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| विशिष्ट निबन्ध : २११
हमारा स्वाभाविक अधिकार नहीं है । यह अवश्य है कि दूसरा हमारे बनने बिगड़नेमें निमित्त होता है पर निमित्त उपादानकी योग्यताका ही विकास करता है । यदि उपादान कमजोर है तो निमित्तके द्वारा अत्यधिक प्रभावित हो सकता । अतः बनना बिगडना बहुत कुछ अपनो भीतरी योग्यतापर ही निर्भर है। इस तरह अपने आत्माके स्वरूप और स्वाधिकारपर अटल श्रद्धा होना और आचार व्यवहार में इसका उल्लंघन न करनेकी दृढ़ प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन
___ सम्यग्दर्शनका अर्थ मात्र यथार्थ देखना या वास्तविक पहिचान ही नहीं है, किन्तु उस दर्शनके पीछे होनेवाली दृढ़ प्रतीति, जीवन्त श्रद्धा और उसको कायम रखने के लिए प्राणोंकी भी बाजी लगा देनेका अट विश्वास ही वस्तुतः सम्यग्दर्शनका स्वरूपार्थ है ।
सम्यग्दर्शनमें दो शब्द हैं सम्यक् और दर्शन। सम्यक् शब्द सापेक्ष है, उसमें विवाद हो सकता है। एक मत जिसे सम्यक समझता है दसरा मत उसे सम्यक नहीं मानकर मिथ्या मानता है । एक ही वस्तु परिस्थिति विशेषमें एकको सम्यक् और दूसरोंको मिथ्या हो सकती है। दर्शनका अर्थ देखना या निश्चय करना है। इसमें भी भ्रान्तिकी सम्भावना है। सभी मत अपने-अपने धर्मको दर्शन अर्थात् साक्षात्कार किया हुआ बताते हैं, अतः कौन सम्यक् और कौन असम्यक् तथा कौन दर्शन और कौन अदर्शन ये प्रश्न मानव मस्तिष्कको आन्दोलित करते रहते हैं। इन्हीं प्रश्नोंके समाधान में जीवनका लक्ष्य क्या है ? धर्मकी आवश्यकता क्यों है ? आदि प्रश्नोंका समाधान निहित है।
सम्यक्दर्शन एक क्रियात्मक शब्द है, अर्थात् सम्यक्-अच्छी तरह दर्शन-देखना । प्रश्न यह है कि'क्यों देखना, किसको देखना और कैसे देखना ।' 'क्यों देखना' तो इसलिए कि मनष्य स्वभाव
और दर्शनशील प्राणी होते हैं। उनका मन यह तो विचारता ही है कि यह जीवन क्या है ? क्या जन्मसे मरण तक ही इसकी धारा है या आगे भी ? जिन्दगी भर जो अनेक द्वन्दों और संघर्षोंसे जूझना है वह किसलिए? अतः जब इसका स्वभाव ही मननशील है तथा संसारमें सैकड़ों मत प्रचारक मनुष्यको बलात् वस्तुस्वरूप दिखाते हुए चारों ओर घूम रहे हैं, 'धर्म डूबा, संस्कृति डूबी, धर्मकी रक्षा करो, संस्कृतिको बचाओ' आदि धर्म प्रचारकोंके नारे मनुष्यके कानके पर्दे फाड़ रहे हैं तब मनुष्यको न चाहनेपर भी देखना तो पड़ेगा ही। यह तो करीब-करीब निश्चित ही है कि मनुष्य या कोई भी प्राणी अपने लिए ही सब कुछ करता है, उसे सर्वप्रिय वस्तु अपनी ही आत्मा है। उपनिषदोंमें आता है कि "आत्मनो वै कामाय सर्व प्रियं भवति ।" कुटुम्ब स्त्री पुत्र तथा शरीरका भी ग्रहण अपनी आत्माकी तुष्टिके लिए किया जाता है। अतः 'किसको देखना' इस प्रश्नका उत्तर है कि सर्वप्रथम उस आत्माको ही देखना चाहिए जिसके लिए यह सब कुछ किया जा रहा है, और जिसके न रहनेपर यह सब कुछ व्यर्थ है, वही आत्मा द्रष्टव्य । सम्यकदर्शन हमें करना चाहिए । 'कैसे देखना' इस प्रश्नका उत्तर धर्म और सम्यग्दर्शनका निरूपण है।
जैनाचार्योंने 'वत्थुस्वभावो धम्मो' यह धर्मकी अन्तिम परिभाषा की है। प्रत्येक वस्तुका अपना निज स्वभाव ही धर्म है तथा स्वभावसे च्युत होना अधर्म है । मनुष्यका मनुष्य रहना धर्म है पशु बनना अधर्म है। आत्मा जब तक अपने स्वरूपमें है धर्मात्मा है, जहाँ स्वरूपसे च्युत हआ अधर्मात्मा बना। अतः जब स्वरूपस्थिति ही धर्म है तब धर्मके लिए भी स्वरूपका जानना नितान्त आवश्यक है। यह भी जानना चाहिए कि आत्मा स्वरूपच्युत क्यों होता है ? यद्यपि जलका गरम होना उसकी स्वरूपच्युति है, एतावता वह अधर्म है पर जल चूंकि जड़ है, अतः उसे यह भान ही नहीं होता कि मेरा स्वरूप नष्ट हो गया
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