Book Title: Tattvarth vrutti aur Shrutsagarsuri
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 34
________________ २१८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ नियतिवाद नहीं जो होना होगा वह होगा ही, हमारा कुछ भी पुरुषार्थ नहीं है, इस प्रकारके निष्क्रिय नियतिवादके विचार जैनतत्त्वस्थितिके प्रतिकूल हैं। जो द्रव्यगत शक्तियाँ नियत है उनमें हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं, हमारा पुरुषार्थ तो कोयलेकी होरापर्यायके विकास कराने में है । यदि कोयलेके लिए उसकी हीरापर्यायके विकासके लिए आवश्यक सामग्री न मिले तो या तो वह जलकर भस्म बनेगा या फिर खानिमें ही पड़े-पड़े समाप्त हो जायगा । इसका यह अर्थ नहीं है कि जिसमें उपादान शक्ति नहीं है उसका परिणमन भी निमित्तसे हो सकता है या निमित्तमें यह शक्ति है जो निरुपादानको परिणमन करा सके । नियतिवाद-दृष्टिविष-एकबार 'ईश्वरवाद'के विरुद्ध छात्रोंने एक प्रहसन खेला था। उसमें एक ईश्वरवादी राजा था, जिसे यह विश्वास था कि ईश्वरने समस्त दुनियाके पदार्थोंका कार्यक्रम निश्चित कर दिया है। प्रत्येक पदार्थकी अमुक समयमें यह दशा होगी इसके बाद यह इस प्रकार सब सुनिश्चित है। कोई अकार्य होता तो राजा सदा यह कहता था कि-'हम क्या कर सकते हैं ? ईश्वरने ऐसा ही नियत किया था। ईश्वरके नियतिचक्रमें हमारा हस्तक्षेप उचित नहीं 'ईश्वरकी मर्जी' । एकबार कुछ गुण्डोंने राजाके सामने ही रानीका अपहरण किया। जब रानीने रक्षार्थ चिल्लाहट शुरू की और राजाको क्रोध आया तब गुण्डोंके सरदारने जोरसे कहा-'ईश्वरकी मर्जी' । राजाके हाथ ढीले पड़ते हैं और वे गण्डे रानीको उसके सामने ही उठा ले जाते हैं। गुण्डे रानीको भी समझाते है कि 'ईश्वरकी मर्जी यही थी' रानी भी 'विधिविधान' में अटल विश्वास रखती थी और उन्हें आत्म समर्पण कर देती है। राज्यमें अव्यवस्था फैलती है और परचक्रका आक्रमण होता है और राजाकी छातीमें दुश्मनकी जो तलवार घुसती है वह भी 'ईश्वरकी मर्जी' इस जहरीले विश्वासविषसे बुझी हुई थी और जिसे राजाने विधिविधान मानकर ही स्वीकार किया था। राजा और रानी, गुण्डों और शत्रुओंके आक्रमणके ससय 'ईश्वरकी मर्जी' 'विधिकाविधान' इन्हीं ईश्वरास्त्रोंका प्रयोग करते थे और ईश्वरसे ही रक्षाकी प्रार्थना करते थे। पर न मालम उस समय ईश्वर क्या कर रहा था ? ईश्वर भी क्या करता? गुण्डे और शत्रुओंका कार्यक्रम भी उसीने बनाया था और वे भी 'ईश्वरकी मर्जी' और 'विधिविधान'को दुहाई दे रहे थे। इस ईश्वरवादमें इतनी गुंजाइश थी कि यदि ईश्वर चाहता तो अपने विधानमें कुछ परिवर्तन कर देता । आज श्री कानजी स्वामीको 'वस्तुविज्ञानसार' पुस्तकको पलटते समय उस प्रहसनकी याद आ गई और ज्ञात हुआ कि यह नियतिवादका कालकूट 'ईश्वरवाद'से भी भयंकर है। ईश्वरवादमें इतना अवकाश है कि यदि ईश्वर को भक्तिकी जाय या सत्कार्य किया जाय तो ईश्वरके विधान में हेरफेर हो जाता है। ईश्वर भी हमारे सत्कर्म और दुष्कर्मों के अनुसार ही फलका विधान करता है। पर यह नियतिवाद अभेद्य है। आश्चर्य तो यह है कि इसे 'अनन्त पुरुषार्थ का नाम दिया जाता है। यह कालकूट कुन्दकुन्द, अध्यात्म, सर्वज्ञ, सम्यग्दर्शन और धर्मकी शक्करमें लपेट कर दिया जा रहा है । ईश्वरवादी साँपके जहरका एक उपाय (ईश्वर) तो है पर इस नियतिवादी कालकूटका, इस भीषण दृष्टिविषका कोई उपाय नहीं; क्योंकि हर एक द्रव्यकी हर समयकी पर्याय नियत है। मर्मान्त वेदना तो तब होती है जब इस मिथ्या एकांत विषको अनेकान्त अमृतके नामसे कोमलमति नई पीढ़ोको पिलाकर उन्हें अनन्त पुरुषार्थी कहकर सदाके लिए पुरुषार्थसे विमुख किया जा रहा है।। पूण्य और पाप क्यों ?-जब प्रत्येक जीवका प्रतिसमयका कार्यक्रम निश्चित है, अर्थात् परकर्तृत्व तो है ही नहीं, साथ ही स्वकर्तृत्व भी नहीं है, तब क्या पुण्य और क्या पाप ? किसी मुसलमानने जैनप्रतिमा तोड़ी, तो जब मुसलमानको उस समय प्रतिमाको तोड़ना ही था, प्रतिमाको उस समय टूटना ही था, सब कुछ नियत था तो विचारे मुसलमान का क्या अपराध ? वह तो नियतिचक्रका दास था। एक याज्ञिक ब्राह्मण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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