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२५२ : डॉ॰ महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
इसके सिवाय श्रुतसागरके और भी कई ग्रन्थोंके ' नाम ग्रन्थसूचियोंमें मिलते हैं । परन्तु उनके विषयमें जबतक वे देख न लिये जायँ, निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता । समय विचार
इन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थ में रचनाका समय नहीं दिया है परन्तु यह प्रायः निश्चित है कि ये विक्रमकी १३वीं शताब्दीमें हुए हैं। क्योंकि -
१- महाभिषेककी टीकाकी जिस प्रतिकी प्रशस्ति आगे दी गई है वह विक्रम संवत् १५८२ की लिखी हुई है और वह भट्टारक मल्लिभूषणके उत्तराधिकारी लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मचारी ज्ञानसागरके पढ़नेके लिये दान की गई है और इन लक्ष्मीचन्द्रका उल्लेख श्रुतसागरने स्वयं अपने टीका ग्रन्थोंमें कई जगह किया है ।
२ - ० नेमिदत्त ने श्रीपालचरित्रकी रचना वि० सं० १५८५ में की थी और वे मल्लिभूषण के शिष्य थे । आराधनाकथाकोशको प्रशस्ति में उन्होंने मल्लिभूषणका 'गुरु रूपमें उल्लेख किया है और साथ ही श्रुतसागरका भी जयकार किया है, अर्थात् कथाकोशकी रचनाके समय श्रुतसागर मौजूद थे ।
३- स्व० बाबा दुलीचन्दजीकी सं० १९५४ में लिखी गई ग्रन्थसूची में श्रुतसागरका समय वि० सं० १५५० लिखा हुआ है ।
४- षट्प्राभृतटीका में लोंकागच्छपर तीव्र आक्रमण किये गये हैं और यह गच्छ वि० सं० १५३० के लगभग स्थापित हुआ भा । अतएव उससे ये कुछ समय पीछे ही हुए होंगे । सम्भव ये लोकशाह समकालीन ही हों । *
१. पं० परमानन्दजीने अपने लेख में सिद्धभक्ति टीका, सिद्धचक्राष्टक पूजा टीका, श्रीपालचरित, यशोधरचरित ग्रन्थोंके भी नाम दिए हैं । इन्होंने व्रतकथाकोशके अन्तर्गत २४ कथाओंको स्वतन्त्र ग्रन्थ मानकर ग्रन्थ संख्या ३६ कर दी है । इसका कारण बताया है कि चूंकि भिन्न-भिन्न कथाएं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए विभिन्न व्यक्तियोंके अनुरोधसे बनाई हैं अतः वे सब स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं । यथा पल्यविधान व्रतकथा ईडरके राठौर वंशी राजा भानुभूपति ( समय वि० सं० १५५२ के बाद ) के राज्यकालमें मल्लिभूषण गुरुके उपदेशसे रची गई है ।
२. श्री भट्टारक मल्लिभूषणगुरुर्भूयात्सतां शर्मणे ॥ ६ ॥
३. जीयान्मे सूरिवर्यो व्रतिनिचयलसत्पुण्यपण्यः श्रु ताब्धिः ॥ ७१ ॥ ४. पं० परमानन्दजी सरसावाने अपने ब्रह्मश्र ुतसागर और उनका साहित्य लेखमें लिखा है कि- भट्टारक विद्यानन्दिके वि० सं० १४९९ से वि० १५२३ तक के ऐसे मूर्ति लेख पाए जाते हैं जिनकी प्रतिष्ठाएँ विद्यानन्दिने स्वयं की हैं अथवा जिनमें आ० विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित होनेका समुल्लेख पाया जाता है आदि । श्रीमान् प्रेमीजीकी सूचनानुसार मैंने मूर्ति लेखोंकी खोज की तो नाहरजी कृत जैनलेखसंग्रह लेख नं० १८० में संवत् १५३३ में विद्यानन्द भट्टारकका उल्लेख है तथा संवत् १५३५ में विद्यानन्दि गुरुका उल्लेख है । इसी तरह 'दानवीर माणिकचन्द' एक धातु की प्रतिमाका लेख सं० १४२९ का है जिसमें विद्यानन्दि गुरुका उल्लेख है ठीक है तो भट्टारक विद्यानन्दिका समय १४२९ से १५३४ तक मानना होगा और सागरका समय भी १६वीं सदी ।
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लेख नं० २८६ में
पुस्तक पृ० ४ पर
यदि यह संवत् इनके शिष्य श्रुत
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