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४ / विशिष्ट निबन्ध : २४७ क्षायोपशमिक उपयोगपर विश्वास न करके स्वयं लिख दिया है कि - " को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे " श्रुतसागरसूरि भी इसके अपवाद नहीं हैं । यथा—
१ - सर्वार्थसिद्धिमें " द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः " ( ५/४१) सूत्रकी व्याख्यामें 'निर्गुण' इस विशेषणसार्थकता बताते हुए लिखा है कि- "निर्गुण इति विशेषणं द्वद्यणुकादिनिवृत्त्यर्थम्, तान्यपि हि कारणभूतपरमाणु द्रव्याश्रयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् 'निर्गुणाः' इति विशेषणात्तानि निवर्ततानि भवन्ति ।” अर्थात् द्वणुकादि स्कन्ध नैयायिकों को दृष्टिसे परमाणुरूप कारणद्रव्यमें आश्रित होनेसे द्रव्याश्रित हैं और रूपादि गुणवाले होनेसे गुणवाले भी हैं अतः इनमें भी उक्त गुणका लक्षण अतिव्याप्त हो जायगा । safe saht frवृत्ति के लिए 'निर्गुणाः' यह विशेषण दिया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरि लिखते हैं कि
" निर्गुणाः इति विशेषणं द्वयणुकश्यणुकादिस्कन्धनिषेधार्थम् तेन स्कन्धाश्रया गुणा गुणा नोच्यन्ते । कस्मात् ? कारणभूतपरमाणु द्रव्याश्रयत्वात् तस्मात् कारणात् निर्गुणा इति विशेषणात् स्कन्धगुणा गुणा न भवन्ति पर्यायाश्रयत्वात् ।" अर्थात् - 'निर्गुणाः' यह विशेषण द्वयणुक, त्र्यणुकादि स्कन्धके निषेधके लिए है । इससे स्कन्धमें रहनेवाले गुण गुण नहीं कहे जा सकते क्योंकि वे कारणभूत परमाणुद्रव्यमें रहते हैं । इसलिए स्कन्धके गुण गुण नहीं हो सकते क्योंकि वे पर्यायमें रहते हैं । यह हेतुवाद बड़ा विचित्र हैं और जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल भी । जैन सिद्धान्त में रूपादि चाहे घटादिस्कन्धोंमें रहनेवाले हों या परमाणुमें, सभी गुण कहे जाते हैं । ये स्कन्धके गुणोंको गुण ही नहीं कहना चाहते क्योंकि वे पर्यायाश्रित हैं । यदि वे यह कहते कि कारणपरमाणुओं को छोड़कर स्कन्धकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है और इसलिए स्कन्धाश्रित गुण स्वतंत्र नहीं है तो कदाचित् संगत भी था । पर इस कथनका प्रकृत 'निर्गुण' पदकी सार्थकता से कोई मेल नहीं बैठता । इस असंगतिके कारण आगेके शंकासमाधानमें भी असंगति हो गई है । यथा - सर्वार्थसिद्धिमें है कि- घटकी संस्थान - आकार आदि पर्याएँ भी द्रव्याश्रित हैं और स्वयं गुणरहित है अतः उन्हें भी गुण कहना चाहिए । इसका समाधान यह कर दिया गया है कि जो हमेशा द्रव्याश्रित हों, रूपादि गुण सदा द्रव्याश्रित रहते हैं, जब कि घटके संस्थानादि सदा द्रव्याश्रित नहीं हैं । इस शंका समाधानका सर्वार्थ सिद्धिका पाठ यह है
" ननु पर्याया अपि घटसंस्थानादयो द्रव्याश्रया निर्गुणाश्च तेषामपि गुणत्वं प्राप्नोति । द्रव्याश्रया इति वचनान्नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते, गुणा इति विशेषणात् पर्यायाश्च निवर्तिता भवन्ति, ते हि कादाचित्का इति ।"
इस शंकासमाधानको श्रुतसागर सूरि इस रूप में उपस्थित करते हैं—
" ननु घटादिपर्यायाश्रिताः संस्थानादयो ये गुणा वर्तन्ते तेषामपि संस्थानादीनां गुणत्वमास्कन्दति द्रव्याश्रयत्वात्, सतो घटपटादयोऽपि द्रव्याणीत्युच्यन्ते । सान्वभाणि भवता । ये नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते तएव गुणा भवन्ति न तु पर्यायात्रया गुणा भवन्ति, पर्यायाश्रिता गुणाः कदाचित्काः कदाचिद्भवा वर्तन्ते इति ।"
इस अवतरण में श्रुतसागरसूरि संस्थानादिको घटादिका गुण कह रहे हैं, और उनका कादाचित्क होने का उल्लेख है फिर भी उसका अन्यथा अर्थ किया गया है ।
२- सर्वार्थसिद्धि (८|२) में जीव शब्दकी सार्थकता बताते हुए लिखा है कि "अमूर्तिरहस्त आत्मा कथं कर्मादत्ते ? इति चोदितः सन् जीव इत्याह । जीवनाज्जीवः प्राणधारणानायुः सम्बन्धात् नायुविरहा
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