें लाकर झड़ा देना, संक्रमण- साताको असाता और असाताको साता बना देना, उत्कर्षणस्थिति और फल देनेकी शक्ति में वृद्धि कर देना, अपकर्षण- स्थिति और फलदानशक्ति ह्रास कर देना, उपशम - उदयमें न आने देना, क्षय - नाश करना, उद्वेलन - क्षयोपशम आदि विविध दशायें हमारे पुरुषार्थं के अधीन हैं । अमुक कोई कर्म बँधा इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह वज्रलेप हो गया । बँधने के बाद भी हमारे अच्छे-बुरे विचार और प्रवृत्तियोंसे उसकी अवस्था में सैकड़ों प्रकारके परिवर्तन होते रहते हैं। हाँ, कुछ कर्म ऐसे जरूर बँध जाते हैं जिन्हें टालना कठिन होता है उनका फल उसी रूपमें भोगना पड़ता है । पर ऐसा कर्म सौ में एक ही शायद होता है ।
सीधी सी बात है - पुराना संस्कार और पुरानी वासना हमारे द्वारा ही उत्पन्न को गई थी । यदि आज हमारे आचार-व्यवहारमें शुद्धि आती है तो पुराने संस्कार धीरे-धीरे या एक ही झटके में समाप्त हो ही जायेंगे । यह तो बलाबलकी बात है । यदि आजकी तैयारी अच्छी है तो प्राचीनको नष्ट किया जा सकता है, यदि कमजोरी है तो पुराने संस्कार अपना प्रभाव दिखायेंगे ही। ऐसी स्वतन्त्र स्थिति में 'कर्मगति टाली नाहीं टलै” जैसे क्लीबविचारोंका क्या स्थान है ? ये विचार तो उस समय शान्ति देनेके लिए हैं जब पुरुषार्थ करनेपर भी कोई प्रबल आघात आ जावे, उस समय सान्त्वना और सांस लेनेके लिए इनका उपयोग है । कर्म बलवान् था, पुरुषार्थ उतना प्रबल नहीं हो सका अतः फिर पुरुषार्थ कीजिए । जो अवश्यंभावी बातें हैं। उनके द्वारा कर्मी गतिको अटल बताना उचित नहीं है । एक शरीर धारण किया है, समयानुसार वह जीर्ण शीर्ण होगा ही । अब यहाँ यह कहना कि 'कितना भी पुरुषार्थं कर लो मृत्युसे बच नहीं सकते और इसलिए कर्मगति अटल है' वस्तुस्वरूपके अज्ञानका फल है । जब वह किंचित्काल स्थायी पर्याय है तो आगे पीछे उसे जीर्ण शीर्ण होना ही पड़ेगा । इसमें पुरुषार्थं इतना ही है कि यदि युक्त आहार-विहार और संयमपूर्वक चला जायगा तो जिन्दगी लम्बी और सुखपूर्वक चलेगी। यदि असदाचार और असंयम करोगे तो शरीर क्षय आदि रोगों
४-२९
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ का घर होकर जल्दी क्षीण हो जायगा । इसमें कर्मको क्या अटलता है ? यदि कर्म वस्तुतः अटल होता तो ज्ञानी जीव त्रिगुप्ति आदि साधनाओं द्वारा उसे क्षणभरमें काटकर सिद्ध नहीं हो सकेंगे। पर इस आशयकी पुरुषार्थप्रवण घोषणाएँ मूलतः शास्त्रों में मिलती ही हैं।
स्पष्ट बात है कि कर्म हमारी क्रियाओं और विचारोंके परिणाम है। प्रतिकल विचारोंके द्वारा पूर्वसंस्कार हटाए जा सकते हैं। कर्मकी दशाओं में विविध परिवर्तन जीवके भावोंके अनसार प्रतिक्षण होते ही
YS
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २२७
रास्ते में पड़ा हुआ एक पत्थर सैकड़ों जीवोंके सैकड़ों प्रकारके परिणमनमें तत्काल निमित्त बन जाता है, इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उस पत्थर को उत्पन्न करने में उन सैकड़ों जीवोंके पुण्य-पापने कोई कार्य किया है । संसारके पदार्थों की उत्पत्ति अपने-अपने कारणोंसे होती है। उत्पन्न पदार्थ एक दूसरेकी साता असाताके लिए कारण हो जाते हैं। एक ही पदार्थ समयभेदसे एकजीव या नानाजीवोंके राग-द्वेष और उपेक्षाका निमित्त होता रहता है। किसीका कालिक रूप सदा एकसा नहीं रहता। अतः कर्मका सम्यग्दर्शन करके हमें अपने पुरुषार्थको पहिचान कर स्वात्मदृष्टि हो तदनुकूल सत्पुरुषार्थमें लगना चाहिए। वही पुरुषार्थ सत् है जो आत्मस्वरूप का साधक हो और आत्माधिकारकी मर्यादाको न लाँघता हो।
संसारके अनन्त अचेतन पदार्थोंका परिणमन यद्यपि उनकी उपादान योग्यताके अनुसार होता है पर उनका विकास पुरुष निमित्तसे अत्यधिक प्रभावित होता है । प्रत्येक परमाणुमें पुद्गलकी वे सब शक्तियाँ हैं जो किसी भी एक पुद्गलाण द्रव्यमें हो सकती हैं अतः उपादान योग्यताकी कमी तो किसी में भी नहीं है । रह जाती है पर्याययोग्यता, सो पर्याययोग्यता, परिणमनोंके अनुसार बदल जायगी। रेत पर्यायसे मामूली कुम्हार आदि निमित्तोंसे घटरूप परिणमनका विकास नहीं हो सकता जैसे कि मिट्टीका हो जाता है पर काँचकी भट्टीमें या चीनी मिट्टीके कारखाने में उसी रेत पर्यायका कांचके घड़े रूपसे और चीनी मिट्टीके घड़े रूपसे स्थिरतर सुन्दर परिणमन विकसित हो जाता है। अचेतन पदार्थोके परिणमन जैसे स्वतः बुद्धिशन्य होनेके कारण संयोगाधीन हैं वैसे चेतन पदार्थोके परिणमन मात्र संयोगाधीन ही नहीं है । जबतक यह आत्मा परतन्त्र है तबतक उसे कुछ संयोगाधीन परिणमन करना भी पड़ते हों फिर भी वह उन संयोगोंसे मुक्त होकर उन परिणमनोंसे मुक्ति पा सकते हैं । चेतन अपनी स्वशक्तिकी तरतमताके अनुसार अपने परिणमनोंमें स्वाधीन बन सकता है । उसमें कर्म अर्थात् हमारे पुराने संस्कार तभी तक बाधक हो सकते हैं जबतक हम अपने प्रयोगों द्वारा उनपर विजय नहीं पा लेते । उन पुराने संस्कार और विकारोंसे जो पुद्गलद्रव्य हमारी आत्मासे बँधा था, उसको अपनी स्वतः सामर्थ्य कुछ नहीं है उसे बल तो हमारे संस्कार और हमारी वासनाओंसे ही प्राप्त होता है। .
___ इसके सम्बन्धमें सांख्यकारिकामें बहुत उपयुक्त दृष्टान्त वेश्या का दिया है। जिस प्रकार वेश्या हमारी वासनाओंका बल पाकर ही हमें नानाप्रकारसे नचाती है, हम उसके इशारेपर चलते हैं, उसे ही अपना सर्वस्व मानते है, चमते हैं, चाँटते हैं, जैसा वह कहती है वैसा करते हैं। पर जिस समय हम स्वयं वासनानिर्मुक्त होकर स्वरूपदर्शी होते हैं उस समय वेश्या का बल समाप्त हो जाता है और वह हमारी गुलाम होकर हमें रिझानेकी चेष्टा करती है, पुनः वासना जाग्रत करने का प्रयत्न करती है। यदि हम पक्के रहे तो वह स्वयं असफल प्रयत्न होकर हमें छोड़ देती है, और समझती है कि अब इनपर रंग नहीं जम सकता । यही हालत कर्मपुद्गलकी है। वह तो हमारी वासनाओंका बल पाकर ही सस्पन्द होता है। बंधा भी हमारी वासनाओंके कारण ही था और छूटेगा या निःसार होगा तो हमारी वासनानिर्मुक्त परिणतिसे ही। कर्मका बल हमारी वासना है और वह यदि निर्बल होगा तो हमारी वीतरागतासे ही । शास्त्रोंमें मोहनीयको कर्मोंका राजा कहा है और ममकार तथा अहंकारको मोहराजका मन्त्री। मोह अर्थात् मिथ्यादर्शन, राग और द्वेष । बाह्य पदार्थों में ये 'मेरे हैं' इस ममकारसे तथा 'मैं ज्ञानी हूँ" 'रूपवान्' हूँ इत्यादि अहंकारसे राग द्वेषकी सृष्टि होती है और मोहराज की सेना तैयार हो जाती है। जिस समय इस मोहराजका पतन हो जाता है उस समय सेना अपने आप निऊर्य होकर तितर-बितर हो जाती है । साथ रह गया इन कुभावोंके साथ बँधने वाला पुद्गल । सो वह तो विचारा पर द्रव्य है । वह यदि आत्मामें पड़ा भी रहा तो भी हानिकारक नहीं। सिद्धशिलापर भी सिद्धोंके पास अनन्त पुद्गलाणु पड़े होंगे पर वे उनमें रागादि उत्पन्न नहीं कर सकते
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ क्योंकि उनमें भीतरसे वे कुभाव नहीं है । अतः मोहनीयके नष्ट होते ही, वीतरागता आते ही वह बँधा हुआ द्रव्य भी झड़ जायगा, या न भी झड़ा वहाँ ही बना रहा तो भी उसमें जो कर्मपना आया है वह समाप्त हो जायगा, वह मात्र पुद्गलपिंड रह जायगा । कर्मपना तो हमारी ही वासनासे उममें आया था सो समाप्त हो जायगा। "करम विचारे कौन, भल मेरी अधिकाई। अग्नि सहे घनघात लोहकी संगति पाई।" यह स्तुति हम रोज पढ़ते हैं । इसमें कर्मशास्त्रका सारा तत्त्व भरा हुआ है । तात्पर्य यह कि-कर्म हमारी लगाई हुई खेती है उसे हमीं सींचते हैं । चाहें तो उसे निर्जीव कर दें, चाहें तो सजीव । पर पुरानी परतन्त्रता के कारण आत्मा इतना निर्बल हो गया है कि उसकी अपनी कोई आवाज ही नहीं रह गई है । आत्मामें जितना सम्यग्दर्शन और स्वरूप-स्थितिका बल आयगा उतना ही वह सबल होगा और पुरानी वासनाएँ समाप्त होती जायगीं। इस तरह कर्मके यथार्थ रूपको समझ कर हमें अपनी शक्तिको पहिचान करनी चाहिए और उन सद्गुणों और सत्प्रवृतियोंका संवर्धन तथा पोषण करना चाहिए जिससे पुरानी कुवासनाएँ नष्ट होकर वोतराग चिन्मय स्वरूपको पुनः प्रतिष्ठा हो । शास्त्रका सम्यग्दर्शन
वैदिक परम्परा और जैनपरम्परामें महत्त्वका मौलिक भेद यह है कि वैदिक परम्परा धर्म-अधर्मव्यवस्थाके लिए वेदोंको प्रमाण मानती है जब कि जैन परम्पराने वेद या किसी शास्त्रकी केवल शास्त्र होने के हो कारण प्रमाणता स्वीकार नहीं की है। धर्म-अधर्मकी व्यवस्थाके लिए पुरुषके तत्त्वज्ञानमूलक अनुभवको प्रमाण माना है । वैदिक परम्परामें स्पष्ट घोषणा कि-'धर्मे चोदनैव प्रमाणम्' अर्थात् धर्मव्यवस्थामें अन्तिम प्रमाण वेद है। इसीलिए वेदपक्षवादी मीमांसकने पुरुषको सर्वज्ञतासे ही इनकार कर दिया है। वह धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों के सिवाय अन्य पदार्थोंका यथासंभव प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे ज्ञान मानता है, पर धर्मका ज्ञान वेदके ही द्वारा मानता है। जब कि जैन परम्परा प्रारम्भसे ही वीतरागी पुरुषके तत्त्वज्ञानमूलक वचनोंको धर्मादिमें प्रमाण मानती आई है। इसीलिए इस परम्परामें पुरुषकी सर्वज्ञता स्वीकृत हुई है। इस विवेचनसे इतना स्पष्ट है कि कोई भी शास्त्र मात्र शास्त्र होनेके कारण ही जैन परम्पराको स्वीकार्य नहीं हो सकता जब तक कि उसके वीतराग-यथार्थवेदिप्रणीतत्वका निश्चय न हो जाय । साक्षात् सर्वज्ञकृतत्वके निश्चय या सर्वज्ञप्रणीत मल-परम्परागतत्वके निश्चयके बिना कोई भी शास्त्र धर्मके विषयमें प्रमाणकोटिमे उपस्थित नहीं किया जा सकता।
वेदकी गुलामीको जैन तत्त्वज्ञानियोंने हमारे ऊपरसे उतारकर हमें पुरुषानुभवमलक पौरुषेय वचनोंको परीक्षापूर्वक माननेकी राय दी है । पर शास्त्रों के नामपर अनेक मूल परम्परामें अनिर्दिष्ट विषयोंके संग्राहक भी शास्त्र तैयार हो गये हैं । अतः हमें यह विवेक तो करना ही होगा कि इस शास्त्रके द्वारा प्रतिपाद्य विषय मल अहिंसापरम्परासे मेल खाते हैं या नहीं ? अथवा तत्कालीन ब्राह्मणधर्मके प्रभावसे प्रभावित हुए हैं। श्री पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारने ग्रन्थपरीक्षाके तीन भागोंमें अनेक ऐसे ही ग्रन्थोंको आलोचना की है जो उमास्वामी और पूज्यपाद जैसे युगनिर्माता आचार्योंके नामपर बनाए गए हैं। जिस जन्मना जातिव्यवस्थाका जैन संस्कृतिने अस्वीकार किया था कुछ पुराणग्रन्थोंमें वही अनेक संस्कार और परिकरोंके साथ विराजमान हैं । जैनसंस्कृति बाह्य आडम्बरोंसे शन्य अध्यात्म-अहिंसक संस्कृति है। उसमें प्राणिमात्रका अधिकार है। ब्राह्मणधर्ममें धर्मका उच्चाधिकारी ब्राह्मण है जब कि जैन संस्कृतिने धर्मका प्रत्येक द्वार मानवमात्रके लिए उम्मक्त रखा है। किसी भी जातिका किसी भी वर्णका मानव धर्मके उच्च स्तर तक बिना किसी रुकावटके पहुँच सकता है । पर कालक्रमसे यह संस्कृति ब्राह्मणधर्मसे पराभत हो गई है और इसमें ही वर्णव्यवस्था और
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २२९
जातिगत उच्चनीच भाव आदि शामिल हो गये हैं। तर्पण श्राद्ध उपाध्यायप्रथा आदि इसमें भी प्रचलित हुए हैं। यज्ञोपवीतादि संस्कारोंने जोर पकड़ा है। दक्षिणमें तो जैन और ब्राह्मणमें फर्क करना भी कठिन हो गया है । तदनुसार ही अनेक ग्रन्थोंकी रचनाएँ हई और सभी शास्त्रके नामपर प्रचलित हैं। त्रिवर्णाचार और चर्चासागर जैसे ग्रन्थ भी शास्त्रके खाते में खतयाए हए हैं। शासन देवताओंकी पूजा प्रतिष्ठा दायभाग आदिके शास्त्र भी बने हैं। कहनेका तात्पर्य यह कि मात्र शास्त्र होने के कारण ही हर एक पुस्तक प्रमाण और ग्राह्य नहीं कही जा सकती। अनेक टीकाकारोंने भी मूलग्रन्थका अभिप्राय समझनेमें भूलें की हैं । अस्तु ।
___ हमें यह तो मानना ही होगा कि शास्त्र पुरुषकृत हैं। यद्यपि वे महापुरुष विशिष्ट ज्ञानी और लोक कल्याणकी सद्भावनावाले थे पर क्षायोपशमिकज्ञानवश या परम्परावश मतभेदकी गुंजायश तो हो ही सकती है। ऐसे अनेक मतभेद गोम्मटसार आदिमें स्वयं उल्लिखित हैं। अतः शास्त्र विषयक सम्यग्दर्शन भी प्राप्त करना होगा कि शास्त्रमें किस युगमें किस पात्रके लिए किस विवक्षासे क्या बात लिखी गई है ? उनका ऐतिहासिक पर्यवेक्षण भी करना होगा। दर्शनशास्त्रके ग्रन्थोंमें खण्डन मण्डनके प्रसंगमें तत्कालीन या पूर्वकालीन ग्रन्थोंका परस्परमें आदान-प्रदान पर्याप्त रूपसे हआ है। अतः आत्म-संशोधकको जैन संस्कृतिको शास्त्र विषयक दृष्टि भी प्राप्त करनी होगी । हमारे यहाँ गुणकृत प्रमाणता है । गुणवान् वक्ताके द्वारा कहा गया वह शास्त्र जिसमें हमारी मलधारासे विरोध न आता हो, प्रमाण है।
इसीतरह हमें मन्दिर, संस्था, समाज, शरीर, जीवन, विवाह आदिका सम्यग्दर्शन करके सभी प्रवृत्तियोंकी पुनः रचना आत्मसमत्वके आधारसे करनी चाहिए तभी मानव जातिका कल्याण और व्यक्तिकी मुक्ति हो सकेगी। तत्त्वाधिगम के उपाय
"ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इष्यते।
नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥" -लघीय० अकलंकदेवने लघीयस्त्रय स्ववृत्तिमें बताया है कि जोवादि तत्त्वोंका सर्वप्रथम निक्षेपोंके द्वारा न्यास करना चाहिए, तभी प्रमाण और नयसे उनका यथावत् सम्यग्ज्ञान होता है । ज्ञान प्रमाण होता है । आत्मादि
