Book Title: Tattvarth vrutti aur Shrutsagarsuri
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 48
________________ २३२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ से प्रत्येक सत्की अपनी क्रमवर्ती पर्यायोंका और सहभावी गुणोंका अवश्य संग्रह हो सकता है, पर दो सत्में अनुस्यूत कोई एक सत्त्व नहीं है । इस परसंग्रहके आगे तथा एक परमाणुकी वर्तमानकालीन एक अर्थपर्यायसे पहिले होनेवाले यावत् मध्यवर्ती भेदोंका व्यवहारनयमें समावेश होता है । इन अवान्तर भेदोंको न्यायवैशेषिक आदि दर्शन ग्रहण करते हैं । अर्थको अन्तिम देशकोटि परमाणुरूपता तथा चरमकालकोटि क्षणमात्रस्थापिताको ग्रहण करनेवाली बौद्ध दृष्टि ऋजुसूत्रको परिधिमें आती है । यहाँतक अर्थको सामने रखकर भेद तथा अभेद ग्रहण करनेवाले अभिप्राय बताये गये हैं । इसके आगे शब्दाश्रित विचारोंका निरूपण किया जाता है । काल, कारक, संख्या धातुके साथ लगनेवाले भिन्न-भिन्न उपसर्ग आदिकी दृष्टिसे प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंके वाच्य अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं, इस कालादिभेदसे शब्दभेद मानकर अर्थभेद माननेवाली दृष्टिका शब्दनयमें समावेश होता है । एक ही साधनमें निष्पन्न तथा एक कालवाचक भो अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं; इन पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेद माननेवाला समभिरूढनय है । एवम्भूतनय कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रियामें परिणत हो उसी समय उसमें तत्क्रियासे निष्पन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिए । इसकी दृष्टिसे सभी शब्द क्रियावाची हैं। गुणवाचक शुक्लशब्द भी शुचिभवनरूप क्रियासे, जातिवाचक अश्वशब्द आशुगमनरूप क्रियासे, क्रियावाचक चलति शब्द चलनेरूप क्रियासे, नामवाचक यदृच्छाशब्द देवदत्त आदि भी 'देवने इसको दिया' इस क्रियासे निष्पन्न हुए हैं। इस तरह ज्ञान, अर्थ और शब्दको आश्रय लेकर होनेवाले ज्ञाताके अभिप्रायोंका समन्वय इन नयोंमें किया गया है। यह समन्वय एक खास शर्त पर हुआ हैं । वह शर्त यह है कि कोई भी दृष्टि या अभिप्राय अपने प्रतिपक्षी अभिप्रायका निराकरण नहीं कर सकेगा । इतना हो सकता है कि जहाँ एक अभिप्रायकी मुख्यता रहे वहाँ दूसरा अभिप्राय गौण हो जाय । यही सापेक्षभाव नयका प्राण हैं, इसीसे नय सुनय कहलाता है । आ० समन्तभद्र आदिने सापेक्षको सुनय तथा निरपेक्षको दुर्नय बतलाया है । इस संक्षिप्त कथनमें सूक्ष्मतासे देखा जाय तो दो प्रकारकी दृष्टियाँ ही मुख्यरूपसे कार्य करती हैं। एक अभेददृष्टि और दूसरी भेददृष्टि । इन दृष्टियोंका अवलम्बन चाहे ज्ञान हो या अर्थ अथवा शब्द, पर कल्पना भेद या अभेद दो ही रूपसे की जा सकती है। उस कल्पनाका प्रकार चाहे कालिक, दैशिक या स्वारूपिक कुछ भी क्यों न हो। इन दो मूल आधारभूत दृष्टियोंको द्रव्यनय और पर्यायनय कहते हैं। अभेदको ग्रहण करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है तथा भेदग्राही पर्यायार्थिकनय है । इन्हें मूलनय कहते हैं, क्योंकि समस्त नयों के मूल आधार यही दो नय होते हैं । नैगमादिनय तो इन्हींको शाखा प्रशाखाएँ हैं । द्रव्यास्तिक, मातृका - पदास्तिक, निश्चयनय, शुद्धनय आदि शब्द द्रव्यार्थिकके अर्थ में तथा उत्पन्नास्तिक, पर्यायास्तिक, व्यवहारनय, अशुद्ध आदि पर्यायार्थिकके अर्थ में व्यवहृत होते हैं । इन नयोंमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं अल्पविषयता है । नैगमनय संकल्पग्राही होनेसे सत् असत् दोनों को विषय करता था इसलिए सन्मात्रग्राही संग्रहनय उससे सूक्ष्म एवं अल्पविषयक होता है । सन्मात्रग्राही संग्रह - नयसे सद्विशेषग्राही व्यवहार अल्पविषयक एवं सूक्ष्म हुआ । त्रिकालवर्ती सद्विशेषग्राही व्यवहारनयसे वर्तमानकालीन सद्विशेष अर्थ पर्यायग्राही ऋजुसूत्र सूक्ष्म है । शब्दभेद होनेपर भी अभिन्नार्थं ग्राही ऋजुसूत्र से कालादि भेदसे शब्दभेद मानकर भिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाला शब्दनय सूक्ष्म है। पर्यायभेद होनेपर भी अभिन्न अर्थ - को ग्रहण करनेवाले शब्दनयसे पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेदग्राही समभिरूढ़ अल्पविषयक एवं सूक्ष्मतर हुआ । क्रियाभेदसे अर्थभेद नहीं माननेवाले समभिरूढ़ से क्रियाभेद होनेपर भी अर्थभेदग्राही एवम्भूतनय परमसूक्ष्म एवं अत्यल्पविषयक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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