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४ / विशिष्ट निबन्ध : २१९ बकरे की बलि चढ़ाता है तो क्यों उसे हिंसक कहा जाय - 'देवीकी ऐसी ही पर्याय होनी थी, बकरेके गलेको कटना ही था, छुरेको उसको गर्दन के भीतर घुसना ही था, ब्राह्मणके मुहमें मांस जाना ही था, वेदमें ऐसा लिखा ही जाना था।' इस तरह पूर्वनिश्चित योजनानुसार जब घटनाएँ घट रही हैं तब उस विचारेको क्यों हत्यारा कहा जाय ? हत्याकाण्डरूपी घटना अनेक द्रव्योंके सुनिश्चित परिणमनका फल है। जिस प्रकार ब्राह्मणके छुरेका परिणमन बकरके गलेके भीतर घुसने का नियत था उसी प्रकार बकरके गलेका परिणमन भी अपने भीतर छुरा घुसवानेका निश्चित था । जब इन दोनों नियत घटनाओंका परिणाम बकरेका बलिदान है। तो इसमें क्यों ब्राह्मणको हत्यारा कहा जाय ? किसी स्त्रीका शील भ्रष्ट करनेवाला व्यक्ति क्यों दुराचारी गुण्डा कहा जाय ? स्त्रीका परिणमन ऐसा ही होना था और पुरुषका भी ऐसा ही दोनों के नियत परिणमनोंका नियत मेलरूप दुराचार भी नियत ही था फिर उसे गुण्डा और दुराचारी क्यों कहा जाय ? इस तरह इस श्रोत्र विषरूप जिसके सुनने से ही हम तो एक महानियति चक्रके अंश हैं और उसके परिचलनके अनुसार प्रतिक्षण चल रहे हैं । यदि हिंसा करते हैं तो नियत है, व्यभिचार करते हैं तो नियत है, चोरी करते हैं तो नियत है, पापचिन्ता करते हैं तो नियत है । हमारा पुरुषार्थ कहाँ होगा ? कोई भी क्षण इस नियति भूतकी मौजूदगी से रहित नहीं है, जब हम साँस लेकर कुछ अपना भविष्य निर्माण कर सकें ।
भविष्य निर्माण कहाँ ? इस नियतिवादमें भविष्य निर्माणकी सारी योजनाएँ हवा । जिसे हम भविष्य कहते हैं वह भी नियतिचक्रमें सुनिश्चित है और होगा ही । जैन दृष्टि तो यह कहती है कि तुममें उपादान योग्यता प्रति समय अच्छे और बुरे बनने की, सत् और असत् होने की है, जैसा पुरुषार्थं करोगे, जैसी सामग्री जुटाओगे अच्छे बुरे भविष्यका निर्माण स्वयं कर सकोगे ।" पर जब नियतिचक्र निर्माण करने की बातपर ही कुठाराघात करके उसे नियत या सुनिश्चित कहता है तब हम क्या पुरुषार्थ करें ? हमारा हमारे ही परिणमनपर अधिकार नहीं है क्योंकि वह नियत है । पुरुषार्थ भ्रष्टताका इससे व्यापक उपदेश दूसरा नहीं हो सकता । इस नियतिचक्रमें सबका सब कुछ नियत है उसमें अच्छा क्या ? बुरा क्या ? हिंसा और अहिंसा क्या ?
सबसे बड़ा अस्त्र सर्वज्ञत्व-नियतिवादी या तथोक्त अध्यात्मवादियों का सबसे बड़ा तर्क है कि'सर्वज्ञ है या नहीं ? यदि सर्वज्ञ है तो वह त्रिकालज्ञ होगा अर्थात् भविष्यज्ञ भी होगा । फलतः वह प्रत्येक पदार्थका अनन्तकाल तक प्रतिक्षण जो होना है उसे ठोक रूपमें जानता है । इस तरह प्रत्येक परमाणुकी प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है उनका परस्पर जो निमित्तनैमित्तिकजाल है वह भी उसके ज्ञानके बाहिर नहीं है ।' सर्वज्ञ माननेका दूसरा अर्थ है नियतिवादी होना । पर आज जो सर्वज्ञ नहीं मानते उनके सामने हम नियतितन्त्रको कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? जिस अध्यात्मवादके मूलमें हम नियतिवादको पनपाते हैं उस अध्यात्मदृष्टिसे सर्वज्ञता व्यवहारनयकी अपेक्षासे है । निश्चयनयसे तो आत्मज्ञतामें ही उसका पर्यवसान होता है, जैसा कि स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसार (गा. १५८ ) में लिखा है
"जादि पस्सदि सव्वं व्यवहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पाणं ॥ "
अर्थात् — केवली भगवान् व्यवहारनयसे सब पदार्थोंको जानते देखते हैं । निश्चयसे केवलज्ञानी अपनी आत्माको ही जानता देखता है ।
अध्यात्मशास्त्रगत निश्चयनयकी भूतार्थना और परमार्थता तथा व्यवहारनयकी अभूतार्थता और
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