उपाय न्यास है। ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं। प्रमाण और नय ज्ञानात्मक उपाय हैं और निक्षेप वस्तुरूप है। इसीलिए निक्षेपोंमें नययोजना कषायपाहुडणि आदिमें की गई है कि अमुक नय अमुक निक्षेपको विषय करता है।
निक्षेप-निक्षेपका अर्थ है रखना अर्थात् वस्तुका विश्लेषण कर उसकी स्थितिकी जितने प्रकारकी संभावनाएं हो सकती हैं उनको सामने रखना। जैसे 'राजाको बलाओ' यहाँ राजा और बलाना इन दो पदोंका अर्थबोध करना है। राजा अनेक प्रकारके होते हैं यथा 'राजा' इस शब्दको भी राजा कहते हैं, पट्टीपर लिखे हुए 'राजा' इन अक्षरोंको भी राजा कहते हैं, जिस व्यक्तिका नाम राजा है उसे भी राजा कहते हैं, राजाके चित्रको या मूर्तिको भी राजा कहते हैं, शतरंजके मुहरोंमें भी एक राजा होता है, जो आगे राजा होनेवाला है उसे भी लोग आजसे ही राजा कहने लगते हैं, राजाके ज्ञानको भी राजा कहते हैं, जो वर्तमानमें शासनाधिकारी है उसे भी राजा कहते हैं । अतः हमें कौन राजा विवक्षित है ? बच्चा यदि राजा मांगता है तो उस समय किस राजाकी आवश्यकता होगी, शतरंज के समय कौन राजा अपेक्षित होता है । अनेक प्रकारके राजाओंसे अप्रस्तुतका निराकरण करके विवक्षित राजाका ज्ञान करा देना निक्षेपका प्रयोजन
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
है। राजाविषयक संशयका निराकरण कर विवक्षित राजाविषयक यथार्थबोध करा देना ही निक्षेपका कार्य है। इसी तरह बुलाना भी अनेक प्रकारका होता है । तो 'राजाको बुलाओ' इस वाक्यमें जो वर्तमान शासनाधिकारी है वह भावराजा विवक्षित है, न शब्दराजा, न ज्ञानराजा, न लिपिराजा, न मूर्ति राजा, न भावीराजा आदि । पुरानी परम्परामें अपने विवक्षित अर्थका सटीक ज्ञान करानेके लिए प्रत्येक शब्दके संभावित वाच्यार्थोंको सामने रखकर उनका विश्लेषण करने की परिपाटी थी। आगमोंमें प्रत्येक शब्दका निक्षेप किया गया है । यहाँ तक कि 'शेष' शब्द और 'च' शब्द भी निक्षेप विधिमें भुलाये नहीं गये हैं। शब्द, ज्ञान और अर्थ तीन प्रकारसे व्यवहार चलते हैं। कहीं शब्दव्यवहारसे कार्य चलता है तो कहीं ज्ञानसे, तो कहीं अर्थसे । बच्चे को डराने के लिए शेर शब्द पर्याप्त है। शेरका ध्यान करने के लिए शेरका ज्ञान भी पर्याप्त है। पर सरकसमें तो शेर पदार्थ ही चिघाड़ सकता है ।
विवेचनीय पदार्थ जितने प्रकारका हो सकता है उतने सब संभावित प्रकार सामने रखकर अप्रस्तुतका निराकरण करके विवक्षित पदार्थको पकड़ना निक्षेप है। तत्वार्थसूत्रकारने इस निक्षेपको चार भागोंमें बाँटा है-शब्दात्मक व्यवहारका प्रयोजक नामनिक्षेप है, इसमें वस्तुमें उस प्रकारके गुण, जाति, क्रिया आदिका होना आवश्यक नहीं है जैसा उसे नाम दिया जा रहा है। किसी अन्धेका नाम भी नयनसुख हो सकता है और किसी सूखकर काँटा हुए दुर्बल व्यक्तिको भी महावीर कहा जा सकता है। ज्ञानात्मक व्यवहारका प्रयोजक स्थापना निक्षेप है। इस निक्षेपमें ज्ञानके द्वारा तदाकार या अतदाकारमें विवक्षित वस्तुकी स्थापना कर ली जाती है और संकेत ज्ञानके द्वारा उसका बोध करा दिया जाता है । अर्थात्मक निक्षेप द्रव्य और भावरूप होता है । जो पर्याय आगे होनेवाली है उसमें योग्यताके बलपर आज भी वह व्यवहार करना अथवा जो पर्याय हो चुकी है उसका व्यवहार वर्तमानमें भी करना द्रव्यनिक्षेप है जैसे युवराजको राजा कहना और राजपदका जिसने त्याग कर दिया है उसको भी राजा कहना। वर्तमानमें उस पर्यायवाले व्यक्तिमें ही वह व्यवहार करना भावनिक्षेप है, जैसे सिंहासन स्थित शासनाधिकारीको राजा कहना। आगमोंमें द्रव्य, क्षेत्र, काल आदिको मिलाकर यथासंभव पाँच, छह और सात निक्षेप भी उपलब्ध होते हैं परन्तु इस निक्षेपका प्रयोजन इतना ही है कि शिष्यको अपने विवक्षित पदार्थका ठीक-ठीक ज्ञान हो जाय । धवला टीकामें (पृ० ३१) निक्षेपके प्रयोजनोंका संग्रह करनेवाली यह प्राचीन गाथा उद्धृत है
"अवगयनिवारणठं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च ।
संसयविणासणठं तच्चत्थवधारणटठं च ॥" अर्थात-अप्रकृतका निराकरण करने के लिए, प्रकृतका निरूपण करनेके लिए, संशयका विनाश करनेके लिए और तत्त्वार्थका निर्णय करने के लिए निक्षेपकी उपयोगिता है।
प्रमाण. नय और स्याद्वाद-निक्षेप विधिसे वस्तुको फैलाकर अर्थात् उसका विश्लेषण कर प्रमाण और नयके द्वारा उसका अधिगम करनेका क्रम शास्त्रसम्मत और व्यवहारोपयोगी है। ज्ञानको गति दो प्रकारसे वस्तुको जाननेकी होती है। एक तो अमुक अंशके द्वारा पूरी वस्तुको जाननेकी और दूसरी उसी अमुक अंशको जाननेकी । जब ज्ञान पूरी वस्तुको ग्रहण करता है तब वह प्रमाण कहा जाता है तथा जब वह एक अंशको जानता है तब नय । पर्वतके एक भागके द्वारा पूरे पर्वतका अखण्ड भावसे ज्ञान प्रमाण है और उसी अंशका शान नय है । सिद्धान्तमें प्रमाणको सकलादेशी तथा नयको विकलादेशी कहा है उसका यही तात्पर्य है कि प्रमाण ज्ञात वस्तुभागके द्वारा सकल वस्तुको ही ग्रहण करता है जब कि नय उसी विकल अर्थात एक अंशको
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २३१
ही ग्रहण करता है । जैसे आँखसे घटके रूपको देखकर रूपमुखेन पूर्ण घटका ग्रहण करना सकलादेश है और घटमें रूप है इस रूपांशको जानना विकलादेश अर्थात् नय है । अनन्तधर्मात्मक वस्तुका यावत् विशेषोंके साथ
ग्रहण करना तो अल्पज्ञानियोंके वशकी बात नहीं है वह तो पूर्ण ज्ञानका कार्य हो सकता है। पर प्रमाणज्ञान तो अल्पज्ञानियोंका भी कहा जाता है । अतः प्रमाण और नयकी भेदक रेखा यही है कि जब ज्ञान अखंड वस्तु पर दष्टि रखे तब प्रमाण तथा जब अंशपर दष्टि रखे तब नय । वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों प्रकारके धर्म पाए जाते हैं। प्रमाण ज्ञान सामान्यविशेषात्मक पूर्ण वस्तुको ग्रहण करता है जब कि नय केवल सामान्य अंशको या विशेष अंशको । यद्यपि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप वस्तु नहीं है पर नय वस्तुको अंशभेद करके ग्रहण करता है । वक्ताके अभिप्रायविशेषको ही नय कहते हैं । नय जब विवक्षित अंशको ग्रहण करके भी इतर अंशोंका निराकरण नहीं करता उनके प्रति तटस्थ रहता है तब सुनय कहलाता है और जब वही एक अंशका आग्रह करके दूसरे अंशोंका निराकरण करने लगता है तब दुर्नय कहलाता है।
नय-विचार व्यवहार साधारणतया तीन भागोंमें बांटे जा सकते हैं-१-ज्ञानाश्रयी, २-अर्थाश्रयी ३-शब्दाश्रयी। अनेक ग्राम्य व्यवहार या लौकिक व्यवहार संकल्पके आधारसे हो चलते हैं। जैसे रोटी बनाने या कपड़ा बुननेकी तैयारीके समय रोटी बनाता हूँ, कपड़ा बुनता हूँ, इत्यादि व्यवहारोंमें संकल्पमात्रमें ही रोटी या कपड़ा व्यवहार किया गया है । इसी प्रकार अनेक प्रकारके औपचारिक व्यवहार अपने ज्ञान या संकल्पके अनुसार हुआ करते हैं । दूसरे प्रकारके व्यवहार अर्थाश्रयी होते है-अर्थ में एक ओर एक नित्य व्यापी और सन्मात्ररूपसे चरम अभेद की कल्पना की जा सकती है तो दूसरी ओर क्षणिकत्व, परमाणुत्व और निरंशत्वकी दष्टिले अन्तिम भेद की। इन दोनों अन्तोंके बीच अनेक अवान्तर भेद और अभेदोंका स्थान है । अभेद कोटि
औपनिषद अद्वैतवादियों की है । दूसरी कोटि वस्तुकी सूक्ष्मतम वर्तमानक्षणवर्ती अर्थपर्यायके ऊपर दृष्टि रखनेवाले क्षणिकनिरंश-परमाणवादी बौद्धों की है। तीसरी कोटिमें पदार्थको अनेक प्रकारसे व्यवहारमें लानेवाले नैयायिक वैशेषिक आदि दर्शन है। तीसरे प्रकारके शब्दाश्रित व्यवहारोंमें भिन्न कालवाचक, भिन्न कारकोंमें निष्पन्न, भिन्न वचनवाले, भिन्न पर्यायवाले और विभिन्न क्रियावाचक शब्द एक अर्थको या अर्थकी एक पर्यायको नहीं कह सकते । शब्दभेदसे अर्थभेद होना ही चाहिए। इस तरह इन ज्ञान, अर्थ और शब्दका आश्रय लेकर होनेवाले विचारोंके समन्वयके लिए नयदष्टियोंका उपयोग है।
___ इसमें संकल्पाधीन यावत् ज्ञानाश्रित व्यवहारोंके ग्राहक नैगमनयको संकल्पमात्रग्राही बताया है। तत्त्वार्थभाष्यमें अनेक ग्राम्य व्यवहारोंका तथा औपचारिक लोकव्यवहारोंका स्थान इसी नयकी विषयमर्यादा में निश्चित किया है।
__ आ० सिद्धसेनने अभेदग्राही नैगमका संग्रहनयमें तथा भेदग्राही नैगमका व्यवहार नयमें अन्तर्भाव किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे नैगमको संकल्पमात्रग्राही मानकर अर्थग्राही स्वीकार करते हैं। अकलंकदेवने यद्यपि राजवार्तिकमें पूज्यपादका अनुसरण करके नैगमनयको संकल्पमात्रग्राही लिखा है फिर भी लघीयस्त्रय ( का० ३९ ) में उन्होंने नैगमनयको अर्थ के भेदको या अभेदको ग्रहण करनेवाला भी बताया है। इसीलिए इन्होंने स्पष्ट रूपसे नैगम आदि ऋजुसुत्रान्न चार नयोंको अर्यनय माना है।
अर्थाश्रित अभेदव्यवहारका, जो "आत्मैवेदं सर्वम्" आदि उपनिषद्वाक्योंसे व्यक्त होता है, परसंग्रहनयमें अन्तर्भाव होता है। यहाँ एक बात विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है कि जेनदर्शनमें दो या अधिक द्रव्योंमें अनस्युत सत्ता रखनेवाला कोई सत् नामका सामान्यपदार्थ नहीं है। अनेक द्रव्योंका सद्रपसे जो संग्रह किया जाता है वह सत्सादृश्यके निमित्तसे ही किया जाता है न कि सदेकत्वकी दृष्टिसे । हाँ, सदेकत्वको दृष्टि
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
से प्रत्येक सत्की अपनी क्रमवर्ती पर्यायोंका और सहभावी गुणोंका अवश्य संग्रह हो सकता है, पर दो सत्में अनुस्यूत कोई एक सत्त्व नहीं है । इस परसंग्रहके आगे तथा एक परमाणुकी वर्तमानकालीन एक अर्थपर्यायसे पहिले होनेवाले यावत् मध्यवर्ती भेदोंका व्यवहारनयमें समावेश होता है । इन अवान्तर भेदोंको न्यायवैशेषिक आदि दर्शन ग्रहण करते हैं । अर्थको अन्तिम देशकोटि परमाणुरूपता तथा चरमकालकोटि क्षणमात्रस्थापिताको ग्रहण करनेवाली बौद्ध दृष्टि ऋजुसूत्रको परिधिमें आती है । यहाँतक अर्थको सामने रखकर भेद तथा अभेद ग्रहण करनेवाले अभिप्राय बताये गये हैं । इसके आगे शब्दाश्रित विचारोंका निरूपण किया जाता है ।
काल, कारक, संख्या धातुके साथ लगनेवाले भिन्न-भिन्न उपसर्ग आदिकी दृष्टिसे प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंके वाच्य अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं, इस कालादिभेदसे शब्दभेद मानकर अर्थभेद माननेवाली दृष्टिका शब्दनयमें समावेश होता है । एक ही साधनमें निष्पन्न तथा एक कालवाचक भो अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं; इन पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेद माननेवाला समभिरूढनय है । एवम्भूतनय कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रियामें परिणत हो उसी समय उसमें तत्क्रियासे निष्पन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिए । इसकी दृष्टिसे सभी शब्द क्रियावाची हैं। गुणवाचक शुक्लशब्द भी शुचिभवनरूप क्रियासे, जातिवाचक अश्वशब्द आशुगमनरूप क्रियासे, क्रियावाचक चलति शब्द चलनेरूप क्रियासे, नामवाचक यदृच्छाशब्द देवदत्त आदि भी 'देवने इसको दिया' इस क्रियासे निष्पन्न हुए हैं। इस तरह ज्ञान, अर्थ और शब्दको आश्रय लेकर होनेवाले ज्ञाताके अभिप्रायोंका समन्वय इन नयोंमें किया गया है। यह समन्वय एक खास शर्त पर हुआ हैं । वह शर्त यह है कि कोई भी दृष्टि या अभिप्राय अपने प्रतिपक्षी अभिप्रायका निराकरण नहीं कर सकेगा । इतना हो सकता है कि जहाँ एक अभिप्रायकी मुख्यता रहे वहाँ दूसरा अभिप्राय गौण हो जाय । यही सापेक्षभाव नयका प्राण हैं, इसीसे नय सुनय कहलाता है । आ० समन्तभद्र आदिने सापेक्षको सुनय तथा निरपेक्षको दुर्नय बतलाया है ।
इस संक्षिप्त कथनमें सूक्ष्मतासे देखा जाय तो दो प्रकारकी दृष्टियाँ ही मुख्यरूपसे कार्य करती हैं। एक अभेददृष्टि और दूसरी भेददृष्टि । इन दृष्टियोंका अवलम्बन चाहे ज्ञान हो या अर्थ अथवा शब्द, पर कल्पना भेद या अभेद दो ही रूपसे की जा सकती है। उस कल्पनाका प्रकार चाहे कालिक, दैशिक या स्वारूपिक कुछ भी क्यों न हो। इन दो मूल आधारभूत दृष्टियोंको द्रव्यनय और पर्यायनय कहते हैं। अभेदको ग्रहण करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है तथा भेदग्राही पर्यायार्थिकनय है । इन्हें मूलनय कहते हैं, क्योंकि समस्त नयों के मूल आधार यही दो नय होते हैं । नैगमादिनय तो इन्हींको शाखा प्रशाखाएँ हैं । द्रव्यास्तिक, मातृका - पदास्तिक, निश्चयनय, शुद्धनय आदि शब्द द्रव्यार्थिकके अर्थ में तथा उत्पन्नास्तिक, पर्यायास्तिक, व्यवहारनय, अशुद्ध आदि पर्यायार्थिकके अर्थ में व्यवहृत होते हैं ।
