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४ / विशिष्ट निबन्ध : २४१
सत्यमहाभास्वर । ये देव भत और इन्द्रिय और अन्तःकरणको वशमें रखनेवाले होते हैं। इनकी आयु पहले निकायकी अपेक्षा क्रमशः दूनी है। ये देव ऊध्वरेतस् होते हैं तथा ध्यानमात्रसे तृप्त हो जाते हैं। इनका ज्ञान ऊर्ध्वलोक तथा अधोलोकमें अप्रतिहत होता है। तृतीय ब्रह्मलोक ( सत्यलोक ) में चार देवनिकाय है-अच्युत, शुद्धनिवास, सत्याभ और संज्ञा-संज्ञि। इन देवोंके घर नहीं होते। इनका निवास अपनी आत्मामें ही होता है। क्रमशः ये ऊपर स्थित हैं। प्रधान ( प्रकृति ) को वशमें रखनेवाले तथा एक सगंको आयुवाले हैं । अच्युतदेव सवितर्क ध्यानसे सुखी रहते हैं। शुद्धनिवासदेव सविचार ध्यानसे सुखी रहते हैं। सत्याभदेव आनन्दमात्र ध्यानसे सुखी रहते हैं। संज्ञासंज्ञि देव अस्मितामात्र ध्यानसे सुखी रहते हैं। ये सात लोक तथा अवान्तर सात लोक सब ब्रह्मलोक ( ब्रह्माण्ड ) के अन्तर्गत् हैं । वैदिक परम्परा श्रीमद्भागवतके आधारसे
भूलोकका वर्णन-यह भूलोक सात द्वीपोंमें विभाजित है। जिनमें प्रथम जम्बूद्वीप है। इसका विस्तार एक लाख योजन है तथा यह कमलपत्रके समान गोलाकार है।
इस द्वीपमें आठ पर्वतोंसे विभक्त नौ क्षेत्र है। प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ हजार योजन है। मध्य में इलावृत नामका क्षेत्र है। इस क्षेत्रके मध्यमें सूवर्णमय मेरु पर्वत है। मेरुकी ऊँचाई नियतयोजन प्रमाण है। मूलमें मेरु पर्वत सोलह हजार योजन पृथ्वीके अन्दर है तथा शिखर पर बत्तीस हजार योजन फैला हुआ है । मेरुके उत्तरमें नील, श्वेत तथा श्रृंगवान् ये तीन मर्यादागिरि है जिनके कारण रम्यक, हिरण्यमय और कुरुक्षेत्रोंका विभाग होता है । इसी प्रकार मेरुसे दक्षिणमें निषध, हेमकूट, हिमालय ये तीन पर्वत हैं जिनके द्वारा हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारत इन तीन क्षेत्रोंका विभाग होता है। इलावृत क्षेत्रसे पश्चिममें माल्यवान पर्वत है जो केतुमाल देशकी सीमाका कारण है। इलावृतसे पूर्वमें गन्धमादन पर्वत है जिससे भद्राश्व देशका विभाग होता है । मेरुके चारों दिशाओंमें मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व और कुमुद ये चार अवष्टम्भ पर्वत है। चारों पर्वतोंपर आम्र, जम्ब, कदम्ब और न्यग्रोध ये चार विशालवृक्ष जिनका जल दुध, मधु, इक्षरस तथा मिठाई जैसे स्वादका है। नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक और सर्वतोभद्र ये चार देवोद्यान हैं। इन उद्योनोंमें देव देवांगनाओं सहित विहार करते हैं। मन्दर पर्वतके ऊपर ११ सौ योजन ऊँचे आम्र वृक्षसे पर्वतके शिखर जैसे स्थूल और अमृतके समान रसवाले फल गिरते हैं । मन्दर पर्वतसे अरुगोदा नदी निकलकर पूर्वमें इलावृत क्षेत्रमें बहती है। अरुणोदा नदीका जल आम्र वृक्षके फलोंके कारण अरुण रहता है। इसी प्रकार मेरुमन्दर पर्वतके ऊपर जम्बूद्वीप वृक्षके फल गिरते हैं मेरुमन्दरपर्वतसे जम्बू नामकी नदी निकलकर दक्षिण में इलावृत क्षेत्र में बहती है। जम्बवृक्षके फलोंके रससे युक्त होनेके कारण इस नदीका नाम जम्ब नदी है । सुपार्श्व पर्वतपर कदम्ब वृक्ष है। सुपाश्वं पर्वतसे पाँच नदियाँ निकलकर पश्चिम में इलावृत क्षेत्रमें बहती हैं । कुमुद पर्वतपर शातवल्श नामका बट वृक्ष है। कुमुद पर्वतसे पयोनदी, दधिनदी, मधुनदी, घृतनदी, गुडनदी, अन्ननदी, अम्बरनदी, शय्यासननदी, आभरणनदी आदि सब कामोंको तप्त करने वाली नदियाँ निकलकर उत्तरमें इलावृत क्षेत्रमें बहती हैं । इन नदियोंके जलके सेवन करनेसे कभी भी जरा, रोग, मृत्यु, उपसर्ग आदि नहीं होते हैं । मेरुके मलमें कुरंग, कुरर, कुसुम्भ आदि बीस पर्वत हैं। मेरुसे पूर्वमें जठर और देवकट, पश्चिममें पवन और परिपात्र, दक्षिणमें कैलाश और करवीर. उत्तरमें त्रिश्रंग और मकर इस प्रकार आठ पर्वत है । मेरुके शिखरपर भगवानकी शातकौम्भी नामकी चतुष्कोण नदी है। इस नगरीके चारों ओर आठ लोकपालोंके आठ नगर हैं।
सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा इस प्रकार चार नदियाँ चारों दिशाओंमें बहती हुई समुद्र में ४-३१
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