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२२२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
निश्चयनयका वर्णन तो कागजपर लिखकर सामने टाँग लो। जिससे सदा तुम्हें अपने ध्येयका भान रहे । सच पूछो तो भगवान् जिनेन्द्रको प्रतिमा उसी निश्चयनयकी प्रतिकृति है। जो निपट वीतराग होकर हमें आत्ममात्रसत्यता, सर्वात्मसमत्व और परमवीतरागताका पावन सन्देश देती है। पर व्यवहारमढ़ मानव उसका मात्र अभिषेक कर बाह्यपूजा करके ही कर्त्तव्यकी इतिश्री समझ लेता है। उलटे अपने में मिथ्या धर्मात्मत्वके अहंकारका पोषण कर मंदिरमें भी चौका लगानेका दुष्प्रयत्न करता है। 'अमुक मन्दिरमें आ सकता है अमुक नहीं' इन विधिनिषेधोंकी कल्पित अहंकारपोषक दीवारें खड़ी करके धर्म, शास्त्र और परम्पराके नामपर तथा संस्कृतिरक्षाके नामपर सिरफुडौवल और मुकदमेवाजीकी स्थिति उत्पन्न की जाती है और इस तरह रौद्रानन्दी रूपका नग्न प्रदर्शन इन धर्मस्थानों में आये दिन होता रहता है ।
इसी धारणावश निश्चयमढ़ 'मैं सिद्ध हूँ, निर्विकार हूँ, कर्मबन्धनमुक्त हूँ' आदि वर्तमानकालीन प्रयोग करने लगते हैं । और उसका समर्थन उपयुक्त भ्रान्तधारणाके कारण करने लगते हैं। पर कोई भी समझदार आजकी नितान्त अशुद्ध दशामें अपनेको शुद्ध माननेका भ्रान्त साहस भी नहीं कर सकता । यह कहना तो उचित है कि मुझमें सिद्ध होनेकी योग्यता है, मैं सिद्ध हो सकता हूँ, या सिद्धका मल द्रव्य जितने प्रदेशवाला, जितने गुणधर्मवाला है, उतने ही प्रदेशवाला, उतने ही गुणधर्मवाला मेरा भी है । अन्तर इतना ही है कि सिद्धके सब गण निरावरण हैं और मेरे सावरण । इस तरह शक्ति प्रदेश और अविभाग प्रा दृष्टिसे समत्व कहना जुदी बात है । वह समानता तो सिद्धके समान निगोदियासे भी है। पर इससे मात्र द्रव्योंकी मौलिक एकजातीयताका निरूपण होता है न कि वर्तमान कालीन पर्यायका । वर्तमान पर्यायोंमें तो अन्तरं महदन्तरम् है।
इसीतरह निश्चयनय केवल द्रव्यको विषय करता है यह धारणा भी मिथ्या है। वह तो पर निरपेक्ष स्वभावको विषय करनेवाला है चाहे वह द्रव्य हो या पर्याय । सिद्ध पर्याय परनिरपेक्ष स्वभावभूत है, उसे निश्चयनय अवश्य विषय करेगा। जिस प्रकार द्रव्यके मलस्वरूप पर दृष्टि रखनेसे आत्मस्वरूपकी प्रेरणा मिलती है उसी तरह सिद्ध पर्यायपर भी दृष्टि रखनेसे आत्मोन्मुखता होती है। अतः निश्चय और व्यवहारका सम्यग्दर्शन करके हमें निश्चयनयके लक्ष्य-आत्मसमत्वको जीवनव्यवहारमें उतारनेका प्रयत्न करना चाहिए । धर्म-अधर्मकी भी यही कसौटी हो सकती है । जो क्रियाएँ आत्मस्वभावकी साधक हों परमवीतरागता और आत्मसमताकी ओर ले जाय वे धर्म है, शेष अधर्म । परलोक का सम्यग्दर्शन
धर्मक्षेत्र में सब ओरसे 'परलोक सुधारों की आवाज सुनाई देती है। परलोकका अर्थ है मरणोत्तर जीवन । हरएक धर्म यह दावा करता है कि उसके बताए हुए मार्गपर चलनेसे परलोक सुखी और समृद्ध होगा। जैनधर्ममें भी परलोकके सुखोंका मोहक वर्णन मिलता है। स्वर्ग और नरकका सांगोपांग विवेचन सर्वत्र पाया जाता है । संसारमें चार गतियाँ हैं-मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति, नरकगति और देवगति । नरक अत्यन्त दुःखके स्थान हैं और स्वर्ग सांसारिक अभ्युदयके स्थान । इनमें सुधार करना मानवशक्तिके बाहरकी बात है। इनकी जो रचना जहाँ है सदा वैसी रहनेवाली है। स्वर्ग में एक देवको कमसे कम सदायौवना बत्तीस देवियाँ अवश्य मिलती है। शरीर कभी रोगी नहीं होता । खाने-पीनेकी चिन्ता नहीं। सब मनःकामना होते ही समुपस्थित हो जाता है । नरकमें सब दुःख ही दुःखकी सामग्री है।
यह निश्चित है कि एक स्थूल शरीरको छोड़कर आत्मा अन्य स्थूल शरीरको धारण करता है । यही परलोक कहलाता है। मैं यह पहिले विस्तारसे बता आया हूँ कि आत्मा अपने पूर्वशरीरके साथ ही साथ
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