इन नयोंमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं अल्पविषयता है । नैगमनय संकल्पग्राही होनेसे सत् असत् दोनों को विषय करता था इसलिए सन्मात्रग्राही संग्रहनय उससे सूक्ष्म एवं अल्पविषयक होता है । सन्मात्रग्राही संग्रह - नयसे सद्विशेषग्राही व्यवहार अल्पविषयक एवं सूक्ष्म हुआ । त्रिकालवर्ती सद्विशेषग्राही व्यवहारनयसे वर्तमानकालीन सद्विशेष अर्थ पर्यायग्राही ऋजुसूत्र सूक्ष्म है । शब्दभेद होनेपर भी अभिन्नार्थं ग्राही ऋजुसूत्र से कालादि भेदसे शब्दभेद मानकर भिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाला शब्दनय सूक्ष्म है। पर्यायभेद होनेपर भी अभिन्न अर्थ - को ग्रहण करनेवाले शब्दनयसे पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेदग्राही समभिरूढ़ अल्पविषयक एवं सूक्ष्मतर हुआ । क्रियाभेदसे अर्थभेद नहीं माननेवाले समभिरूढ़ से क्रियाभेद होनेपर भी अर्थभेदग्राही एवम्भूतनय परमसूक्ष्म एवं अत्यल्पविषयक है ।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २३३
नय-दुर्नय-नय वस्तुके एक अंशको ग्रहण करके भी अन्य धर्मोंका निराकरण नहीं करता उन्हें गौण करता है। दुर्नय अन्यधर्मोंका निराकरण करता है। नय साक्षेप होता है दुर्नय निरपेक्ष । प्रमाण उभयधर्मग्राही हैं। अकलङ्कदेवने बहुत सुन्दर लिखा है-"धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलक्षणत्वात् प्रमाणनयदुर्नयानां प्रकारान्तरासंभवाच्च, प्रमाणात तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेः तत्प्रतिपत्तेः तदन्यनिराकृतेश्च" ( अष्टाश० अष्टसह० पृ० २९० ) अर्थात् प्रमाण तत् और अतत् सभी अंशोंसे पूर्ण वस्तुको जानता है, नयसे केवल तत्विवक्षित अंशकी प्रतिपत्ति होती है और दुर्नय अपने अविषय अंशोंका निराकरण करता है। नय धर्मान्तरोंकी उपेक्षा करता है जबकि दुर्नय धर्मान्तरोंकी हानि अर्थात निराकरण करनेकी दृष्टता करता है। प्रमाण सकलादेशी और नय विकलादेशी होता है। यद्यपि दोनोंका कथन शब्दसे होता है फिर भी दृष्टिभेद होनेसे यह अन्तर हो जाता है। यथा, 'स्यादस्ति घटः' यह वाक्य जब सकलादेशी होगा तब अस्तिके द्वारा पूर्ण वस्तुको ग्रहण कर लेगा । जब यह विकालदेशी होगा तब अस्तिको मुख्यतया शेषधर्मोको गौण करेगा । विकलादेशी नय विवक्षित एक धर्मको मुख्यरूपसे तथा शेषको गौणरूपसे ग्रहण करते हैं जबकि सकलादेशी प्रमाणका प्रत्येक वाक्य पूर्ण वस्तुको समानभावसे ग्रहण करता है। सकलादेशी वाक्योंमें भिन्नताका कारण है-शब्दोच्चारणकी मुख्यता। जिस प्रकार एक पूरे चौकोण कागजको क्रमशः चारों कोने पकड़कर पूराका पूरा उठाया जा सकता है उसी प्रकार अनन्तधर्मा वस्तुके किसी भी धर्म के द्वारा पुरीकी पूरी वस्तु ग्रहण की जा सकती है। इसमें वाक्योंमें परस्पर भिन्नता इतनी ही है कि उस धर्म के द्वारा या तद्वाचक शब्दप्रयोग करके वस्तुको ग्रहण कर रहे हैं । इसी शब्दप्रयोगकी मुख्यता से प्रमाणसप्तभंगीका प्रत्येक वाक्य भिन्न हो जाता है। नयसप्तभंगीमें एक धर्मप्रधान होता है तथा अन्यधर्म गौण । इसमें मुख्यधर्म ही गृहीत होता है, शेषका निराकरण तो नहीं होता पर ग्रहण भी नहीं होता। यही सकलादेश और विकलादेशका पार्थक्य है । 'स्यात्' शब्दका प्रयोग दोनोंमें होता है । सकलादेशमें प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द यह बताता है कि जैसे अस्तिमुखेन सकल वस्तुका ग्रहण किया गया है वैसे 'नास्ति' आदि अनन्त मुखोंसे भी ग्रहण हो सकता है। विकलादेशका स्यात् शब्द विवक्षित धर्मके अतिरिक्त अन्य शेष धर्मोंका वस्तुमें अस्तित्व सूचित करता है।
स्याद्वाद का कथन प्रस्तुत स्मृति ग्रन्थ के खण्ड ४ में पृष्ठ ८२, ८३, ८४ में दिया चुका है ।
संजयने जब लोकके शाश्वत और अशाश्वत आदिके बारेमें स्पष्ट कह दिया कि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ और बुद्धने कह दिया कि इनके चक्करमें न पड़ो, इसका जानना उपयोगी नहीं है, तब महावीरने उन प्रश्नोंका वस्तुस्थितिके अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और शिष्योंको जिज्ञासा का समाधान कर उनकी बौद्धिक दीनतासे त्राण दिया। इन प्रश्नोंका विस्तृत स्वरूप विवेचन प्रस्तुत स्मृति ग्रन्थके इसी खण्ड के पृष्ठ ९० से ९६ पर दिया जा चुका है ।
सदादि अनुयोग-प्रमाण और नयके द्वारा जाने गए तथा निक्षेपके द्वारा अनेक संभवित रूपोंमें सामने रखे गए पदार्थोसे ही तत्त्वज्ञानोपयोगी प्रकृत अर्थका यथार्थ बोध हो सकता है। उन निक्षेपके विषयभत पदार्थों में दृढ़ताकी परीक्षाके लिए या पदार्थ के अन्य विविध रूपोंके परिज्ञानके लिए अनुयोग अर्थात अनुकल प्रश्न या पश्चाद्भावी प्रश्न होते हैं । जिनसे प्रकृत पदार्थकी वास्तविक अवस्थाका पता लग जाता है। प्रमाण और नय सामान्यतया तत्त्वका ज्ञान कराते हैं। निक्षेप विधिसे अप्रकृतका निराकरण कर प्रस्तुतको छांट लिया जाता है। फिर छंटी हुई प्रस्तुत वस्तुका निर्देशादि और सदादि द्वारा सविवरण पूरी अवस्थाओंका ज्ञान किया जाता है । निक्षेपसे छंटी हुई वस्तुका क्या नाम है ? ( निर्देश) कौन उसका स्वामी है ? (स्वामित्व) कैसे उत्पन्न होती है ? ( साधन ) कहाँ रहती है ? ( अधिकरण ), कितने काल तक रहती है ?
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
( स्थिति ) कितने प्रकारकी है ? ( विधान ), उसकी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिसे क्या स्थिति है । अस्तित्वका ज्ञान 'सत्' है । उसके भेदोंकी गिनती संख्या है । वर्तमान निवास क्षेत्र है । त्रैकालिक निवासपरिधि स्पर्शन है | ठहरनेकी मर्यादा काल है । अमुक अवस्थाको छोड़कर पुनः उस अवस्थामें प्राप्त होने तक के विरहकालको अन्तर कहते । औपशमिक आदि भाव । परस्पर संख्याकृत तारतम्यका विचार अल्पबहुत्व है । सारांश यह कि निक्षिप्त पदार्थका निर्देशादि और सदादि अनुयोगों के द्वारा यथावत् सविवरण ज्ञान प्राप्त करना मुमुक्षुकी अहिंसा आदि साधनाओंके लिए आवश्यक है । जीवरक्षा करनेके लिए जीवकी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिकी दृष्टिसे परिपूर्ण स्थितिका ज्ञान अहिंसकको जरूरी ही है ।
इस तरह प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा तत्त्वोंका यथार्थ अधिगम करके उनकी दृढ़ प्रतीति और अहिंसादि चारित्रको परिपूर्णता होनेपर यह आत्मा बन्धनमुक्त होकर स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना है । यही मुक्ति है ।
"श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः
1
परीक्ष्य तांस्तान् तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान् ॥ ७३ ॥ नयानुगत निक्षेपैरुपायैर्भेदवेदने
1
श्रुतापितान् ॥ ५४ ॥ निर्देशादिभिदां गतैः ।
विरचय्यार्थ वाक्प्रत्ययात्मभेदान् अनुयुज्यानुयोगैश्च द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्धाभिनिवेशनः ॥ ७५ ॥ जीवस्थान गुणस्थानमार्गणास्थानतत्त्ववित् 1 तपोनिर्जीणकर्मायं विमुक्तः सुखमृच्छति ॥ ७६ ॥
अर्थात् - अनेकान्तरूप जीवादि पदार्थोंको श्रुत-शास्त्रोंसे सुनकर प्रमाण और अनेक नयोंके द्वारा उनका यथार्थं परिज्ञान करना चाहिए। उन पदार्थोंके अनेक व्यावहारिक और पारमार्थिक गुण-धर्मोकी परीक्षा नय दृष्टियोंसे की जाती है । नयदृष्टियों के विषयभूत निक्षेपों के द्वारा वस्तुका अर्थ ज्ञान और शब्द आदि रूपसे विश्लेषण कर उसे फैलाकर उनमेंसे अप्रकृतको छोड़ प्रकृतको ग्रहण कर अंशका निर्देश आदि अनुयोगोंसे अच्छी तरह बारबार पूछकर सविवरण इस तरह जीवादि पदार्थोंका खासकर आत्मतत्त्वका जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा स्थानोंमें दृढ़तर ज्ञान करके उनपर गाढ़ विश्वास रूप सम्यग्दर्शनकी वृद्धि करनी चाहिए । इस तत्त्वश्रद्धा और तत्त्वज्ञान के होनेपर परपदार्थोंसे विरक्ति इच्छानिरोवरूप तप और चारित्र आदि समस्त कुसंस्कारों का विनाश कर पूर्व कर्मोंकी निर्जरा कर, यह आत्मा विमुक्त होकर अनन्त चैतन्यमय स्वस्वरूपमें प्रतिष्ठित हो जाता है ।
लेना चाहिए। पूर्णज्ञान प्राप्त
ग्रन्थका बाह्य स्वरूप
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैनपरस्परा की गीता, बाइबिल, कुरान या जो कहिए एक पवित्र ग्रन्थ है । इसमें बन्धनमुक्तिके कारणोंका सांगोपांग विवेचन है। जैनत्रमं और जैनदर्शनके समस्त मूल आधारोंकी संक्षिप्त सूचना इस सूत्र ग्रन्थसे मिल जाती है । भ० महावीरके उपदेश अर्धमागधी भाषामें होते थे जो उस समय मगध और विहारकी जनबोली थी । शास्त्रों में बताया है कि यह अर्धमागधी भाषा अठारह महाभाषा और सातसौ लघुभाषाओंके शब्दोंसे समृद्ध थी । एक कहावत है- "कोस कोस पर पानी बदले चारकोस पर पर बानी ।" सो यदि मगध देश काशीदेश और विहार देशमें चार-चार कोसपर बदलनेवाली बोलियोंकी वास्तविक गणना की जाय तो वे ७१८ से कहीं अधिक हो सकती होंगीं । अठारह महाभाषाएँ मुख्य-मुख्य अठारह जन
उस छँटे हुए प्रकृत कर लेना चाहिए ।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २३५
पदोंकी राजभाषाएँ कही जाती थीं। इनमें नाममात्रका हो अन्तर था । क्षुल्लकभाषाओंका अन्तर तो उच्चारण की टोनका ही समझना चाहिए। जो हो, पर महावीरका उपदेश उस समयको लोकभाषामें होता था जिसमें संस्कृत जैसी वर्गभाषाका कोई स्थान नहीं था। बुद्धको पालीभाषा और महावीरको अर्धमागधी भाषा करीबकरीब एक जैसी भाषाएं हैं। इनमें वहो चारकोसकी बानी वाला भेद है । अर्धमागधीको सर्वार्धमागधी भाषा भी कहते है और इसका विवेचन करते हुए लिखा है
“अर्धं भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकम् अर्धं च सर्वदेशभाषात्मकम्" अर्थात्-भगवान्की भाषामें आधे शब्द तो मगध देशकी भाषा मागधीके थे और आधे शब्द सभी देशोंकी भाषाओंके थे । तात्पर्य यह कि अर्धमागधी भाषा वह लोकभाषा थी जिसे प्रायः सभी देशके लोग समझ सकते थे। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि महावीरकी जन्मभूमि मगध देश थी, अतः मागधी उनकी मातृभाषा थी और उन्हें अपना विश्वशान्तिका अहिंसा सन्देश सब देशोंकी कोटि-कोटि उपेक्षित और पतित जनता तक भेजना था अतः उनको बोलीमें सभी देशोंकी बोलीके शब्द शामिल थे और यह भाषा उस समयकी सर्वाधिक जनताकी अपनी बोली थी अर्थात् सबकी बोली थी। जनबोलीमें उपदेश देनेका कारण बतानेवाला एक प्राचीन श्लोक मिलता है
"बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां न्दणां चारित्र्यकांक्षिणाम् ।
प्रतिबोधनाय तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ।।" अर्थात-बालक, स्त्री या मर्खसे मर्ख लोगोंको, जो अपने चारित्र्यको समन्नत करना चाहते हैं, प्रतिबोध देनेके लिए भगवान्का उपदेश प्राकृत अर्थात् स्वाभाविक जनबोलीमें होता था न कि संस्कृत अर्थात् बनी हुई बोली-कृत्रिम वर्गभाषामें । इन जनबोलीके उपदेशोंका संकलन 'आगम' कहा जाता है। इसका बड़ा विस्तार था । उस समय लेखनका प्रचार नहीं हुआ था। सब उपदेश कण्ठपरम्परा से सुरक्षित रहते थे। एक दूसरेसे सुनकर इनकी धारा चलती थी अतः ये 'श्रत' कहे जाते थे । महावीरके निर्वाणके बाद यह श्रुत परम्परा लुप्त होने लगी और ६८३ वर्ष बाद एक अंगका पूर्ण ज्ञान भी शेष न रहा। अंगके एक देशका ज्ञान रहा । श्वेताम्बर परम्परामें बौद्ध संगीतियोंकी तरह वाचनाएँ हुईं और अन्तिम वाचना देवधिगणि क्षमाश्रमणके तत्त्वावधानमें वीर संवत् ९८० वि० सं० ५१० में वलभीमें हुई। इसमें आगमोंका त्रुटित-अत्रुटित जो रूप उपलब्ध था संकलित हुआ। दिगम्बर परम्परामें ऐसा कोई प्रयत्न हुआ या नहीं इसकी कुछ भी जानकारी नहीं है । दिगम्बर परम्परामें विक्रमकी द्वितीय-तृतीय शताब्दीमें आचार्य भतबलि, पुष्पदन्त और गुणधरने षट्खंडागम और कसायपाहुडकी रचना आगमाश्रित साहित्यके आधारसे की। पीछे कुन्दकुन्द आदि आचार्योंने आगम परम्पराको केन्द्रमें रखकर तदनुसार स्वतन्त्र ग्रन्थ रचना की।
अनुमान है कि विक्रमकी तीसरी-चौथी शताब्दीमें उमास्वामी भट्टारकने इस तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की थी । इसीसे जैन परम्परामें संस्कृतग्रन्थनिर्माणयुग प्रारम्भ होता है । इस तत्त्वार्थसूत्रकी रचना इतने मूलभूत तत्त्वोंको संग्रह करनेकी असाम्प्रदायिक दृष्टिसे हुई है कि इसे दोनों जैन सम्प्रदाय थोड़े बहुत पाठभेदसे प्रमाण मानते आए है । श्वे० परम्परामें जो पाठ प्रचलित है उसमें और दिगम्बर पाठ में कोई विशिष्ट साम्प्रदायिक मतभेद नहीं है। दोनों परम्पराओंके आचार्योंने इसपर दशों टीका ग्रन्थ लिखे हैं । इस सूत्र ग्रन्थको दोनों परम्पराओंमें एकता स्थापना का मल आधार बनाया जा सकता है।
इसे मोक्षशास्त्र भी कहते हैं क्योंकि इसमें मोक्षके मार्ग और तदुपयोगी जीवादि तत्त्वोंका ही सविस्तार निरूपण है । इसमें दश अध्याय है । प्रथमके चार अध्यायोंमें जीवका, पांचवें में अजीव का, छठवें और
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
