Book Title: Tattvarth vrutti aur Shrutsagarsuri
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 61
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : २४५ शाल्मलिद्वीप - इस द्वीपमें श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, वैद्युत, मानस और सुप्रभ ये सात क्षेत्र हैं । कुमुद, उन्नत, बलाहक, द्रोण, कङ्क, महिष और ककुद्म ये सात पर्वत हैं । योनि, तोया, वितृष्णा, चन्द्रा, शुक्ला, विमोचनी और निवृत्ति ये सात नदियाँ हैं । कुशद्वीप - इस द्वीपमें उद्भिद्, वेणुमत्, वैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर और कपिल ये सात क्षेत्र हैं, विद्रुम, हेमशैल द्युतिमान्, पुष्पवान् कुशेशय, हथि और मन्दराचल ये सात पर्वत हैं । धूतपापा, शिवा, पवित्रा, संमति, विद्युदंभा, मही आदि सात नदियाँ 1 क्रौञ्च द्वीप - इस द्वीपमें कुशल, मन्दक, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि ये सात क्षेत्र हैं । क्रौञ्च वामन, अन्धकारक, देवावृत, पुण्डरीकवान्, दुन्दुभि और महाशैल ये सात पर्वत हैं । गौरी, कुमुद्वती, सन्ध्या, रात्रि, मनोजवा, क्षान्ति और पुण्डरीका ये सात नदियाँ हैं । शाकद्वीप - इस द्वीप में जलद, कुमार, सुकुमार, मनीचक, कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रुम ये सात क्षेत्र हैं । उदयगिरि, जलाधर, वतक, श्याम, अस्तगिरि, अञ्चिकेय और केसरी ये सात पर्वत हैं । सुकुमारी, कुमारी, नलिनी, धेनुका, इक्षु, वेणुका और गभस्ती ये सात नदियाँ हैं । पुष्कर द्वीप - इस द्वीपमें महावीर और धातकीखण्ड ये दो क्षेत्र हैं । मानुषोत्तर पर्वत पुष्करद्वीप के बीच में स्थित है । अन्य पर्वत तथा नदियाँ इस द्वीपमें नहीं हैं । भूगोलकी इन परम्पराओंका तुलनात्मक अध्ययन हमें इस नतीजे पर पहुँचाता है कि आजसे दो ढाई हजार वर्ष पहिले भूगोल और लोक वर्णनकी करीब-करीब एक जैसी अनुश्रुतियाँ प्रचलित थीं । जैन अनुश्रुतिको प्रकृत तत्त्वार्थ सूत्रके तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें निबद्ध किया गया है । लोकका पुरुषाकार वर्णन भी योगभाष्य में पाया जाता है । अतः ऐतिहासिक और उस समयकी साधनसामग्रीकी दृष्टिसे भारतीय परम्पराओंका लोकवर्णन अपनी खास विशेषता रखता है। आजके उपलब्ध भूगोलमें प्राचीन स्थानोंकी खोज करनेपर बहुत कुछ तथ्य सामने आ सकता है । प्रस्तुतवृत्ति - इस वृत्तिका नाम तत्त्वार्थवृत्ति है जैसा कि स्वयं श्रुतिसागरसूरिने ही प्रारम्भमें लिखा है - " वक्ष्ये तत्त्वार्थवृत्ति निजविभवतयाऽहं श्रुतोदन्वदाख्यः ।" अर्थात् मैं श्रुतसागर अपनी शक्तिके अनुसार तत्त्वार्थवृत्तिको कहूँगा । अध्यायोंके अन्तमें आनेवाली पुष्पिकाओं में इसके 'तत्त्वार्थटीकायाम्', 'तात्पर्यसंज्ञायां तत्त्वार्थवृत्ती' ये दो प्रकारके उल्लेख मिलते हैं । यद्यपि द्वितीय उल्लेखमें इसका 'तात्पर्य ' यह नाम सूचित किया गया है, परन्तु स्वयं श्रुतसागरसूरिको तत्त्वार्थवृत्ति यही नाम प्रचारित करना इष्ट था । वे इस ग्रन्थके अन्त में इसे तत्त्वार्थवृत्ति ही लिखते हैं । यथा - "एषा तत्त्वार्थवृत्तिः विचार्यते” आदि । तत्त्वार्थटीका यह एक साधारण नाम है, जो कदाचित् पुष्पिकामें लिखा भी गया हो, पर प्रारम्भ श्लोक और अन्तिम उपसंहारवाक्य में 'तत्त्वार्यवृत्ति' इन समुल्लेखोंके बलसे इसका 'तत्त्वार्थवृत्ति' नाम हो फलित होता है । इस तत्त्वार्थवृत्तिको श्रुतसागरसूरिने स्वतंत्रवृत्तिके रूपमें बनाया है । परन्तु ग्रन्थके पढ़ते ही यह भान होता है कि यह पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धिकी व्याख्या है। इसमें सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ तो प्रायः पुराका पूरा ही समा गया है । कहीं सर्वार्थसिद्धिकी पंक्तियों को दो चार शब्द नए जोड़कर अपना लिया है, कहीं उनकी व्याख्या की है, कहीं विशेषार्थ दिया है और कहीं उसके पदोंको सार्थकता दिखाई है । अतः प्रस्तुतवृत्तिको सर्वार्थसिद्धिकी अविकल व्याख्या तो नहीं कह सकते । हाँ, सर्वार्थ सिद्धि को लगाने में इससे सहायता पूरी-पूरी मिल जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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