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४ / विशिष्ट निबन्ध : २२५ का अनुचित पोषण है, कषायकी पूर्तिका दुष्प्रयत्न है । अतः परलोक सम्बन्धी सम्यग्दर्शन साधक के लिए अत्यावश्यक है ।
कर्मसिद्धान्तका सम्यग्दर्शन
जैन सिद्धान्त सर्वग्रासी ईश्वरसे जिस किसी तरह मुक्ति दिलाकर यह घोषणा की थी कि प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है । वह स्वयं अपने भाग्यका विधाता है । अपने कर्मका कर्त्ता और उसके फलका भोक्ता है । परन्तु जिस पक्षीकी चिरकालसे पिंजरे में परतन्त्र रहनेके कारण सहज उड़ने की शक्ति कुण्ठित हो गई है उसे पिंजड़े से बाहर भी निकाल दीजिए तो वह पिंजड़े की ओर ही झपटता है । इसी तरह यह जीव अनादिसे पर - तन्त्र होने के कारण अपने मूल स्वातन्त्र्य - आत्मसमानाधिकारको भूला हुआ है । उसे इसकी याद दिलाते हैं। तो कभी वह भगवान्का नाम लेता है, तो कभी किसी देवी देवताका । और कुछ नहीं तो 'करमगति टाली नाहि ट' का नारा किसीने छीन ही नहीं लिया। 'विधिका विधान' 'भवितव्यता अमिट है' आदि नारे बच्चे से बड़े तक सभीकी जबानपर चढ़े हुए हैं । ईश्वरकी गुलामीसे हटे तो यह कर्म की गुलामी गले आ पड़ी ।
मैंने बन्धत्त्व के विवेचनमें कर्मका स्वरूप विस्तारसे लिखा है । हमारे विचार वचन व्यवहार और शारीरिक क्रियाओंके संस्कार हमारी आत्मापर प्रतिक्षण पड़ते हैं और उन संस्कारोंको प्रबोध देनेवाले पुद्गल स्कन्ध आत्मासे सम्बन्धको प्राप्त हो जाते हैं । आजका किया हुआ हमारा कर्म कल दैव बन जाता है । पुराकृत कर्मको ही दैव विधि भाग्य आदि शब्दोंसे कहते हैं । जो कर्म हमने किया है, जिसे हमने बोया है। उसे चाहें तो दूसरे क्षण ही उखाड़कर फेंक सकते हैं । हमारे हाथमें कर्मोंकी सत्ता है । उनकी उदीरणासमयसे पहिले उदयमें लाकर झड़ा देना, संक्रमण- साताको असाता और असाताको साता बना देना, उत्कर्षणस्थिति और फल देनेकी शक्ति में वृद्धि कर देना, अपकर्षण- स्थिति और फलदानशक्ति ह्रास कर देना, उपशम - उदयमें न आने देना, क्षय - नाश करना, उद्वेलन - क्षयोपशम आदि विविध दशायें हमारे पुरुषार्थं के अधीन हैं । अमुक कोई कर्म बँधा इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह वज्रलेप हो गया । बँधने के बाद भी हमारे अच्छे-बुरे विचार और प्रवृत्तियोंसे उसकी अवस्था में सैकड़ों प्रकारके परिवर्तन होते रहते हैं। हाँ, कुछ कर्म ऐसे जरूर बँध जाते हैं जिन्हें टालना कठिन होता है उनका फल उसी रूपमें भोगना पड़ता है । पर ऐसा कर्म सौ में एक ही शायद होता है ।
सीधी सी बात है - पुराना संस्कार और पुरानी वासना हमारे द्वारा ही उत्पन्न को गई थी । यदि आज हमारे आचार-व्यवहारमें शुद्धि आती है तो पुराने संस्कार धीरे-धीरे या एक ही झटके में समाप्त हो ही जायेंगे । यह तो बलाबलकी बात है । यदि आजकी तैयारी अच्छी है तो प्राचीनको नष्ट किया जा सकता है, यदि कमजोरी है तो पुराने संस्कार अपना प्रभाव दिखायेंगे ही। ऐसी स्वतन्त्र स्थिति में 'कर्मगति टाली नाहीं टलै” जैसे क्लीबविचारोंका क्या स्थान है ? ये विचार तो उस समय शान्ति देनेके लिए हैं जब पुरुषार्थ करनेपर भी कोई प्रबल आघात आ जावे, उस समय सान्त्वना और सांस लेनेके लिए इनका उपयोग है । कर्म बलवान् था, पुरुषार्थ उतना प्रबल नहीं हो सका अतः फिर पुरुषार्थ कीजिए । जो अवश्यंभावी बातें हैं। उनके द्वारा कर्मी गतिको अटल बताना उचित नहीं है । एक शरीर धारण किया है, समयानुसार वह जीर्ण शीर्ण होगा ही । अब यहाँ यह कहना कि 'कितना भी पुरुषार्थं कर लो मृत्युसे बच नहीं सकते और इसलिए कर्मगति अटल है' वस्तुस्वरूपके अज्ञानका फल है । जब वह किंचित्काल स्थायी पर्याय है तो आगे पीछे उसे जीर्ण शीर्ण होना ही पड़ेगा । इसमें पुरुषार्थं इतना ही है कि यदि युक्त आहार-विहार और संयमपूर्वक चला जायगा तो जिन्दगी लम्बी और सुखपूर्वक चलेगी। यदि असदाचार और असंयम करोगे तो शरीर क्षय आदि रोगों
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