सातवें अध्यायमें आस्रवका, आठवें अध्यायमें बन्धका, नौवें में संवरका तथा दशवें अध्यायमें मोक्षका वर्णन है। प्रथम अध्यायमें मोक्षकामार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको बताकर जीवादि सात तत्त्वोंके अधिगमके उपाय प्रमाण, नय, निक्षेप और निर्देशादि सदादि अनुयोगोंका वर्णन है । पाँच ज्ञान उनका विषय आदिका निरूपण करके उनमें प्रत्यक्ष, परोक्ष विभाग उनका सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और नयोंका विवेचन, किया गया है । द्वितीय अध्यायमें जीवके औपशमिक आदि भाव, जीवका लक्षण, शरीर, इन्द्रियाँ, योनि, जन्म आदिका सविस्तार निरूपण है। तृतीय अध्यायमें जीवके निवासभूत-अधोलोक और मध्यलोक गत भूगोलका उसके निवासियोंकी आयु कायस्थिति आदिका पूरा-पूरा वर्णन है। चौथे अध्यायमें ऊर्ध्वलोकका, देवोंके भेद, लेश्याएँ, आयु, काय, परिवार आदिका वर्णन है । पांचवें अध्यायमें अजीवतत्त्व अर्थात पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश, और काल द्रव्योंका समग्र वर्णन है । द्रव्योंकी प्रदेश संख्या, उनके उपकार, शब्दादिका पुद्गल पर्यायत्व, स्कन्ध बननेको प्रक्रिया आदि पुद्गल द्रव्यका सर्वांगीण विवेचन है। छठवें अध्यायमें ज्ञानावरणादि कर्मोंके आस्रवका सविस्तार निरूपण है । किन-किन वृत्तियों और प्रवृत्तियोंसे किस-किस कर्मका आस्रव होता है, कैसे आस्रवमें विशेषता होती है, कौन कर्म पुण्य है, और कौन पाप आदिका विशद विवेचन है । सातवें अध्यायमें शुभ आस्रवके कारण, पुण्यरूप अहिंसादि व्रतोंका वर्णन है। इसमें व्रतोंकी भावनाएँ उनके लक्षण, अतिचार आदिका स्वरूप बताया गया है । आठवें अध्यायमें प्रकृतिबन्ध आदि चारों बन्धोंका, कर्मप्रकृतियोंका उनकी स्थिति आदिका निरूपण है। नौवें अध्याय में संवर तत्त्वका पूरा-पूरा निरूपण है । इसमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा परिषड्जय, चारित्र, तप, ध्यान आदिका सभेदप्रभेद निरूपण है । दशवें अध्यायमें मोक्षका वर्णन है। सिद्धोंमें भेद किन निमितोंसे हो सकता है । जीव ऊध्वंगमन क्यों करता है ? सिद्ध अवस्था में कौन-कौन भाव अवशिष्ट रह जाते हैं आदिका निरूपण है।
यह अकेला तत्त्वार्थसूत्र जैन ज्ञान, जैन भूगोल, खगोल, जैनतत्त्व, कर्मसिद्धान्त, जैन चारित्र आदि समस्त मुख्य-मुख्य विषयोंका अपूर्व आकर है।
मंगल श्लोक-'मोक्षमार्गस्य नेतारम् श्लोक तत्त्वार्थसूत्रका मंगल श्लोक है या नहीं यह विषय विवादमें पड़ा हुआ है। यह श्लोक उमास्वामि कर्तृक है इसका स्पष्ट उल्लेख श्रुतसागरसूरिने तत्त्वार्थवत्तिमें किया है । वे इसकी उत्थानिकामें लिखते हैं कि-द्वैयाक नामक भव्यके प्रश्नका उत्तर देनेके लिए उमास्वामि भट्टारकने यह मंगल श्लोक बनाया । द्वैयाकका प्रश्न है-'भगवन् , आत्माका हित क्या है ?' उमास्वामी उसका उत्तर 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' सूत्र में देते हैं। पर उन्हें उत्तर देनेके पहिले मंगलाचरण करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। श्र तसागरके पहिले विद्यानन्दि आचार्यने आप्तपरीक्षा ( पृ० ३ ) में भी इस श्लोकको सूत्रकारके नामसे उद्धृत किया है। पर यही विद्यानन्द 'तत्त्वार्थसूत्रकारैः उमास्वामिप्रभृतिभिः' जैसे वाक्य भी आप्त परीक्षा (पृ० ५४) में लिखते हैं जो उमास्वामिके साथ ही साथ प्रभूति शब्दसे सूचित होनेवाले आचार्यों को भी तत्त्वार्यसूत्रकार माननेका या सूत्र शब्दको गौणार्थताका प्रसंग उपस्थित करते हैं । यद्यपि अभयनन्दि श्रुतसागर जैसे पश्चाद्वर्ती ग्रन्थकारोंने इस श्लोकको तत्त्वार्थसत्रका मंगल लिख दिया है पर इनके इस लेखमें निम्नलिखित अनुपपत्तियां हैं जो इस श्लोकको पूज्यपाद को सर्वार्थ सिद्धिका मंगल श्लोक माननेको बाध्य करती है
१-पूज्यपादने इस मंगलश्लोककी न तो उत्थानिका लिखी और न व्याख्या की। इस मंगलश्लोकके बाद ही प्रथमसूत्रकी उत्थानिका शुरू होती है।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २३७ २-अकलंकदेव तत्त्वार्थवातिकमें न इस श्लोककी व्याख्या करते हैं और न इसके पदोंपर कुछ ऊहापोह ही करते हैं।
३-विद्यानन्द स्वयं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें इसकी व्याख्या नहीं करते । इनने प्रसंगतः इस श्लोकके प्रतिपाद्य अर्थका समर्थन अवश्य किया है । यदि विद्यानन्द स्वयं ऐतिहासिक दृष्टिसे इसके कर्तृत्वके सम्बन्धमें असंदिग्ध होते तो वे इसकी यथावद व्याख्या भी करते ।।
४ तत्त्वार्थसूत्रके व्याख्याकार समस्त श्वेताम्बरीय आचार्योंने इस श्लोककी व्याख्या नहीं की और न तत्त्वार्थसूत्रके प्रारम्भमें इस श्लोककी चर्चा ही की है।
यह श्लोक इतना असाम्प्रदायिक और जैन आप्त स्वरूपका प्रतिनिधित्व करनेवाला है कि इसे सूत्रकारकृत होनेपर कोई भी कितना भी कट्टर श्वे. आचार्य छोड़ नहीं सकता था।
अनेकान्त पत्रके पांचवें वर्ष के अंकोंमें इस श्लोकके ऊपर अनुकूल-प्रतिकूल चरचा चल चुकी है । फिर भी मेरा मत उपर्युक्त कारणोंके आधारसे इस श्लोकको मूलसूत्रकारकृत माननेका नहीं है। यह श्लोक पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि टोकाके प्रारम्भमें बनाया है इस निश्चयको बदलनेका कोई प्रबल हेतु अभीतक मेरी समझमें नहीं आया।
लोकवर्णन और भूगोल-जैनधर्म और जैनदर्शन जिस प्रकार अपने सिद्धान्तोंके स्वतन्त्र प्रतिपादक होनेसे अपना मौलिक और स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं उस प्रकार जैन गणित या जैन भूगोल आदिका स्वतन्त्र स्थान नहीं है । कोई भी गणित हो, वह दो और दो चार हो कहेगा। आजके भूगोलको चाहे जैन लिखें या अजैन जैसा देखेगा या सुनेगा वैसा ही लिखेगा । उत्तरमें हिमालय और दक्षिणमें कन्याकुमारी ही जैन भूगोल में रहेगी । तथ्य यह है कि धर्म और दर्शन जहाँ अनुभवके आधारपर परिवर्तित और संशोधित होते रहते हैं वहाँ भूगोल अनुभवके अनुसार नहीं किन्तु वस्तुगत परिवर्तनके अनुसार बदलता है। एक नदी जो पहिले अमुक गाँवसे बहती थी कालक्रमसे उसकी धारा मीलों दूर चली जाती है । भूकम्प, ज्वालामुखी और बाढ़ आदि प्राकृतिक परिवर्तनकारणोंसे भूगोलमें इतने बड़े परिवर्तन हो जाते हैं जिसकी कल्पना भी मनुष्यको नहीं हो सकती। हिमालयके अमुक भागोंमें मगर और बड़ी-बड़ी मछलियोंके अस्थि-पंजरोंका मिलना इस बातका अनुमापक है कि वहाँ कभी जलीय भाग था। पुरातत्त्वके अन्वेषणोंने ध्वंसावशेषोंसे यह सिद्ध कर दिया है कि भूगोल कभी स्थिर नहीं रहता वह कालक्रमसे बदलता जाता है। राज्य परिवर्तन भी अन्तःभौगिलिक सीमाओंको बदलने में कारण होते हैं। पर समग्र भूगोलका परिवर्तन मुख्यतया जलका स्थल और स्थलका जलभाग होनेके कारण ही होता है । गाँवों और नदियोंके नाम भी उत्तरोत्तर अपभ्रष्ट होते जाते हैं और कुछके कुछ बन जाते हैं । इस तरह कालचक्रका ध्रुवभावी प्रभाव भूगोलका परिवर्तन बराबर करता रहता है। जैन शास्त्रोंमें जो भगोल और खगोलका वर्णन मिलता है उसकी परम्परा करीब तीन हजार वर्ष पुरानी है । आजके भगोलसे उसका मेल भले ही न बैठे पर इतने मात्रसे उस परम्पराकी स्थिति सर्वथा सन्दिग्ध नहीं कही जा सकती। आजसे २।।-३ हजार वर्ष पहिले सभी सम्प्रदायोंमें भूगोल और खगोलके
यमें प्रायः यही परम्परा प्रचलित थी जो जैन परम्परामें प्रचलित थी जो जैन परम्परामें निबद्ध है। बौद्ध, वैदिक और जैन तीनों परम्पराके भूगोल और खगोल सम्बन्धी वर्णन करीब-करीब एक जैसे हैं। वही जम्बूद्वीप, विदेह, सुमेरु, देवकुरु, उत्तरकुरु, हिमवान् आदि नाम और वैसीही लाखों योजनकी गिनती । इनका तुलनात्मक अध्ययन हमें इस निष्कर्षपर पहुँचाता है कि उस समय भूगोल और खगोलकी जो परम्परा श्रु तानुश्रुत परिपाटीसे जैनाचार्योंको मिली उसे उन्होंने लिपिबद्ध कर दिया है। उस समय भगोलका यही रूप रहा
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति-ग्रन्थ
होगा जैसा कि हमें प्रायः भारतीय परम्पराओं में मिलता है। आज हमें जिस रूपमें मिलता है उसे उसी रूपमें माननेमें क्या आपत्ति है ? भूगोलका रूप सदा शाश्वत तो रहता नहीं । जैन परम्परा इस ग्रन्थके तीसरे और चौथे अध्याय के पढ़नेसे ज्ञात हो सकती है । बौद्ध और वैदिक परम्पराके भूगोल और खगोलका वर्णन इस प्रकार है
बौद्ध परम्परा अभिधर्मकोशके आधार से
असंख्यात वायुमण्डल हैं जो कि नीचेके भागमें सोलह लाख योजन गम्भीर है । जयमण्डल ११२०००० योजन गहरा है । जयमण्डलमें ऊपर ८००००० योजन भागको छोड़कर नीचे का भाग ३२०००० योजन भाग सुवर्णमय है । जलमण्डल और काञ्चनमण्डलका व्यास १२०२३४० योजन है और परिधि ३६४०३५० योजन है ।
वितनक और निमिन्धर ये
काञ्चनमण्डलमें मेरु, युगन्धर, ईषाधर, खदिरक्, सुदर्शन, अश्वकर्ण, ८ पर्वत हैं । ये पर्वत एक दूसरेको घेरे हुए हैं । निमिन्वर पर्वतको घेरकर जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, अवरगोदानी और उत्तरकुरु ये चार द्वीप हैं । सबसे बाहर चक्रवाल पर्वत हैं । सात पर्वत सुवर्णमय हैं । चक्रवाल लोहमय है । मेरुके ४ रंग हैं । उत्तरमें सुवर्णमय, पूर्व में रजतमय, दक्षिणमें नीलमणिमय और पश्चिममें वैदूर्यमय है । मेरु पर्वत ८०००० योजन जलके नीचे है और इतना ही जलके ऊपर है । मेरु पर्वतकी ऊँचाईसे अन्य पर्वतों की ऊँचाई क्रमशः आधी-आधी होती गई है। इस प्रकार चक्रवाल पर्वतकी ऊँचाई ३१२ ।। योजन है । सब पर्वतों का आधा भाग जलके ऊपर है । इन पर्वतोंके बीच में सात सीता ( समुद्र ) हैं । प्रथम समुद्रका विस्तार ८०००० योजन है। अन्य समुद्रोंका विस्तार क्रमशः आधा-आधा होता गया है । अन्तिम समुद्रका विस्तार ३२०००० योजन है ।
मेरु दक्षिण भाग में जम्बूद्वीप शकटके समान अवस्थित है । मेरुके पूर्व भागमें पूर्वविदेह अर्धचन्द्राकार है । मेरुके पश्चिम भागमें अवरगोदानीय मण्डलाकार है । इसको परिधि ७५०० योजन है । और व्यास २५०० योजन है । मेरुके उत्तरभागमें उत्तर कुरुद्वीप चतुष्कोण है । इसकी सीमाका मान ८००० योजन है । चारों द्वीपों के मध्य में आठ अन्तर द्वीप हैं । उनके नाम ये हैं-देह, विदेह, पूर्वविदेह, कुरु कौरव, चामर अवर चामर, शाठ और उत्तरमंत्री । मार द्वीपमें राक्षस रहते हैं । आन्य द्वीपों में मनुष्य रहते हैं ।
जम्बूद्वीप के उत्तर भागमें पहले तीन फिर तीन और फिर तीन इस प्रकार ९ कीटाद्रि हैं। इसके बाद हिमालय है । हिमालय के उत्तर में पचास योजन विस्तृत अनवतप्त नामका सरोवर है । इसके बाद गन्धमादन पर्वत है । अनवतप्त सरोवर में गंगा, सिंधु, वक्षु और सीता ये चार नदियाँ निकली । अनवतप्त के समीपमें जम्बूवृक्ष है जिससे इस द्वीपका नाम जम्बूद्वीप पड़ा ।
जम्बूद्वीप के नीचे बीस योजन परिमाण अवीचि नरक है। इसके बाद प्रतापन, तपन, महारौरव रौरव, संघात, कालसूत्र और संजीवक - ये सात नरक हैं । इस प्रकार कुल आठ नरक हैं । नरकोंमें चारों पाश्वोंमें असिपत्रवन, श्यामशबलश्वस्थान, अयः शाल्मलीवन और वैतरणी नदी ये चार उत्सद ( अधिक पीड़ाके स्थान ) हैं। जम्बूद्वीपके अधोभाग में तथा महानरकोंके धरातल में आठ शीतलनरक भी हैं। उनके नाम निम्न प्रकार हैं-अर्बुद, निरर्बुद, अटट, हहव, उत्पलपद्म और महापद्म ।
मेरु पर्वत अधोभाग में ( अर्थात् युगन्धर पर्वत के समतल में ) चन्द्रमा और सूर्य भ्रमण करते हैं । चन्द्रमण्डलका विस्तार ५० योजन है तथा सूर्यमण्डलका विस्तार ५१ योजन है । चारों द्वीपोंमें एक साथ ही
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २३९ अर्धरात्रि, सूर्यास्त, मध्याह्न और सूर्योदय होते हैं, अर्थात् जिस समय जम्बूद्वीपमें मध्याह्न होता है उसी समय उत्तरकुरुमें अर्धरात्रि, पूर्वविदेहमें सूर्यास्त और अवरगोदानीयमें सूर्योदय होता है । चन्द्रमाकी विकलांगताका दर्शन सूर्य के समीप होनेसे तथा अपनी छायासे आवृत्त होनेके कारण होता है।
मेरुके चार विभाग हैं । ये चारों विभाग क्रमशः दस हजार योजनके अन्तरालसे ऊपर हैं । पूर्वमें पहिले विभागमें करोटपाणि यक्ष रहते हैं । इनका राजा धृतराष्ट्र है । दक्षिणमें द्वितीय भागमें मालाधर यक्ष रहते हैं। इनका राजा विरुढक है। पश्चिममें तीसरे भागमें सदामद देव रहते हैं। इनका राजा विरूपाक्ष है। उत्तरमें चौथे भागमें चातुर्महाराजिक देव रहते हैं। इनका राजा वैश्रवण है। मेरुके समान अन्य सात पर्वतोंमें भी देव रहते हैं।
प्रायस्त्रिश स्वर्गलोकका विस्तार ८०००० योजन है। वहाँ चारों दिशाओंके बीच में वज्रपाणिदेव रहते हैं । त्रास्त्रिशलोकके मध्यभागमें सुदर्शन नामका सुवर्णमय नगर है । इस नगरके मध्यमें वैजयन्त नामका इन्द्रका प्रासाद है । यह नगर बाह्य भागमें चार उद्यानोंसे सुशोभित है। इन उद्यानोंको चारों दिशाओंमें बीस योजनके अन्तरालसे देवोंके क्रीड़ास्थल हैं। पूर्वोत्तर दिग्भागमें पारिजात देवद्रुम हैं । दक्षिण-पश्चिम भागमें सुधर्मा नामकी देव सभा है । त्रायस्त्रिश लोकसे ऊपर याम, तुषित, निर्माणरति, और परनिमितवशवर्ती देव विमानोंमें रहते हैं। महाराजिक और त्रायस्त्रिशदेव मनुष्योंके समान कामसेवन करते हैं। याम आलिंगनसे, तुषित पाणिसंयोगसे, निर्माणरति हास्यसे और परनिर्मितवशवर्ती देव अवलोकनसे कामसूखका अनुभव करते हैं । कामधातुमें देव पाँच या दस वर्षके बालक जैसे उत्पन्न होते हैं। रूपधातुमें पूर्ण शरीरधारी और वस्त्र सहित उत्पन्न होते हैं । ऋद्धिबल अथवा अन्य देवोंकी सहायताके बिना देव अपने ऊपर देवलोकको नहीं देख सकते ।
जम्बूद्वीपवासी मनुष्योंका परिमाण ( शरीरकी ऊँचाई ) ३॥ या ४ हाथ है । पूर्वविदेहवासी मनष्यों का परिणाम ७ या ८ हाथ है। गोदानीयवासियोंका परिमाण १४ या १६ हाथ है। और उत्तर कुरुवासी मनुष्योंका परिमाण २८ या ३२ हाथ है। चातुर्महाराजिक देवोंका परिमाण पावकोश, त्रायस्त्रिशदेवोंका आधाकोश, यामोंका पौनकोश, तुषितोंका एक कोश, निर्माणरतियोंका सवाकोश और परिनिर्मितवशवर्ती देवोंका परिमाण डेड़ कोश है। ..
