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४ / विशिष्ट निबन्ध : २०९ आत्मविकासोन्मुख करना । मनःशुद्धिके बिना केवल शारीरिक ब्रह्मचर्यं न तो शरीरको ही लाभ पहुँचाता है ओर न मन और आत्मा में ही पवित्रता लाता है ।
अनुप्रेक्षा - सद्भावनाएँ आत्मविचार । ऐसी भावनाओंको सदाँ चित्तमें भाते रहना चाहिये । इन विचारोंसे सुसंस्कृत चित्त समय आनेपर विचलित नहीं हो सकता, सभी द्वन्द्वोंमें समताभाव रख सकता है। और कर्मो को रोककर संवरकी ओर ले जा सकता है ।
परोषहजय - साधकको भूख प्यास ठंड गरमी बरसात डांस मच्छर चलने फिरने सोने में आनेवाली कंकड़ आदि बाधाएँ, वध आक्रोश मल रोग आदिकी बाधाओंको शान्तिसे सहना चाहिए। नग्न रहते हुए भी स्त्री आदिको देखकर अविकृत बने रहना चाहिए । चिरतपस्या करनेपर भी यदि कोई ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त न ' तो भी तपस्या के प्रति अनादर नहीं होना चाहिए। कोई सत्कार पुरस्कार करे तो हर्ष न करे तो खेद नहीं करना चाहिए । यदि तपस्यासे कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हो गया हो तो अहंकार और प्राप्त न हुआ हो तो खेद नहीं करना चाहिए। भिक्षावृत्ति से भोजन करते हुए भी दीनताका भाव आत्मामें नहीं आने देना चाहिए । इस तरह परीषहजयसे चारित्रमें दृढ़ निष्ठा होती है और इससे आस्रव रुककर संवर होता है । चारित्र - चारित्र अनेक प्रकारका है। इसमें पूर्ण चारित्र मुनियोंका होता है तथा देशचारित्र श्रावका । मुनि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन व्रतोंका पूर्णरूपमें पालन करता है तथा श्रावक इनको एक अंशसे । मुनियोंके महाव्रत होते हैं तथा श्रावकों के अणुव्रत । इनके सिवाय सामायिक आदि चारित्र भी होते हैं । सामायिक – समस्त पापक्रियाओंका त्याग, समताभावकी आराधना । छेदोपस्थापना - यदि व्रतोंमें दूषण आ गया हो तो फिरसे उसमें स्थिर होना । परिहारविशुद्धि - इस चारित्रवाले व्यक्तिके शरीरमें इतना हलकापन आ जाता है जो सर्वत्र गमन करते हुए भी इसके शरीरसे हिंसा नहीं होती । सूक्ष्मसाम्पराय - अन्य सब कषायों का उपशम या क्षय होनेपर जिसके मात्र सूक्ष्म लोभकषाय रह जाती है उसके सूक्ष्मसाम्परायचारित्र होता है । यथाख्यातचारित्र —– जीवन्मुक्त व्यक्तिके समस्त कषायों के क्षय होनेपर होता है । जैसा आत्माका स्वरूप है वैसा ही उसका प्राप्त हो जाना यथाख्यात है । इस तरह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र आदिकी किलेबन्दी होनेपर कर्मशत्रुके प्रवेशका कोई अवसर नहीं रहता और पूर्णसंवर हो जाता 1
निर्जरा - गुप्ति आदिसे सर्वतः संवृत व्यक्ति आगामी कर्मोंके आस्रवको तो रोक ही देता है साथ ही साथ पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा करके क्रमशः मोक्षको प्राप्त करता है । निर्जरा झड़नेको कहते हैं । यह दो प्रकारकी होती है— ( १ ) औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा (२) अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा । तप आदि साधनाओं के द्वारा कर्मोंको बलात् उदयमें लाकर बिना फल दिये ही झड़ा देना अविपाक निर्जरा है । स्वाभाविक क्रमसे प्रति समय कर्मोंका फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है । यह सविपाक निर्जरा प्रतिगुप्ति, समिति और खासकर निर्जरा या औपक्रमिक निर्जरा
समय हर एक प्राणी के होती ही रहती है और नूतन कर्म बँधते जाते हैं। तपरूपी अग्निके द्वारा कर्मोंको उदयकालके पहिले ही भस्म कर देना अविपाक है । सम्यग्दृष्टि, श्रावक, मुनि, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षय करनेवाला, उपशान्तमोह गुणस्थानवाला, क्षपकश्रेणीवाले, क्षीणमोही और जीवन्मुक्त व्यक्ति क्रमशः असंख्यातगुणी कर्मोंकी निर्जरा करते हैं । 'कर्मोकी गति टल नहीं सकती' यह एकान्त नहीं है। यदि आत्मामें पुरुषार्थं हो और वह साधना करे तो समस्त कर्मोंको अन्तर्मुहूर्त में ही नष्ट कर सकता है । "नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।" अर्थात् सैकड़ों कल्पकाल बीत जानेपर भी बिना भोगे कर्मोंका क्षय नहीं हो सकता - यह मत जैनोंको ४-२७
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