Book Title: Tattvarth vrutti aur Shrutsagarsuri
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 31
________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २१५ परिणमन शुद्ध ही होता है कभी भी अशुद्ध नहीं होता। संसारी जीव और अनन्त पुद्गलद्रव्यका शुद्ध और अशुद्ध दोनों ही प्रकारका परिणमन होता है । इतनी विशेषता है कि जो संसारी जीव एकबार मुक्त होकर शुद्ध परिणमनका अधिकारी हुआ वह फिर कभी भी अशुद्ध नहीं होगा, पर पुद्गलद्रव्यका कोई नियम नहीं है। वे कभी स्कन्ध बनकर अशुद्ध परिणमन करते हैं तो परिमाणु रूप होकर अपनी शद्ध अवस्थामें आ जाते हैं फिर स्कन्ध बन जाते हैं। इस तरह उनका विविध परिणमन होता रहता है। जीव और पुदगलमें वैभाविकी शक्ति है, उसके कारण विभाव परिणमनको भी प्राप्त होते हैं। द्रव्यगतशक्ति-धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन द्रव्य एक एक एक हैं। कालाणु असंख्यात है। प्रत्येक कालाणमें एक-जैसी शक्तियाँ हैं। वर्तना करनेकी जितने अविभागप्रतिच्छेदवाली शक्ति एक कालाणमें है वैसी ही दूसरे कालाणुमें । इस तरह कालाणुओंमें परस्पर शक्ति-विभिन्नता या परिणमनविभिन्नता नहीं है। पुदगलद्रव्यके एक अणमें जितनी शक्तियाँ हैं उतनी ही और वैसी ही शक्तियाँ परिणमनयोग्यताएँ अन्य पुद्गलाणुओंमें हैं। मूलतः पुद्गल-अणु द्रव्योंमें शक्तिभेद, योग्यताभेद या स्वभावभेद नहीं है । यह तो सम्भव है कि कुछ पुद्गलाणु मूलतः स्निग्ध स्पर्शवाले हों और दूसरे मूलतः रूक्ष, कुछ शीत और कुछ उष्ण, पर उनके ये गुण भी नियत नहीं है, रूक्षगुणवाला भी अणु स्निग्धगुणवाला बन सकता है तथा स्निग्धगुणवाला भी रूक्ष, शीत भी उष्ण बन सकता है उष्ण भी शीत । तात्पर्य यह कि पुद्गलाणोंमें ऐसा कोई जातिभेद नहीं है जिससे किसी भी पुद्गलाणुका पुद्गलसम्बन्धी कोई परिणमन न हो सकता हो । पुदगलद्रव्यके जितने भी परिणमन हो सकते हैं उन सबकी योग्यता और शक्ति प्रत्येक पुद्गलाणु में स्वभावतः है। यही द्रव्यशक्ति कहलाती है। स्कन्ध अवस्थामें पर्यायशक्तियाँ विभिन्न हो सकती हैं। जैसे किसी अग्निस्कन्धमें सम्मिलित परमाणुका उष्णस्पर्श तेजोरूप था, पर यदि वह अग्निस्कन्धसे जुदा हो जाय तो उसका शीतस्पर्श तथा कृष्णरूप हो सकता है, और यदि वह स्कन्ध ही भस्म बन जाय तो सभी परमाणुओंका रूप और स्पर्श आदि बदल सकते हैं। सभी जीवद्रव्योंकी मूल स्वभावशक्तियाँ एक जैसी हैं, ज्ञानादि अनन्तगुण और अनन्त चैतन्यपरिणमनकी शक्ति मूलतः प्रत्येक जीवद्रव्यमें है। हाँ, अनादिकालीन अशुद्धताके कारण उनका विकास विभिन्न प्रकारसे होता है । चाहे भव्य हो या अभव्य दोनों ही प्रकारके प्रत्येक जीव एक-जैसी शक्तियों के आधार हैं। शद्ध दशामें सभी एक जैसी शक्तियोंके स्वामी बन जाते हैं और प्रतिसमय अखण्ड शुद्ध परिणमनमें लीन रहते हैं। संसारी जीवोंमें भी मूलतः सभी शक्तियाँ हैं। इतना विशेष है कि अभव्यजीवोंमें केवलज्ञानादि शक्तियोंके आविर्भावकी शक्ति नहीं मानी जाती । उपर्युक्त विवेचनसे एक बात निर्वादरूपसे स्पष्ट हो जाती है कि चाहे द्रव्य चेतन हो या अचेतन, प्रत्येक मूलतः अपनी-अपनी चेतन-अचेतन शक्तियोंका धनी है उनमें कहीं कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं है। अ द्ध दशामें अन्य पर्यायशक्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं और विलीन होती रहती हैं। परिणमनके नियतत्वकी सीमा-उपयुक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि द्रव्योंमें परिणमन होनेपर भी कोई भी द्रव्य सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपमें परिणमन नहीं कर सकता। अपनी धारामें सदा उसका परिणमन होता रहता है। द्रव्यगत मूल स्वभावकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके अपने परिणमन नियत है। किसी भी पद्गलाण के वे सभी पुद्गलसम्बन्धी परिणमन यथासमय हो सकते हैं और किसी भी जीवके जीवसम्बन्धी अनन्त परिणमन । यह तो सम्भव है कि कुछ पर्यायशक्तियोंसे सीधा सम्बन्ध रखनेवाले परिणमन कारणभूत पर्यायशक्तिके न होनेपर न हों। जैसे प्रत्येक पुद्गलपरमाणु यद्यपि घट बन सकता है फिर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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