उत्तरकुरुमें मनुष्योंकी आयु एक हजार वर्ष है । पूर्व विदेहमें ५०० वर्ष आयु है। गौदानीयमें २५० वर्ष आयु है । लेकिन जम्बू-द्वीपमें मनुष्योंकी आयु निश्चित नहीं है। कल्पके अन्तमें दस वर्षकी आय रह जाती है । उत्तरकुरुमें आयुके बीच मृत्यु नहीं होती है। अन्य पूर्व विदेह आदि द्वीपोंमें तथा देवलोकमें बीचमें मृत्यु होती है। वैदिक परम्परा योगदर्शन-व्यासभाष्यके आधारसे
न विन्यास-लोक सात होने हैं। प्रथम लोकका नाम भूलोक है। अन्तिम अवीचि नरकसे लेकर मेरुपृष्ठ तक भूलोक है । द्वितीय लोकका नाम अन्तरिक्ष लोक है। मेरुपृष्ठसे लेकर ध्रुव तक अन्तरिक्ष लोक है। अन्तरिक्षलोकमें ग्रह, नक्षत्र और तारा है । इसके ऊपर स्वर्लोक है। स्वर्लोकके भेद हैं-माहेन्द्रलोक, प्राजापत्यमहर्लोक और ब्रह्मलोक आदि । ब्रह्मलोकके तीन भेद है-जनलोक, तपलोक और सत्यलोक । इस प्रकार स्वर्लोकके पाँच भेद होते हैं।
अवीचिनरकसे ऊपर छह महानरक है । उनके नाम निम्न प्रकार हैं-महाकाल, अम्बरी, रौरव, महारौरव, कालसूत्र और अन्धतामिस्र । ये नरक क्रमशः घन ( शिलाशकल आदि पार्थिव पदार्थ ), सलिल,
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अनल, अनिल, आकाश और तमके आधार ( आश्रय ) हैं। महानरकोंके अतिरिक्त कुम्भीपाक आदि अनन्त उपनरक भी हैं । इन नरकोंमें अपने-अपने कर्मों के अनुसार दीर्घायुवाले प्राणी उत्पन्न होकर दुःख भोगते हैं। अवीचिनरकसे नीचे सात पाताललोक हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं-महातल, रसातल, अतल, सुतल, वितल, तलातल और पाताल ।
भूल कका विस्तार-इस पृथ्वीपर सात द्वीप हैं । भूलोकके मध्यमें सुमेरु नामक स्वर्णमय पर्वतराज है जिसके शिखर रजत, वंडूर्य, स्फटिक, हेम और मणिमय है । सुमेरु पर्वतके दक्षिणपूर्वमें जम्बू नामका वृक्ष है जिसके कारण लवणोदधिसे वेष्टित द्वीपका नाम जम्बूद्वीप है। सूर्य निरन्तर मेरुको प्रदक्षिणा करता रहता है । मेरुसे उत्तरदिशामें नील, श्वेत और शृंगवान् ये तीन पर्वत हैं । प्रत्येक पर्वतका विस्तार दो हजार योजन है। इन पर्वतोंके बीच में रमणक, हिरण्यमय और उत्तरकुरु ये तीन क्षेत्र है। प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ योजन है । नीलगिरि मेरुसे लगा हुआ है । नीलगिरिके उत्तरमें रमणक क्षेत्र है । श्वेतपर्वतके उत्तरमें हिरण्यमय क्षेत्र है। शृंगवान् पर्वतके उत्तरमें उत्तरकुरु है। मेरुसे दक्षिण दिशामें भी निषध, हेमकूट और हिम नामक दो-दो हजार योजन विस्तारवाले तीन पर्वत हैं। इन पर्वतोंके बीच में हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारत ये तीन क्षेत्र है । प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ हजार योजन है।
मेरुसे पूर्वमें माल्यवान् पर्वत है । माल्यवान् पर्वतसे समुद्रपर्यन्त भद्राश्व नामक देश है-इस देशमें भद्राश्वनामक क्षेत्र है । मेरुसे पश्चिममें गन्धमादन पर्वत है । गन्धमादन पर्वतसे समुद्रपर्यन्त केतुमाल नामक देश है-क्षेत्रका नाम भी केतुमाल है। मेरुके अधोभागमें इलावृत नामक क्षेत्र है। इसका विस्तार पचास हजार योजन है । इस प्रकार जम्बूद्वीपमें नौ क्षेत्र हैं। एक लाख योजन विस्तारवाला यह जम्ब द्वीप दो लाख योजन विस्तारवाले लवण समद्रसे घिरा हुआ है। जम्बद्वीपके विस्तारसे क्रमशः दन-दने विस्तार वाले छह द्वीप और हैं-शाक, कुश, क्रौञ्च, शाल्मल, मगध और पुष्करद्वीप। सातों द्वीपोंको घेरे हुए सात समुद्र हैं। जिनके पानीका स्वाद क्रमशः इक्षुरस, सुरा, घृत, दधि, मांड, दूध और मीठा जैसा है। सातों द्वीप तथा सातों समद्रों का परिमाण पचास करोड़ योजन है।
पातालोंमें, समुद्रोंमें और पर्वतोपर असुर, गन्धर्व, किन्नर, किम्पुरुष, यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच आदि देव रहते हैं । सम्पूर्ण द्वीपोंमें पुण्यात्मा देव और मनुष्य रहते हैं। मेरु पर्वत देवोंकी उद्यानभूमि है। वहाँ मिश्रवन, नन्दन, चैत्ररथ, सुमानस इत्यादि उद्यान हैं। सुधर्मा नामकी देवसभा है । सुदर्शन नगर है तथा इस नगरमें बैजयन्त प्रासाद है । ग्रह, नक्षत्र और तारा ध्रुव ( ज्योतिर्विशेष) मेरुके ऊपर स्थित है । इनका भ्रमण वायुके विक्षेपसे होता है।
स्वर्लोकका वर्णन-माहेन्द्रलोकमें छह देवनिकाय हैं-त्रिदश, अग्निष्वात्तायाम्य, तुषित, अपरिनिर्मितवशवति और परिनिर्मितवशवति । ये देव संकल्पसिद्ध ( संकल्पमात्रसे सब कुछ करनेवाले ) अणिमा आदि ऋद्धि तथा ऐश्वर्यसे सम्पन्न, एक कल्पकी आयु वाले, औपपादिक ( माता-पिताके संयोगके बिना लक्षणमात्रमें जिनका शरीर उत्पन्न हो जाता है) तथा उत्तमोत्तम अप्सराओंसे युक्त होते हैं। महर्लोकमें पांच देवनिकाय हैं-कमद, ऋभव, प्रतर्दन, अज्जनाभ और प्रचिताभ । ये देव महाभतोंको वशमें रखने में स्वतन्त्र होते हैं तथा ध्यानमात्रसे तृप्त हो जाते हैं। इनकी आयु एक हजार कल्पकी है। प्रथम ब्रह्मलोक ( जनलोक में) चार देवनिकाय हैं-ब्रह्मपुरोहित, ब्रह्मकायिक, प्रब्रह्म महाकायिक और अमर । ये देव भूत और इन्द्रियों को वशमें रखनेवाले होते हैं । ब्रह्मपुरस्थित देवोंकी आयु दो हजार कल्पकी है। अन्य देव निकायोंमें आयु क्रमशः दूनी-दूनी है। द्वितीय ब्रह्मलोकमें ( तपोलोकों ) तीन देवनिकाय हैं-आभास्वर, महाभास्वर और
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २४१
सत्यमहाभास्वर । ये देव भत और इन्द्रिय और अन्तःकरणको वशमें रखनेवाले होते हैं। इनकी आयु पहले निकायकी अपेक्षा क्रमशः दूनी है। ये देव ऊध्वरेतस् होते हैं तथा ध्यानमात्रसे तृप्त हो जाते हैं। इनका ज्ञान ऊर्ध्वलोक तथा अधोलोकमें अप्रतिहत होता है। तृतीय ब्रह्मलोक ( सत्यलोक ) में चार देवनिकाय है-अच्युत, शुद्धनिवास, सत्याभ और संज्ञा-संज्ञि। इन देवोंके घर नहीं होते। इनका निवास अपनी आत्मामें ही होता है। क्रमशः ये ऊपर स्थित हैं। प्रधान ( प्रकृति ) को वशमें रखनेवाले तथा एक सगंको आयुवाले हैं । अच्युतदेव सवितर्क ध्यानसे सुखी रहते हैं। शुद्धनिवासदेव सविचार ध्यानसे सुखी रहते हैं। सत्याभदेव आनन्दमात्र ध्यानसे सुखी रहते हैं। संज्ञासंज्ञि देव अस्मितामात्र ध्यानसे सुखी रहते हैं। ये सात लोक तथा अवान्तर सात लोक सब ब्रह्मलोक ( ब्रह्माण्ड ) के अन्तर्गत् हैं । वैदिक परम्परा श्रीमद्भागवतके आधारसे
भूलोकका वर्णन-यह भूलोक सात द्वीपोंमें विभाजित है। जिनमें प्रथम जम्बूद्वीप है। इसका विस्तार एक लाख योजन है तथा यह कमलपत्रके समान गोलाकार है।
इस द्वीपमें आठ पर्वतोंसे विभक्त नौ क्षेत्र है। प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ हजार योजन है। मध्य में इलावृत नामका क्षेत्र है। इस क्षेत्रके मध्यमें सूवर्णमय मेरु पर्वत है। मेरुकी ऊँचाई नियतयोजन प्रमाण है। मूलमें मेरु पर्वत सोलह हजार योजन पृथ्वीके अन्दर है तथा शिखर पर बत्तीस हजार योजन फैला हुआ है । मेरुके उत्तरमें नील, श्वेत तथा श्रृंगवान् ये तीन मर्यादागिरि है जिनके कारण रम्यक, हिरण्यमय और कुरुक्षेत्रोंका विभाग होता है । इसी प्रकार मेरुसे दक्षिणमें निषध, हेमकूट, हिमालय ये तीन पर्वत हैं जिनके द्वारा हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारत इन तीन क्षेत्रोंका विभाग होता है। इलावृत क्षेत्रसे पश्चिममें माल्यवान पर्वत है जो केतुमाल देशकी सीमाका कारण है। इलावृतसे पूर्वमें गन्धमादन पर्वत है जिससे भद्राश्व देशका विभाग होता है । मेरुके चारों दिशाओंमें मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व और कुमुद ये चार अवष्टम्भ पर्वत है। चारों पर्वतोंपर आम्र, जम्ब, कदम्ब और न्यग्रोध ये चार विशालवृक्ष जिनका जल दुध, मधु, इक्षरस तथा मिठाई जैसे स्वादका है। नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक और सर्वतोभद्र ये चार देवोद्यान हैं। इन उद्योनोंमें देव देवांगनाओं सहित विहार करते हैं। मन्दर पर्वतके ऊपर ११ सौ योजन ऊँचे आम्र वृक्षसे पर्वतके शिखर जैसे स्थूल और अमृतके समान रसवाले फल गिरते हैं । मन्दर पर्वतसे अरुगोदा नदी निकलकर पूर्वमें इलावृत क्षेत्रमें बहती है। अरुणोदा नदीका जल आम्र वृक्षके फलोंके कारण अरुण रहता है। इसी प्रकार मेरुमन्दर पर्वतके ऊपर जम्बूद्वीप वृक्षके फल गिरते हैं मेरुमन्दरपर्वतसे जम्बू नामकी नदी निकलकर दक्षिण में इलावृत क्षेत्र में बहती है। जम्बवृक्षके फलोंके रससे युक्त होनेके कारण इस नदीका नाम जम्ब नदी है । सुपार्श्व पर्वतपर कदम्ब वृक्ष है। सुपाश्वं पर्वतसे पाँच नदियाँ निकलकर पश्चिम में इलावृत क्षेत्रमें बहती हैं । कुमुद पर्वतपर शातवल्श नामका बट वृक्ष है। कुमुद पर्वतसे पयोनदी, दधिनदी, मधुनदी, घृतनदी, गुडनदी, अन्ननदी, अम्बरनदी, शय्यासननदी, आभरणनदी आदि सब कामोंको तप्त करने वाली नदियाँ निकलकर उत्तरमें इलावृत क्षेत्रमें बहती हैं । इन नदियोंके जलके सेवन करनेसे कभी भी जरा, रोग, मृत्यु, उपसर्ग आदि नहीं होते हैं । मेरुके मलमें कुरंग, कुरर, कुसुम्भ आदि बीस पर्वत हैं। मेरुसे पूर्वमें जठर और देवकट, पश्चिममें पवन और परिपात्र, दक्षिणमें कैलाश और करवीर. उत्तरमें त्रिश्रंग और मकर इस प्रकार आठ पर्वत है । मेरुके शिखरपर भगवानकी शातकौम्भी नामकी चतुष्कोण नदी है। इस नगरीके चारों ओर आठ लोकपालोंके आठ नगर हैं।
सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा इस प्रकार चार नदियाँ चारों दिशाओंमें बहती हुई समुद्र में ४-३१
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
प्रवेश करती हैं । सीता नदी ब्रह्मसदनकेसर, अचल आदि पर्वतोंके शिखरोंसे नीचे-नीचे होकर गन्धमादन पर्वतके शिखरपर गिरकर भद्राश्व क्षेत्रमें बहती हुई पूर्वमें क्षार समुद्र में मिलती है । इसी प्रकार चक्षु नदी माल्यवान् पर्वतके शिखरसे निकलकर केतुमाल क्षेत्र में बहती हुई समुद्रमें मिलती है । भद्रा नदी मेरुके शिखर से निकलकर श्रृंगवान् पर्वतके शिखर से होकर उत्तरकुरुमें बहती हुई उत्तरके समुद्र में मिलती नन्दा नदी ब्रह्मसदन पर्वतसे निकलकर भारतक्षेत्रमें बहती हुई दक्षिणके समुद्रमें मिलती है । इसी प्रकार अनेक नद और नदियां प्रत्येक क्षेत्रमें बहती हैं । भारतवर्ष हो कर्मक्षेत्र है । शेष आठ क्षेत्र स्वर्गवासी पुरुषों के स्वर्गभोग से बचे हुए पुण्योंके भोगनेके स्थान हैं ।
। अलक
अन्य द्वीपों का वर्णन - जिस प्रकार मेरु पर्वत अपने ही समान परिमाण और विस्तारवाले खारे जलके लक्षद्वीपसे घिरा हुआ है । जम्बूद्वीपमें जितना बड़ा ( पाकर ) का वृक्ष है । इसीके कारण इसका नाम क्षेम, अमृत और अभय ये सात क्षेत्र हैं । मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्, सुपर्णं, हिरण्यष्ठीव और माल ये सात पर्वत हैं । अरुण, नृम्ण, आंगिरसी, सावित्री, सुप्रभ्राता, ऋतम्भरा और सत्यम्भरा ये सात नदियाँ हैं ।
जम्बूद्वीपसे घिरा हुआ है उसी प्रकार जम्बूद्वीप भी समुद्र से परिवेष्टित है । क्षार समुद्र भी अपने से दूने जामुनका पेड़ है उतने ही विस्तारवाला यहाँ प्लक्ष, प्लक्षद्वीप हुआ । इस द्वीपमें शिव, यवस, सुभद्र, शान्त,
लक्षद्वीप अपने ही समान विस्तारवाले इक्षुरसके समुद्रसे घिरा हुआ है। उससे आगे उससे दुगुने परिमाणवाला शाल्मली द्वीप है जो उतने ही परिमाणवाले मदिराके सागरसे घिरा हुआ है । इस द्वीपमें शाल्मली ( सेमर ) का वृक्ष है जिसके कारण इस द्वीपका नाम शाल्मलीद्वीप हुआ । इस द्वीपमें सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र और अविज्ञात ये सात क्षेत्र हैं। स्वरस, शतश्रृंग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष और सहस्रश्रुति ये सात पर्वत हैं। अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहु, रजनी, नन्दा और राका ये नदियाँ हैं ।
मदिरा समुद्रसे आगे उसके दूने विस्तारवाला कुशद्वीप है । यह द्वीप अपने ही परिमाणवाले घृतके समुद्रसे घिरा हुआ है । इसमें एक कुशोंका झाड़ है इसीसे इस द्वीपका नाम कुशद्वीप है । इस द्वीपमें भी सात क्षेत्र हैं, चक्र, चतुःशृंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा और द्रविण ये सात पर्वत हैं । रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रवृन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता, और मन्त्रमाला ये सात नदियाँ हैं ।
घृत समुद्रसे आगे उससे द्विगुण परिमाणवाला क्रौञ्चद्वीप है । यह द्वीप भी अपने समान विस्तारवाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है । यहाँ क्रौञ्च नामका एक बहुत बड़ा पर्वत उसीके कारण इसका नाम क्रौञ्चद्वीप हुआ । इस द्वीपमें भी सात क्षेत्र हैं । शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र ये सात पर्वत हैं । तथा अभया, अमृतोद्या, आर्यका, तोर्थवती, वृतिरूपवती, पवित्रवती और शुक्ला ये सात नदियाँ हैं ।
