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१८६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ महापृथ्वीमें, जल-जलमें, तेज-तेजमें, वायु-वायुमें और इंद्रियाँ आकाशमें लीन हो जाती हैं। लोग मरे हुए मनुष्यको खाटपर रखकर ले जाते हैं, उसकी निन्दा प्रशंसा करते हैं। हड्डियाँ उजली हो बिखर जाती हैं और सब कुछ भस्म हो जाता है। मुर्ख लोग जो दान देते हैं उसका कोई फल नहीं होता। आस्तिकवाद झूठा है । मर्ख और पंडित सभी शरीरके नष्ट होते ही उच्छेदको प्राप्त हो जाते हैं। मरने के बाद कोई नहीं रहता।"
इस तरह अजितका मत उच्छेद या भौतिकवादका प्रख्यापक था।
२-मक्खलिगोशालका मत-"सत्त्वोंके क्लेशका कोई हेतु नहीं है, प्रत्यय नहीं है। बिना हेतुके और बिना प्रत्ययके ही सत्त्व क्लेश पाते हैं । सत्त्वोंकी शुद्धिका कोई हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है । बिना हेतुके और बिना प्रत्ययके सत्त्व शुद्ध होते हैं। अपने कुछ नहीं कर सकते हैं, पराये भी कुछ नहीं कर सकते हैं, ( कोई ) पुरुष भी कुछ नहीं कर सकता है, बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुषका कोई पराक्रम नहीं है। सभी सत्त्व, सभी प्राणी, सभी भूत और सभी जीव अपने वशमें नहीं है, निर्बल, निर्वीर्य, भाग्य और संयोगके फेरसे छै जातियोंमें उत्पन्न हो सुख और दुःख भोगते हैं। वे प्रमुख योनियां चौदह लाख छियासठ सौ हैं। पांच सौ पाँच कर्म, तीन अधं कम ( केवल मनसे शरीरसे नहीं), बासठ प्रतिपदाएँ (मार्ग ), बासठ अन्तरकल्प, छै अभिजातियाँ, आठ पुरुषभ मियाँ, उन्नीस सौ आजीवक, उनचास सौ परिव्राजक, उनचास सौ नाग-आवास, बीस सौ इंदियां, तीस सौ नरक, छत्तीस रजोधातु, सात संज्ञी ( होशवाले ) गर्भ सात, असंज्ञी गर्भ, सात निर्ग्रन्थ गर्भ, सात देव, सात मनुष्य, सात पिशाच, सात स्वर, सात सौ सात गाँठ, सात सौ सात प्रपात, सात सौ सात स्वप्न, और अस्सी लाख छोटे बड़े कल्प है, जिन्हें मर्ख और पंडित जानकर और अनुगमनकर दुःखोंका अंत कर सकते हैं। वहाँ यह नहीं है-इस शील या व्रत या तप, ब्रह्मचर्यसे मैं अपरिपक्व कर्मको परिपक्व करूंगा। परिपक्व कर्मको भोगकर अन्त करूंगा। सुख दुःख द्रोण (-नाप) से तुले हुए हैं, संसारमें घटना-बढ़ना उत्कर्ष, अपकर्ष नहीं होता। जैसे कि सतकी गोली फेंकनेपर उछलती हुई गिरती है, वैसे ही मूर्ख और पंडित दौड़कर-आवागमनमें पड़कर, दुःखका अन्त करेंगे।"
गोशालक पूर्ण भाग्यवादी था । स्वर्ग, नरक आदि मानकर भी उनकी प्राप्ति नियत समझता था, उसके लिए पुरुषार्थ कोई आवश्यक या कार्यकारी नहीं था। मनुष्य अपने नियत कार्यक्रमके अनुसार सभी योनियों में पहुँच जाता है । यह मत पूर्ण नियतिवादका प्रचारक था।
३-पूरण कश्यप-“करते कराते, छेदन करते, छेदन कराते, पकाते पकवाते, शोक करते, परेशान होते, परेशान कराते, चलते चलाते, प्राण मारते, बिना दिये लेते, सेंध काटते, गाँव लूटते, चोरी करते, बटमारी करते, परस्त्रीगमन करते, झूठ बोलते भी, पाप नहीं किया जाता । छुरेसे तेज चक्र द्वारा जो इस पथ्वीके प्राणियोंका ( कोई ) एक मांसका खलियान, एक मांसका पुञ्ज बना दे; तो इसके कारण उसको पाप नहीं, पापका आगम नहीं होगा। यदि घात करते कराते, काटते, कटाते, पकाते पकवाते, गंगाके दक्षिण तीरपर भी जाये; तो भी इसके कारण उसको पाप नहीं, पापका आगम नहीं होगा। दान देते, दान दिलाते, यज्ञ करते, यज्ञ कराते, यदि गंगाके उत्तर नीर भी जाये, तो इसके कारण उसको पुण्य नहीं, पुण्यका आगम नहीं होगा। दान दम संयमसे, सत्य बोलनेसे न पुण्य है, न पुण्यका आगम है।"
पूरण कश्यप परलोकमें जिनका फल मिलता है ऐसे किसी भी कर्मको पुण्य या पापरूप नहीं समझता था। इस तरह पूरण कश्यप पूर्ण अक्रियावादी था।
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