इसी प्रकार क्षीरसमुद्रसे आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तारवाला शाकद्वीप है जो अपने ही समान परिमाणवाले मठेके समुद्रसे घिरा हुआ है । इसमें शाक नामका एक बहुत बड़ा वृक्ष है वही इस द्वीप नामका कारण है । इस द्वीपमें भी सात क्षेत्र, सात पर्वत तथा सात नदियाँ हैं ।
इसी प्रकार ठेके समुद्रसे आगे उससे दूने विस्तारवाला पुष्कर द्वीप है । वह चारों ओर अपने समान विस्तारवाले मीठे जलके समुद्रसे घिरा हुआ है । वहाँ एक बहुत बड़ा पुष्कर ( कमल) है जो इस द्वीपके नामका कारण है । इस द्वीपके बीचोंबीच इसके पूर्वीय और पश्चिमीय विभागोंकी मर्यादा निश्चित करते
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
४/ विशिष्ट निबन्ध : २४३
वाला मानसोत्तर नामका एक पर्वत है। यह दस हजार योजन ऊँचा और इतना ही लम्बा है।
इस द्वीपके आगे लोकालोक नामका एक पर्वत है । लोकालोक पर्वत सूर्यसे प्रकाशित और अप्रकाशित भूभागोंके बीच में स्थित है इसीसे इसका यह नाम पड़ा। यह इतना ऊँचा और इतना लम्बा है कि इसके एक ओरसे तीनों लोकोंको प्रकाशित करनेवाली सूर्यसे लेकर ध्रुव पर्यंत समस्त ज्योतिमण्डलकी किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकती।
समस्त भूगोल पचास करोड़ योजन है । इसका चौथाई भाग ( १२॥ करोड़ योजन ) यह लोकालोक पर्वत है।
इस प्रकार भूलोकका परिमाण समझना चाहिए । भूलोकके परिमाणके समान ही धुलोकका भी परिमाण है । इन दोनों लोकोंके बीचमें अन्तरिक्ष लोक है, जिसमें सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और ताराओंका निवास है। सूर्यमण्डलका विस्तार दस हजार योजन है और चन्द्रमण्डलका विस्तार बारह हजार योजन है।
अतल आदि नीचेके लोकोंका वर्णन-भूलोकके नीचे अतल, वितल, सूतल, तलातल, महातल, रसातल और पातालके नामके सात भ-विवर (बिल ) हैं। ये क्रमशः नीचे-नीचे दस दस हजार योजनकी दरी पर स्थित है। प्रत्येक बिलकी लम्बाई चौड़ाई भी दस दस हजार योजन की है। ये भूमिके बिल भी एक प्रकारके स्वर्ग हैं । इनमें स्वर्गसे भी अधिक विषयभोग, ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तानसुख और धन-संपत्ति है।
नरकोंका वर्णन-समस्त नरक अट्ठाइस हैं । जिनके नाम निम्न प्रकार है-तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिसत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभाजन, सन्दंश, तप्तसूमि, वज्रकण्टकशाल्मली, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि, अयःपान, क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवटरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुख ।
जो पुरुष दूसरोंके धन, सन्तान अथवा स्त्रियोंका हरण करता है उसे अत्यन्त भयानक यमदत कालपाशमें बांधकर बलात्कारसे तामिस्र नरकमें गिरा देता है। इसी प्रकार जो पुरुष किसी दूसरेको धोखा देकर उसकी स्त्री आदिको भोगता है वह अन्धतामिस्र नरक में पड़ता है। जो पुरुष इस लोकमें यह शरीर ही मैं हूँ और ये स्त्री, धनादि मेरे हैं ऐसी बुद्धिसे दूसरे प्राणियोंसे द्रोह करके अपने कुटुम्बके पालन-पोषणमें ही लगा रहता है वह रौरव नरकमें गिरता है । जो कर मनुष्य इस लोकमें अपना पेट पालनेके लिए जीवित पशु या पक्षियोंको रांधता है उसे यमदत कूम्भीपाक नरकमें ले जाकर खौलते हए तेलमें रांधते हैं। जो पुरुष इस लोकमें खटमल आदि जीवोंकी हिंसा करता है वह अन्धकूप नरकमें गिरता है। इस लोकमें यदि कोई पुरुष अगम्या स्त्रीके साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुषसे व्यभिचार करती है तो यमदूत उसे तप्तसूमि नरकमें ले जाकर कोड़ोंसे पीटते हैं । तथा पुरुषको तपाए हुए लोहेकी स्त्री-मूर्तिसे और स्त्रीको तपायी हुई पुरुष-प्रतिमासे आलिगन कराते हैं। जो पुरुष इस लोकमें पशु आदि सभीके साथ व्यभिचार करता है उसे यमदत वज्रकण्टकशाल्मली नरकमें ले जाकर वज्रके समान कठोर काँटोंवाली सेमरके वृक्षपर चढ़ाकर फिर नीचेकी ओर खींचते है । जो राजा या राजपुरुष इस लोकमें श्रेष्ठकुलमें जन्म पाकर भी धर्मकी मर्यादाका उच्छेद करते है वे उस मर्यादातिक्रमके कारण मरने पर वैतरणी नदीमें पटके जाते हैं। यह नदी नरकोंकी खाईके समान है। यह नदी मल, मत्र, पीव, रक्त, केश, नख, हड्डी, चर्बो, मांस, मज्जा आदि अपवित्र पदार्थोंसे भरी हुई है । जो पुरुष इस लोकमें नरमेधादिके द्वारा भैरव , यक्ष, राक्षस, आदिका यजन करते है उन्हें वे पशुओंकी तरह मारे गये पुरुष यमलोकमें राक्षस होकर तरह-तरहकी यातनाएँ देते है तथा रक्षोगणभोजन नामक नरकमें कसाइयोंके समान कुल्हाड़ीसे काट काटकर उसका लोहू पीते हैं तथा जिस प्रकार वे
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
मांसभोजी पुरुष इस लोकमें उनका मांस भक्षण करके आनन्दित होते थे उसी प्रकार वे भी उनका रक्तपान करते और आनन्दित होकर नाचते-गाते है।
इसी प्रकार अन्य नरकोंमें भी प्राणी अपने-अपने क्रमके अनुसार दुःख भोगते हैं । वैदिक परम्परा ( विष्णुपुराणके आधारसे )
भूलोकका वर्णन-इस पृथ्वीपर सात द्वीप हैं जिनके नाम ये है-जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुपा, क्रौञ्च, शाक और पुष्कर । ये द्वीप लवण, इक्षु, सुरा, घृत, दधि, दुग्ध और जल इन सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं।
सब द्वीपोंके मध्यमें जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीपके मध्यमें सुवर्णमय मेरु पर्वत है जो ८४ हजार योजन ऊँचा है । मेरुके दक्षिणमें हिमवान् , हेमकूट और निषध पर्वत हैं तथा उत्तरमें नील, श्वेत और शृंगी पर्वत हैं । मेरुके दक्षिण में भारत, किम्पुरुष और हरिवर्ष ये तीन क्षेत्र हैं तथा उत्तरमें रम्यक, हिरण्यमय और उत्तरकुरु ये तीन क्षेत्र है । मेरुके पूर्व में भद्रापूर्व क्षेत्र है तथा पश्चिममें केतुमाल क्षेत्र है । इन दोनों क्षेत्रों के बीचमें इलावृत क्षेत्र है । इलावृत क्षेत्रके पूर्व में मन्दर, दक्षिण में गन्धमादन, पश्चिममें विपुल, उत्तरमें सुपार्श्व पर्वत हैं । मेरुके पूर्वमें शीतान्त, चक्रमुञ्च, कुररी, माल्यवान् वैकङ्का आदि पर्वत हैं। दक्षिणमें त्रिकूट, शिशिर, पतङ्ग, रुचक, निषध आदि पर्वत है, पश्चिममें शिखिवास, वैदूर्य, कपिल, गन्धमादन आदि पर्वत हैं और उत्तरमें शंखकट, ऋषध, हंस, नाग आदि पर्वत है ।।
मेरुके पूर्व में चैत्ररथ, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें वैभ्राज और उत्तरमें नन्दनवन हैं। अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस ये सरोवर हैं।
___मेरुके ऊपर जो ब्रह्मपुरी है उसके पासरी गंगानदी चारों दिशाओंमें बहती है । सीता नदी भद्रापूर्वक्षेत्रसे होकर पूर्व समुद्र में मिलती है । अलकनन्दा नदी भरतक्षेत्रसे होकर समुद्रमें प्रवेश करती है । चक्षुःनदी केतुमाल क्षेत्रमें बहती हुई समुद्रमें मिलती है और भद्रानदी उत्तरकुरुमें बहती हुई समुद्रमें प्रवेश करती है।
इलावतक्षेत्रके पूर्वमें जठर और देवकट, दक्षिणमें गन्धमादन और कैलाश और पश्चिममें निषध और पारिपात्र और उत्तरमें त्रिशृंग और जारुधि पर्वत हैं । पर्वतों के बीच में सिद्धचारण देवोंसे सेवित खाई है और उनमें मनोहर नगर तथा वन हैं।
समद्रके उत्तरमें तथा हिमालयके दक्षिणमें भारत क्षेत्र है। इसमें भरतकी सन्तति रहती है । इसका विस्तार नौ हजार योजन है। इस क्षेत्रमें महेंद्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान्, ऋक्ष, विंध्य और पारिपात्र ये सात क्षेत्र हैं।
इस क्षेत्रमें इन्द्रद्वीप, कशेरुमान, ताम्रवण, गंधहस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व, वारुण और सागरसंवत ये नव द्वीप हैं । हिमवान् पर्वतसे शतद्र, चन्द्रभागा आदि नदियाँ निकली है । पारिपात्र पर्वतसे वेदमुख, स्मृतिमुख आदि नदियाँ निकली हैं। विंध्य पर्वतसे नर्मदा, सुरसा आदि नदियाँ निकली हैं । ऋषि पर्वतसे तापी, पयोष्णि, निर्विन्ध्या आदि नदियाँ निकली है। सह्य पर्वतसे गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी आदि नदियाँ निकली हैं । मलय पर्वतसे कृतमाल, ताम्रपर्णी आदि नदियाँ निकली हैं। महेन्द्र पर्वतसे त्रिसामा, आयकुल्या, आदि नदियाँ निकली है । शुक्तिमान् पर्वतसे त्रिकुल्या, कुमारी आदि नदियाँ निकली है।
प्लक्षद्वीप-इस द्वीपमें शान्तिमय, शिशिर, सुखद, आनन्द, शिव, क्षेमक और ध्रुव ये सात क्षेत्र हैं । तथा गोमेंद्र, चन्द्र, नारद, दुन्दुभि, सामक, सुमन और वैभ्राज ये सात पर्वत है । अनुतप्ता, शिखी, विपाशा, त्रिदिवा, क्रम, अमृता और सुकृता ये सात नदियाँ है।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २४५ शाल्मलिद्वीप - इस द्वीपमें श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ ये सात क्षेत्र हैं । कुमुद, उन्नत, बलाहक, द्रोण, कङ्क, महिष और ककुद्म ये सात पर्वत हैं । योनि, तोया, वितृष्णा, चन्द्रा, शुक्ला, विमोचनी और निवृत्ति ये सात नदियाँ हैं ।
कुशद्वीप - इस द्वीपमें उद्भिद्, वेणुमत्, वैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर और कपिल ये सात क्षेत्र हैं, विद्रुम, हेमशैल द्युतिमान्, पुष्पवान् कुशेशय, हथि और मन्दराचल ये सात पर्वत हैं । धूतपापा, शिवा, पवित्रा, संमति, विद्युदंभा, मही आदि सात नदियाँ 1
क्रौञ्च द्वीप - इस द्वीपमें कुशल, मन्दक, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि ये सात क्षेत्र हैं । क्रौञ्च वामन, अन्धकारक, देवावृत, पुण्डरीकवान्, दुन्दुभि और महाशैल ये सात पर्वत हैं । गौरी, कुमुद्वती, सन्ध्या, रात्रि, मनोजवा, क्षान्ति और पुण्डरीका ये सात नदियाँ हैं ।
शाकद्वीप - इस द्वीप में जलद, कुमार, सुकुमार, मनीचक, कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रुम ये सात क्षेत्र हैं । उदयगिरि, जलाधर, वतक, श्याम, अस्तगिरि, अञ्चिकेय और केसरी ये सात पर्वत हैं । सुकुमारी, कुमारी, नलिनी, धेनुका, इक्षु, वेणुका और गभस्ती ये सात नदियाँ हैं ।
पुष्कर द्वीप - इस द्वीपमें महावीर और धातकीखण्ड ये दो क्षेत्र हैं । मानुषोत्तर पर्वत पुष्करद्वीप के बीच में स्थित है । अन्य पर्वत तथा नदियाँ इस द्वीपमें नहीं हैं ।
भूगोलकी इन परम्पराओंका तुलनात्मक अध्ययन हमें इस नतीजे पर पहुँचाता है कि आजसे दो ढाई हजार वर्ष पहिले भूगोल और लोक वर्णनकी करीब-करीब एक जैसी अनुश्रुतियाँ प्रचलित थीं । जैन अनुश्रुतिको प्रकृत तत्त्वार्थ सूत्रके तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें निबद्ध किया गया है । लोकका पुरुषाकार वर्णन भी योगभाष्य में पाया जाता है । अतः ऐतिहासिक और उस समयकी साधनसामग्रीकी दृष्टिसे भारतीय परम्पराओंका लोकवर्णन अपनी खास विशेषता रखता है। आजके उपलब्ध भूगोलमें प्राचीन स्थानोंकी खोज करनेपर बहुत कुछ तथ्य सामने आ सकता है ।
प्रस्तुतवृत्ति - इस वृत्तिका नाम तत्त्वार्थवृत्ति है जैसा कि स्वयं श्रुतिसागरसूरिने ही प्रारम्भमें लिखा है - " वक्ष्ये तत्त्वार्थवृत्ति निजविभवतयाऽहं श्रुतोदन्वदाख्यः ।" अर्थात् मैं श्रुतसागर अपनी शक्तिके अनुसार तत्त्वार्थवृत्तिको कहूँगा । अध्यायोंके अन्तमें आनेवाली पुष्पिकाओं में इसके 'तत्त्वार्थटीकायाम्', 'तात्पर्यसंज्ञायां तत्त्वार्थवृत्ती' ये दो प्रकारके उल्लेख मिलते हैं । यद्यपि द्वितीय उल्लेखमें इसका 'तात्पर्य ' यह नाम सूचित किया गया है, परन्तु स्वयं श्रुतसागरसूरिको तत्त्वार्थवृत्ति यही नाम प्रचारित करना इष्ट था । वे इस ग्रन्थके अन्त में इसे तत्त्वार्थवृत्ति ही लिखते हैं । यथा - "एषा तत्त्वार्थवृत्तिः विचार्यते” आदि । तत्त्वार्थटीका यह एक साधारण नाम है, जो कदाचित् पुष्पिकामें लिखा भी गया हो, पर प्रारम्भ श्लोक और अन्तिम उपसंहारवाक्य में 'तत्त्वार्यवृत्ति' इन समुल्लेखोंके बलसे इसका 'तत्त्वार्थवृत्ति' नाम हो फलित होता है ।
इस तत्त्वार्थवृत्तिको श्रुतसागरसूरिने स्वतंत्रवृत्तिके रूपमें बनाया है । परन्तु ग्रन्थके पढ़ते ही यह भान होता है कि यह पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धिकी व्याख्या है। इसमें सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ तो प्रायः पुराका पूरा ही समा गया है । कहीं सर्वार्थसिद्धिकी पंक्तियों को दो चार शब्द नए जोड़कर अपना लिया है, कहीं उनकी व्याख्या की है, कहीं विशेषार्थ दिया है और कहीं उसके पदोंको सार्थकता दिखाई है । अतः प्रस्तुतवृत्तिको सर्वार्थसिद्धिकी अविकल व्याख्या तो नहीं कह सकते । हाँ, सर्वार्थ सिद्धि को लगाने में इससे सहायता पूरी-पूरी मिल जाती है ।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
श्रुतसागरसूरि अनेक शास्त्रोंके पण्डित थे । उनने स्वयं ही अपना परिचय प्रथम अध्याय की पुष्पिका में दिया है। उसका भाव यह है-'अनवद्य गद्य पद्य विद्याके विनोदसे जिनकी मति पवित्र है, उन मतिसागर यतिराजकी प्रार्थनाको पूरा करने में समर्थ, तर्क, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार साहित्यादिशास्त्रमें जिनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण है, देवेन्द्रकीर्ति भट्टारकके प्रशिष्य और विद्यानन्दिदेवके शिष्य श्रुतसागरसूरिके द्वारा रचित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रचण्ड-अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोंके पाण्डित्यका प्रदर्शन करानेवाली तत्त्वार्थटीकाका प्रथम अध्याय समाप्त हुआ।"
इन्होंने अपनेको स्वयं कलिकालसर्वज्ञ, कलिकालगौतम, उभयभाषाकविचक्रवर्ती, ताकिका शिरोमणि, परमागमप्रवीण आदि विशेषणोंसे भी अलंकृत किया है।
इन्होंने सर्वार्थसिद्धिके अभिप्रायके उद्घाटनका पूरा-पूरा प्रयत्न किया है । सत्संख्यासूत्रमें सर्वार्थसिद्धिके सूत्रात्मक वाक्योंकी उपपत्तियाँ इसका अच्छा उदाहरण है । जैसे
१-सर्वार्थसिद्धिमें क्षेत्रप्ररूपणामें सयोगकेवलीका क्षेत्र लोकका असंख्येय भाग, असंख्येय बहुभाग और सर्वलोक बताया है। इसका अभिप्राय इस प्रकार बताया है-"लोकका असंख्येय भाग दण्ड, कपाट, समुद्घातकी अपेक्षा है । सो कैसे ? यदि केवली कायोत्सर्गसे स्थित है तो दण्ड समुद्घातको प्रथम समयमें बारह अंगुल प्रमाण समवृत्त या मूलशरीर प्रमाण समवृत्त रूपसे करते हैं। यदि बैठे हुए हैं तो शरीरसे तिगुना या वातवलयसे कम पूर्ण लोक प्रमाण दण्ड समुद्घात करते हैं । यदि पूर्वाभिमुख हैं तो कपाट समुद्घातको उत्तर-दक्षिण एक धनुषप्रमाण प्रथम समयमें करते हैं। यदि उत्तराभिमुख हैं तो पूर्व-पश्चिम करते हैं । इस प्रकार लोकका असंख्यातकभाग होता है। प्रतर अवस्थामें केवली तीन वातवलयकम पूर्ण लोकको निरन्तर आत्मप्रदेशोंसे व्याप्त करते हैं । अतः लोकका असंख्यात बहुभाग क्षेत्र हो जाता है। पूरण अवस्थामें सर्वलोक क्षेत्र हो जाता है।
२-वेदकसम्यक्त्वकी छयासठ सागर स्थिति-सौधर्मस्वर्गमें २ सागर, शुक्रस्वर्ग में १६ सागर, शतारमें १८ सागर, अष्टम ग्रैवेयकमें ३० सागर, इस प्रकार छयासठ सागर हो जाते हैं। अथवा सौधर्ममें दो बार उत्पन्न होनेपर ४ सागर, सनत्कुमारमें ७ सागर, ब्रह्म स्वर्गमें १० सागर, लान्तवमें १४ सागर, नवम वेयकमें ३१ सागर, इस प्रकार ६६ सागर स्थिति होती है । अन्तिम प्रैवेयककी स्थितिमें मनुष्यायुओंका जितना काल होगा उतना कम समझना चाहिये।
३-सासादन सम्यग्दृष्टिका लोकका देशोन ८ भाग या १२ भाग स्पर्शन-परस्थान विहारकी अपेक्षा सासादन सम्यग्दृष्टि देव नीचे तीसरे नरक तक जाते हैं तथा ऊपर अच्युत स्वर्ग तक । सो नीचे दो राजू और ऊपर ६ राजू, इस प्रकार आठ राजू हो जाते हैं। छठवें नरकका सासादन मारणान्तिक समुद्घात मध्यलोक तक ५ राजू और लोकान्तवर्ती बादरजलकाय या वनस्पतिकायमें उत्पन्न होनेके कारण ७ राजू, इस प्रकार १२ राजू हो जाते हैं। कुछ प्रदेश सासादनके स्पर्शयोग्य नहीं होते अतः देशोन समझ लेना चाहिए।
___ इस प्रकार समस्त सूत्रमें सर्वार्थसिद्धिके अभिप्रायको खोलनेका पूर्ण प्रयत्न किया गया है। न केवल इसी सूत्रको ही, किन्तु समग्र ग्रन्थको ही लगानेका विद्वत्तापूर्ण प्रयास किया गया है।
। परन्तु शास्त्रसमुद्र इतना अगाध और विविध भंग तरंगोंसे युक्त है कि उसमें कितना भी कुशल अवगाहक क्यों न हो चक्करमें आ ही जाता है । इसीलिए बड़े-बड़े आचार्योंने अपने छद्मस्थज्ञान और चंचल
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २४७ क्षायोपशमिक उपयोगपर विश्वास न करके स्वयं लिख दिया है कि - " को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे " श्रुतसागरसूरि भी इसके अपवाद नहीं हैं । यथा—
१ - सर्वार्थसिद्धिमें " द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः " ( ५/४१) सूत्रकी व्याख्यामें 'निर्गुण' इस विशेषणसार्थकता बताते हुए लिखा है कि- "निर्गुण इति विशेषणं द्वद्यणुकादिनिवृत्त्यर्थम्, तान्यपि हि कारणभूतपरमाणु द्रव्याश्रयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् 'निर्गुणाः' इति विशेषणात्तानि निवर्ततानि भवन्ति ।” अर्थात् द्वणुकादि स्कन्ध नैयायिकों को दृष्टिसे परमाणुरूप कारणद्रव्यमें आश्रित होनेसे द्रव्याश्रित हैं और रूपादि गुणवाले होनेसे गुणवाले भी हैं अतः इनमें भी उक्त गुणका लक्षण अतिव्याप्त हो जायगा । safe saht frवृत्ति के लिए 'निर्गुणाः' यह विशेषण दिया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरि लिखते हैं कि
" निर्गुणाः इति विशेषणं द्वयणुकश्यणुकादिस्कन्धनिषेधार्थम् तेन स्कन्धाश्रया गुणा गुणा नोच्यन्ते । कस्मात् ? कारणभूतपरमाणु द्रव्याश्रयत्वात् तस्मात् कारणात् निर्गुणा इति विशेषणात् स्कन्धगुणा गुणा न भवन्ति पर्यायाश्रयत्वात् ।" अर्थात् - 'निर्गुणाः' यह विशेषण द्वयणुक, त्र्यणुकादि स्कन्धके निषेधके लिए है । इससे स्कन्धमें रहनेवाले गुण गुण नहीं कहे जा सकते क्योंकि वे कारणभूत परमाणुद्रव्यमें रहते हैं । इसलिए स्कन्धके गुण गुण नहीं हो सकते क्योंकि वे पर्यायमें रहते हैं । यह हेतुवाद बड़ा विचित्र हैं और जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल भी । जैन सिद्धान्त में रूपादि चाहे घटादिस्कन्धोंमें रहनेवाले हों या परमाणुमें, सभी गुण कहे जाते हैं । ये स्कन्धके गुणोंको गुण ही नहीं कहना चाहते क्योंकि वे पर्यायाश्रित हैं । यदि वे यह कहते कि कारणपरमाणुओं को छोड़कर स्कन्धकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है और इसलिए स्कन्धाश्रित गुण स्वतंत्र नहीं है तो कदाचित् संगत भी था । पर इस कथनका प्रकृत 'निर्गुण' पदकी सार्थकता से कोई मेल नहीं बैठता । इस असंगतिके कारण आगेके शंकासमाधानमें भी असंगति हो गई है । यथा - सर्वार्थसिद्धिमें है कि- घटकी संस्थान - आकार आदि पर्याएँ भी द्रव्याश्रित हैं और स्वयं गुणरहित है अतः उन्हें भी गुण कहना चाहिए । इसका समाधान यह कर दिया गया है कि जो हमेशा द्रव्याश्रित हों, रूपादि गुण सदा द्रव्याश्रित रहते हैं, जब कि घटके संस्थानादि सदा द्रव्याश्रित नहीं हैं । इस शंका समाधानका सर्वार्थ सिद्धिका पाठ यह है
" ननु पर्याया अपि घटसंस्थानादयो द्रव्याश्रया निर्गुणाश्च तेषामपि गुणत्वं प्राप्नोति । द्रव्याश्रया इति वचनान्नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते, गुणा इति विशेषणात् पर्यायाश्च निवर्तिता भवन्ति, ते हि कादाचित्का इति ।"
इस शंकासमाधानको श्रुतसागर सूरि इस रूप में उपस्थित करते हैं—
" ननु घटादिपर्यायाश्रिताः संस्थानादयो ये गुणा वर्तन्ते तेषामपि संस्थानादीनां गुणत्वमास्कन्दति द्रव्याश्रयत्वात्, सतो घटपटादयोऽपि द्रव्याणीत्युच्यन्ते । सान्वभाणि भवता । ये नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते तएव गुणा भवन्ति न तु पर्यायात्रया गुणा भवन्ति, पर्यायाश्रिता गुणाः कदाचित्काः कदाचिद्भवा वर्तन्ते इति ।"
इस अवतरण में श्रुतसागरसूरि संस्थानादिको घटादिका गुण कह रहे हैं, और उनका कादाचित्क होने का उल्लेख है फिर भी उसका अन्यथा अर्थ किया गया है ।
२- सर्वार्थसिद्धि (८|२) में जीव शब्दकी सार्थकता बताते हुए लिखा है कि "अमूर्तिरहस्त आत्मा कथं कर्मादत्ते ? इति चोदितः सन् जीव इत्याह । जीवनाज्जीवः प्राणधारणानायुः सम्बन्धात् नायुविरहा
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ दिति ।" अर्थात्-'हाथरहित अमूर्त आत्मा कैसे कर्म ग्रहण करता है' इस शंकाका उत्तर है 'जीव' पदका ग्रहण । प्राणधारण और आयुसंबंधके कारण जीव बना हुआ आत्मा कर्म ग्रहण करता है, आयुसम्बन्धसे रहित होकर सिद्ध अवस्थामें नहीं । यहाँ श्रुतसागरसूरि 'नायुविरहात्' वाले अंशको इस रूपमें लिखते हैं-"आयुः सम्बन्धविरहे जीवस्यानाहारकत्वात् एकद्वित्रिसमयपर्यन्तं कर्म नादत्ते जीवः एकं द्वौ त्रीन् वाऽनाहारक इति वचनात् ।" अर्थात् आयुसम्बन्धके बिना जीव अनाहारक रहता है और वह एक दो तीन समय तक कर्मको ग्रहण नहीं करता क्योंकि एक दो तीन समय तक अनाहारक रहता है ऐसा कथन है। यहाँ कर्मग्रहणकी बात है, पर श्रुतसागरसूरि उसे नोकर्म ग्रहणरूप आहारमें लगा रहे हैं, जिसका कि आयुसम्बन्धविरहसे कोई मेल नहीं है। संसार अवस्थामें कभी भी जीव आयुसंबंधसे शन्य नहीं होता। विग्रहगतिमें उसके आयुसम्बन्ध होता ही है।
३-सर्वार्थ सिद्धि (८२) में ही 'सः' शब्दकी सार्थकता इसलिए बताई गई है कि इससे गणगणिबन्धकी निवृत्ति हो जाती है । नैयायिकादि शुभ-अशुभ क्रियाओंसे आत्मामें ही 'अदृष्ट' नामके गुणकी उत्पत्ति मानते हैं उसीसे आगे फल मिलता है । इसे ही बन्ध कहते हैं । दूसरे शब्दोंमें यही गुणगुणिबन्ध कहलाता है । आत्मा गुणीमें अदृष्ट नामके उसोके गुणका सम्बन्ध हो गया। इसका व्याख्यान श्रुतसागरसूरि इस प्रकार करते हैं
"तेन गुणगणिबन्धो न भवति । यस्मिन्नेव प्रदेशे जीवस्तिष्ठति तस्मिन्नेव प्रदेशे केवलज्ञानादिकं न भवति किंतु अपरत्रापि प्रसरति ।" अर्थात्-इसलिए गुणगुणिबन्ध-गुणका गुणिके प्रदेशों तक सीमित रहना नहीं होता । जिस प्रदेशमें जीव है उसी प्रदेशमें ही केवलज्ञानादि नहीं रहते किन्तु वह अन्यत्र भी फैलता है। यहाँ, गुणगुणिबन्धका अनोखा ही अर्थ किया है, और यह दिखानेका प्रयत्न किया है कि गुणी चाहे अल्पदेशोंमें रहे पर गुण उसके साथ बद्ध नहीं है वह अन्यत्र भी जा सकता है। जो स्पष्टतः सिद्धांतसमर्थित नहीं है।
४-१० २७० १० ११ में एकेन्द्रियके भी असंप्राप्तासुपाटिका संहननका विधान किया है।
५-२७५ में सर्व मलप्रकृतियों के अनुभागको स्वमुखसे विपाक मानकर भी 'मतिज्ञानावरणका मति ज्ञानावरणरूपसे ही विपाक होता है' यह उत्तरप्रकृतिका दृष्टान्त उपस्थित किया गया है।
६-पृ० २८१ में गुणस्थानोंका वर्णन करते समय लिखा है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पहुँचनेवाला जीव प्रथम प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें ही दर्शनमोहनीयकी तीन, अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम करता है। जो सिद्धान्तविरुद्ध है क्योंकि प्रथमोशमसम्यक्त्वमें दर्शनमोहनीयकी केवल एक प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी चार इस तरह पाँच प्रकृतियोंके उपशमसे ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व बताया गया है । सातका उपशम तो जिनके एकबार सम्यक्त्व हो चुकता है उन जीवोंके दुबारा प्रथमोशमके समय होता है।
७-आदाननिक्षेपसमितिमें-मयूरपिच्छके अभावमें वस्त्रादिके द्वारा प्रतिलेखनका विधान किया गया है, यह दिगम्बर परम्पराके अनुकूल नहीं है ।
८-सूत्र ८।४७ में द्रव्यलिंगकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरिने असमर्थ मुनियोंको अपवादरूपसे वस्त्रादिग्रहण इन शब्दोंमें स्वीकार किया है
___ "केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादी कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गळन्ति, न तत प्रक्षालयन्ति, न तत् सीव्यन्ति, न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्वात् तथा
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २४९
कुर्वन्तीति व्याख्यानामाराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेण अपवादरूपं ज्ञातव्यम् । 'उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिबलवान्' इत्युत्सर्गेण तावद् यथोक्तमाचे लक्यं प्रोक्तमस्ति, आर्यासमर्थदोषवच्छरीराद्यपेक्षया अपवादव्याख्याने न दोषः ।"
अर्थात् भगवती आराधनाके अभिप्रायानुसार असमर्थ या दोषयुक्त शरीरवाले साधु शीतकालमें वस्त्र ले लेते हैं, पर वे न तो उसे धोते हैं न सीते हैं और न उसके लिए प्रयत्न ही करते हैं, दूसरे समयमें उसे छोड़ देते हैं। उत्सर्गलिंग तो अचेलकता है पर आर्या असमर्थ और दोषयुक्त शरीरवालोंकी अपेक्षा अपवादलिंगमें भी दोष नहीं है।
भगवती आराधना (गा० ४२१ ) की अपराजितसूरिकत विजयोदया टीकामें कारणापेक्ष यह अपवादमार्ग स्वीकार किया गया है । इसका कारण स्पष्ट है कि अपराजितसूरि यापनीयसंघके आचार्य थे और यापनीय आगमवाचनाओंको प्रमाण मानते थे। उन आगमोंमें आए हुए उल्लेखोंके समन्वयके लिए अपराजितसूरिने यह व्यवस्था स्वीकार की है। परन्तु श्रुतसागरसूरि तो कट्टर दिगम्बर थे, वे कैसे इस चक्करमें आ गये ?
भाषा और शैली-तत्त्वार्थवृत्तिकी शैली सरल और सुबोध है। प्रत्येक स्थानमें नतन पर सुमिल शब्दोंका प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। सैद्धान्तिक बातोंका खुलासा और दर्शनगुत्थिर्यो के सुलझानेका प्रयत्न स्थान-स्थानपर किया गया है । भाषाके ऊपर तो श्रुतसागरसूरिका अद्भुत अधिकार है । जो क्रिया एक जगह प्रयुक्त है वही दूसरे वाक्यमें नहीं मिल सकती। प्रमाणोंको उद्धृत करने में तो इनके श्रुतसागरत्वका पूरा पूरा परिचय मिल जाता है। इस वृत्तिमें निम्नलिखित ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका उल्लेख नाम लेकर किया गया है । अनिर्दिष्टकर्तृक गाथाएँ और श्लोक भी इस वृत्तिमें पर्याप्त रूपमें संगृहीत हैं। इस वृत्तिमें उमावामी ( उमास्वाति भी ) समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंकदेव, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र, नेमिचन्द्र देव, योगीन्द्र देव, मतिसागर, देवेन्द्रकीर्तिभट्टारक आदि ग्रन्थकारोंके तथा सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, अष्टसहस्री, भगवतीआराधना, संस्कृतमहापुराणपंजिका, प्रमेयकमलमात्तंण्ड, न्यायकूम दचन्द्र आदि ग्रन्थोंके नामोल्लेख है। इनके अतिरिक्त सोमदेवके यशस्तिलकचम्पू, आशाधरके प्रतिष्ठापाठ, वसुनन्दिश्रावकाचार, आत्मानुशासन, आदिपुराण, त्रिलोकसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, पंचसंग्रह, प्रमेयकमलमार्तण्ड, बारसअणुवेक्खा, परमात्मप्रकाश, आराधनासार, गोम्मटसार, बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्रुतभक्ति, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, नीतिसार, द्रव्यसंग्रह, कातन्त्रसूत्र, सिद्धभक्ति, हरिवंशपुराण, षड्दर्शनसमुच्चय, पाणिनिसूत्र , इष्टोपदेश, न्यायसंग्रह ज्ञानार्णव, अष्टांगहृदय, द्वात्रिंशद्वात्रिंशतिका, शाकटायनव्याकरण, तत्त्वसार, सागारधर्मामत आदि ग्रन्थोंके श्लोक गाथा आदि उद्धृत किये गये हैं।
इस प्रकार यह वत्ति अतिशयपाण्डित्लपूर्ण और प्रमाणसंग्रहा है। श्रुतसागरसूरिने इसे सर्वोपयोगी बनानेका पूरा प्रयत्न किया है।
ग्रन्थकार इस विभागमें सूत्रकार उमास्वामी और वृत्तिकारके समय आदिका परिचय कराना अवसर प्राप्त है। सत्रकार उमास्वामीके संबंधमें अनेक विवाद है-वे किस आम्नायके थे? क्या तत्त्वार्थभाष्यके अन्तमें पाई जानेवालो प्रशस्ति उनकी लिखो है ? क्या तत्त्वार्थभाष्य स्वोपज्ञ नहीं है ? मूल सूत्रपाठ कौन है ? वे कब हुए थे ? आदि । इन संबंधमें श्रीमान् पं० सुखलालजीने अपने तत्त्वार्थसत्रकी प्रस्तावनामें पर्याप्त विवेचन किया है और उमास्वामीको श्वे० परम्पराका बताया है, तत्वार्थभाष्य स्वोपज्ञ है और उसकी प्रशस्तिमें सन्देह करनेका कोई कारण नहीं है। इनने उमास्वामीके समयकी अवधि विक्रमकी दूसरीसे पाँचवीं सदी तक निर्धारित की है।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने भारतीय विद्याके सिंधी स्मति अंकमें "उमास्वातिका तत्त्वार्थसत्र और उनका सम्प्रदाय" शीर्षक लेखमें उमास्वातिको यापनोय संघका आचार्य सिद्ध किया है। इसके प्रमाणमें उनने मैसूरके नगरतालुके ४६ नं ० के शिलालेखमें आया हुआ यह श्लोक उद्धृत किया है
"तत्त्वार्थसूत्रकर्तारम् उमास्वामिमुनीश्वरम् ।
श्रुतिकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ॥" इस श्लोकमें उमास्वामीको ‘श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण दिया है और यही विशेषण यापनीयसंघाग्रणी शाकटायन आचार्यको भी लगाया जाता है। अतः उमास्वामी यापनीयसंघकी परम्परामें हुए हैं। इधर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार उमास्वामीको दिगम्बर परम्पराका स्वीकार करते हैं तथा भाष्यको स्वोपज्ञ नहीं मानते । यद्यपि यह भाष्य अकलंकदेवसे पुराना है क्योंकि इनने राजवार्तिकमें भाष्यगत कारिकाएँ उद्धृत की हैं और भाष्यमान्य सूत्रपाठकी आलोचना की है तथा भाष्यकी पंक्तियोंको वार्तिक भी बनाया है।
___ इस तरह तत्त्वार्थसूत्र, भाष्य और उमास्वामीके सम्बन्धके अनेक विवाद हैं जो गहरी छानबीन और स्थिर गवेषणाकी अपेक्षा रखते हैं।
वृत्तिकर्ता श्रुतसागरसूरि वि० १६वीं शताब्दीके विद्वान् हैं । इनके समय आदिके सम्बन्धमें श्रीमान् प्रेमीजीने 'जैन साहित्य और इतिहास' में सांगोपांग विवेचन किया है। उनका वह लेख यहाँ साभार उद्धृत किया जाता है।
श्रुतसागरसूरि ये मलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणमें हुए हैं और इनके गुरुका नाम विद्यानन्दि था । विद्यानन्दिदेवेन्द्रकीतिके और देवेन्द्रकीर्ति पद्मनन्दिके' शिष्य और उत्तराधिकारी थे । विद्यानन्दिके बाद मल्लिभषण और उनके बाद लक्ष्मीचन्द्र भट्टारक-पदपर आसीन हुए थे। श्रुतसागर शायद गद्दीपर बैठे ही नहीं, फिर भी वे भारी विद्वान् थे । मल्लिभूषणको उन्होंने अपना गुरुभाई लिखा है।
विद्यानन्दिका भट्टारक-पट्ट गुजरातमें ही किसी स्थानपर था, परन्तु कहाँ पर था, इसका उल्लेख नहीं मिला।
__ श्रतसागरके भी अनेक शिष्य होंगे, जिनमें एक शिष्य श्रीचन्द्र थे जिनकी बनाई हुई वैराग्यमणिमाला उपलब्ध है। आराधनाकथाकोश, नेमिपुराण आदि ग्रन्थोंके कर्ता ब्रह्म नेमिदत्तने भी जो मल्लिभषणके शिष्य थे-श्रुतसागरको गुरुभावसे स्मरण किया है और मल्लिभूषणकी वही गुरुपरम्परा दी है जो श्रुतसागरके ग्रन्थों में मिलती है। उन्होंने सिंहनन्दिका भी उल्लेख किया है जो मालवाकी गददीके भटटारक थे और जिनकी प्रार्थनासे श्रुतसागरने यशस्तिलककी टीका लिखी थी।
श्रुतसागरने अपनेको कलिकालसर्वज्ञ, कलिकालगौतम, उभयभाषाकविचक्रवर्ती, व्याकरणकमलमार्तण्ड,
१. ये पद्मनन्दि वही मालूम होते हैं जिनके विषयमें कहा जाता है कि गिरिनार पर सरस्वती देवीसे उन्होंने
करला दिया था कि दिगम्बर पन्थ ही सच्चा है। इन्हींकी एक शिष्य शाखामें सकलकीर्ति. विजयकीर्ति
और शुभचन्द्र भट्टारक हुए हैं। २. इनकी गद्दी सूरतमें थी । देखो 'दानवीर माणिक चन्द्र' पृ० ३७ ।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २५१ तार्किक शिरोमणि, परमागमप्रवीण, नवनवतिमहामहावादिविजेता आदि विशेषणोंसे अलंकृत किया है । ये विशेषण उनकी अहम्मन्यताको खूब अच्छी तरह प्रकट करते हैं ।
वे कट्टर तो थे ही, असहिष्णु भी बहुत ज्यादा थे । अन्य मतोंका खण्डन और विरोध तो औरोंने भी किया है, परन्तु इन्होंने तो खण्डनके साथ बुरी तरह गालियाँ भी दी हैं । सबसे ज्यादा आक्रमण इन्होंने मूर्तिपूजा न करनेवाले लोंकागच्छ (ढूंढ़ियों) पर किया है । "
अधिकतर टीकाग्रन्थ ही श्रुतसागरने रचे हैं, परन्तु उन टीकाओंमें मूल ग्रन्थकर्ता के अभिप्रायोंकी अपेक्षा उन्होंने अपने अभिप्रायोंको ही प्रधानता दी है। दर्शनपाहुडकी २४वीं गाथाकी टीकामें उन्होंने जो अपवाद वेषकी व्याख्या की है, वह यही बतलाती है । वे कहते हैं कि दिगम्बर मुनि चर्याके समय चटाई आदिसे अपने नग्नत्वकी ढाँक लेता है । परन्तु यह उनका खुदका ही अभिप्राय है, मूलका नहीं । इसी तरह तत्त्वार्थटीका ( संयमश्रुत प्रतिसेवनादि सूत्रकी टीका ) में जो द्रव्यलिंगी मुनिको कम्बलादि ग्रहणका विधान किया है वह भी उन्होंका अभिप्राय है, मूल ग्रन्थकर्ताका नहीं ।
श्रुतसागर के ग्रन्थ
१ - यशस्तिलकचन्द्रिका - आचार्य सोमदेव के प्रसिद्ध यशस्तिलक चम्पूकी यह टीका है और निर्णयसागर प्रेसको काव्यमाला में प्रकाशित हो चुकी है । यह अपूर्ण है। पांचवें आश्वासके थोड़ेसे अंशकी टीका नहीं है । जान पड़ता है, यही उनकी अन्तिम रचना है। इसको प्रतियाँ अन्य अनेक भण्डारोंमें उपलब्ध हैं, परन्तु सभी अपूर्ण हैं |
२ - तत्त्वार्थ वृत्ति - यह श्रुतसागरटीकाके नामसे अधिक प्रसिद्ध है। इसकी एक प्रति बम्बईके ऐ० पन्नालाल सरस्वती भवनमें मौजूद है जो वि० सं० १८४२ की लिखी हुई है । श्लोकसंख्या नौ हजार है । इसकी एक भाषावचनिका भी हो चुकी है ।
३–तत्त्वत्रयप्रकाशिका— श्री शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णव या योगप्रदीपके अन्तर्गत जो गद्यभाग है, यह उसीकी टीका है । इसकी एक प्रति स्व० सेठ माणिकचन्द्रजीके ग्रन्थ संग्रहमें है ।
४- जिनसहस्रनामटीका — यह पं० आशाधरकृत सहस्रनामकी विस्तृत टीका है। इसकी भी एक प्रति उक्त सेठजीके ग्रन्थ संग्रह में है । पं० आशाधरने अपने सहस्रनामकी स्वयं भी एक टीका लिखी है जो उपलब्ध है ।
५ - औदार्य चिन्तामणि - यह प्राकृतव्याकरण हैं और हेमचन्द्र तथा त्रिविक्रमके व्याकरणोंसे बड़ा है । इसकी प्रति बम्बई के ऐ० पन्नालाल सरस्वती भवन में है ( ४६८ क ), जिसकी पत्रसंख्या ५६ है । यह स्वोपज्ञवृत्तियुक्त है ।
६ - महाभिषेक टीका — पं० आशावर के नित्यमहोद्योतकी यह टीका है । यह उस समय बनाई गई है। जबकि श्रुतसागर देशव्रती या ब्रह्मचारी थे ।
७ - व्रतकथाकोश — इसमें आकाशपञ्चमी, मुकुटसप्तमी, चन्दनषष्ठी, अष्टाह्निका आदि व्रतोंकी कथायें है । इसकी भी एक प्रति बम्बई के सरस्वती भवनमें है और यह भी उनकी देशव्रती या ब्रह्मचारी अवस्थाकी रचना है ।
८- श्रुतस्कन्धपूजा - यह छोटी-सी नौ पत्रोंकी पुस्तक है। इसकी भी एक प्रति बंबई के सरस्वतीभवनमें है ।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२ : डॉ॰ महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
इसके सिवाय श्रुतसागरके और भी कई ग्रन्थोंके ' नाम ग्रन्थसूचियोंमें मिलते हैं । परन्तु उनके विषयमें जबतक वे देख न लिये जायँ, निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता । समय विचार
इन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थ में रचनाका समय नहीं दिया है परन्तु यह प्रायः निश्चित है कि ये विक्रमकी १३वीं शताब्दीमें हुए हैं। क्योंकि -
१- महाभिषेककी टीकाकी जिस प्रतिकी प्रशस्ति आगे दी गई है वह विक्रम संवत् १५८२ की लिखी हुई है और वह भट्टारक मल्लिभूषणके उत्तराधिकारी लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मचारी ज्ञानसागरके पढ़नेके लिये दान की गई है और इन लक्ष्मीचन्द्रका उल्लेख श्रुतसागरने स्वयं अपने टीका ग्रन्थोंमें कई जगह किया है ।
२ - ० नेमिदत्त ने श्रीपालचरित्रकी रचना वि० सं० १५८५ में की थी और वे मल्लिभूषण के शिष्य थे । आराधनाकथाकोशको प्रशस्ति में उन्होंने मल्लिभूषणका 'गुरु रूपमें उल्लेख किया है और साथ ही श्रुतसागरका भी जयकार किया है, अर्थात् कथाकोशकी रचनाके समय श्रुतसागर मौजूद थे ।
३- स्व० बाबा दुलीचन्दजीकी सं० १९५४ में लिखी गई ग्रन्थसूची में श्रुतसागरका समय वि० सं० १५५० लिखा हुआ है ।
४- षट्प्राभृतटीका में लोंकागच्छपर तीव्र आक्रमण किये गये हैं और यह गच्छ वि० सं० १५३० के लगभग स्थापित हुआ भा । अतएव उससे ये कुछ समय पीछे ही हुए होंगे । सम्भव ये लोकशाह समकालीन ही हों । *
१. पं० परमानन्दजीने अपने लेख में सिद्धभक्ति टीका, सिद्धचक्राष्टक पूजा टीका, श्रीपालचरित, यशोधरचरित ग्रन्थोंके भी नाम दिए हैं । इन्होंने व्रतकथाकोशके अन्तर्गत २४ कथाओंको स्वतन्त्र ग्रन्थ मानकर ग्रन्थ संख्या ३६ कर दी है । इसका कारण बताया है कि चूंकि भिन्न-भिन्न कथाएं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए विभिन्न व्यक्तियोंके अनुरोधसे बनाई हैं अतः वे सब स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं । यथा पल्यविधान व्रतकथा ईडरके राठौर वंशी राजा भानुभूपति ( समय वि० सं० १५५२ के बाद ) के राज्यकालमें मल्लिभूषण गुरुके उपदेशसे रची गई है ।
२. श्री भट्टारक मल्लिभूषणगुरुर्भूयात्सतां शर्मणे ॥ ६ ॥
३. जीयान्मे सूरिवर्यो व्रतिनिचयलसत्पुण्यपण्यः श्रु ताब्धिः ॥ ७१ ॥ ४. पं० परमानन्दजी सरसावाने अपने ब्रह्मश्र ुतसागर और उनका साहित्य लेखमें लिखा है कि- भट्टारक विद्यानन्दिके वि० सं० १४९९ से वि० १५२३ तक के ऐसे मूर्ति लेख पाए जाते हैं जिनकी प्रतिष्ठाएँ विद्यानन्दिने स्वयं की हैं अथवा जिनमें आ० विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित होनेका समुल्लेख पाया जाता है आदि । श्रीमान् प्रेमीजीकी सूचनानुसार मैंने मूर्ति लेखोंकी खोज की तो नाहरजी कृत जैनलेखसंग्रह लेख नं० १८० में संवत् १५३३ में विद्यानन्द भट्टारकका उल्लेख है तथा संवत् १५३५ में विद्यानन्दि गुरुका उल्लेख है । इसी तरह 'दानवीर माणिकचन्द' एक धातु की प्रतिमाका लेख सं० १४२९ का है जिसमें विद्यानन्दि गुरुका उल्लेख है ठीक है तो भट्टारक विद्यानन्दिका समय १४२९ से १५३४ तक मानना होगा और सागरका समय भी १६वीं सदी ।
।
लेख नं० २८६ में
पुस्तक पृ० ४ पर
यदि यह संवत् इनके शिष्य श्रुत
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : २५३
ग्रन्थ-प्रशस्तियाँ श्री विद्यानन्दिगुरोर्बुद्धिगुरोः पादपङ्कजभ्रमरः ।
श्री श्रुतसागर इति देशव्रती तिलकष्टीकते स्मेदम् ।। इति ब्रह्मश्रीश्र तसागर कृता महाभिषेक टीका समाप्ता । २- संवत् १५५२ वर्षे चैत्रमासे शक्लपक्षे पञ्चम्यां तिथौ रवी श्रीआदिजिनचैत्यालय श्रीमलसंये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनन्दिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीदेवेन्द्रकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीविद्यानन्दिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीमल्लिभूषणदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रदेवास्तेषां शिष्यवरब्रह्मश्रीज्ञानसागरपठनाथं आर्याश्रीविमलचेली भट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रदीक्षिता विनयश्रिया स्वयं लिखित्वा प्रदत्तं महाभिषेकभाष्यम् । शुभं भवतु । कल्याणं भूयात् श्रीरस्तु ।।
-आशाधरकृतमहाभिषेककी टीका' ३- इति श्रीपद्मनन्दि-देवेन्द्रकीति-विद्यानन्दि-मल्लिभूषणाम्नायेन भट्टारकश्रीमल्लिभूषणगुरुपरमाभीष्टगुरुभ्रत्रा गुर्जररदेशसिंहासनस्थभट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्र काभिमतेन मालवदेशभट्टारकश्रीसिंहनन्दिप्रार्थनया यतिश्रीसिद्धान्तसागरव्याख्याकृतिनिमित्तं नवनवतिमहावादिस्याद्वादलब्धविजयेन तर्क-व्याकरणछन्दोलंकारसिद्धान्तसाहित्यादिशास्त्रनिपुणमतिना व्याकरणाद्यनेकशास्त्रचुञ्चुना सूरिश्रीश्र तसागरेण विरचितायां यशस्तिलकचन्द्रिकाभिधानायां यशोधरमहाराजचरितचम्पमहाकाव्यटीकायां यशोधरमहाराजराजलक्ष्मी विनोदवर्णनं नाम ततीयाश्वासचन्द्रिका परिसमाप्ता ।
-यशस्तिलकटीका श्रीपद्मनन्दिपरमात्मपरः पवित्रो देवेन्द्रकीतिरथ साधुजनाभिवन्द्यः । विद्यादिनन्दिवरसूरिरनल्पबोधः श्रीमल्लिभषण इतोऽस्तु च मङ्गलं मे ।। अदः पट्टे भट्टादिकमतघटापट्टनपटु
घटद्धर्मव्याप्तः स्फुटपरमभट्टारकपदः । प्रभापुञ्जः सयद्विजितवरवीरस्मरनरः
सुधीलक्ष्मीचन्द्रश्चरणचतुरोऽसौ विजयते ।। ३ ।। आलम्बनं सुविदुषां हृदयाम्बुजानामानन्दनं मुनिजनस्य विमुक्तिसेतोः । सट्टीकनं विविधशास्त्रविचारचारुचेतश्चमत्कृत्कृतं श्र तसागरेण ॥ ४ ॥
श्रु तसागरकृतिवरवचनामृतपानमत्र यविहितम् । जन्मजरामरणहरं निरन्तरं तैः शिवं लब्धम् ।। ५ ॥ अस्ति स्वस्ति समस्तसङ्घतिलकं श्रीमूलसङ्घोऽनघं, वृत्तं यत्र मुमुक्षुवर्गशिवदं संसेवितं साधुभिः । विद्यानन्दिगुरुस्त्विहास्ति गुणवद्गच्छे गिरः साम्प्रतं,
तच्छिष्यश्रु तसागरेण रचिता टीका चिरं नन्दतु ।। ६ ।। इति सूरिश्रीश्रुतसागरविरचितायां जिननामसहस्रटीकायाम् तकृच्छतविवरणो नाम दशमोऽध्यायः ॥१०॥ श्रीविद्यानन्दिगुरुभ्यो नमः ।
-जिनसहस्रनामटीका १. स्व० सेठ माणिकचन्द्र जी जौहरीके भण्डारकी प्रति ।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________ 254 : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ आचार्यैरिह शुद्धतत्त्वमतिभिः श्रीसिंहनन्द्याह्वयः सम्प्रायं श्र तसागरं कृतिवरं भाष्यं शभं कारितम / गद्यानां गुणवत्प्रियं विनयतो ज्ञानार्णवस्यान्तरे विद्यानन्दिगुरुप्रसादजनितं देयादमेयं सुखम् // इति श्री ज्ञानार्णवस्थितगद्यटीका तत्त्वत्रयप्रकाशिका समाप्ता / -तत्त्वत्रयप्रकाशिका इत्युभयभाषाकविचक्रवर्तिव्याकरणकमलमार्तण्डतार्किकशिरोमणि-परमागमप्रवीण-सूरिश्रीदेवेन्द्रकीर्तिप्रशिष्यमुमुक्षुविद्यानन्दिभट्टारकान्तेवासि धीमूलसंघपरमात्मविदुष (?) सूरिश्रीश्रु तसागरविरचिते औदार्यचिन्तामणिनाम्नि स्वोपज्ञवत्तिनि प्राकृतव्याकरणे संयुक्ताव्ययनिरूपणो नाम द्वितीयोऽयायः / -औदार्य चिन्तामणि सुदेवेन्द्रकीर्तिश्च विद्यादिन्दी गरीयान् गुरुर्मेऽहंदादिप्रबन्दी / तयोविद्धि मां मलसङ्घ कुमारं श्र तस्कन्धमीडे त्रिलोकैकसारम् // सम्यक्त्वसुरत्नं सकलजन्तुकरुणाकरणम् / श्रतसागरमेतं भजत समेतं निखिलजने परितः शरणम् / / -इति श्रु तस्कन्धपूजाविधिः / TESHA NAVS TREN