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४/ विशिष्ट निबन्ध : २०१
विलक्षणता आ जाय और आत्माके निमित्तसे कर्मस्कन्धकी परिणति विलक्षण हो जाय पर इससे आत्मा और पुद्गलकर्मके बन्धको रासायनिक मिश्रण नहीं कह सकते । क्योंकि जीव और कर्मके बन्धमें दोनोंकी एक जैसी पर्याय नहीं होती। जीवकी पर्याय चेतन रूप होगी, पुद्गलकी अचेतनरूप । पुद्गलका परिणमन रूप, रस गन्धादिरूप होगा, जीवका चैतन्यके विकाररूप। हाँ, यह वास्तविक स्थिति है कि नूतन कर्मपदगलोंका पराने बंधे हुए कर्मशरीरके साथ रासायननिक मिश्रण हो और वह उस पुराने कर्मपुद्गलके साथ बँधकर उसी स्कन्धमें शामिल हो जाय । होता भी यही है। पुराने कर्मशरीरसे प्रतिक्षण अमुक परमाणु झरते हैं और दूसरे कुछ नए शामिल होते हैं । परन्तु आत्मप्रदेशोंसे उनका बन्ध रासायनिक बिलकुल नहीं है। वह तो मात्र संयोग है । प्रदेशबन्धकी व्याख्या तत्त्वार्थसूत्रकारने यही की है-"नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः।" ( तत्त्वार्थसूत्र ८।२४ ) अर्थात् योगके कारण समस्त आत्मप्रदेशोंपर सूक्ष्म पुद्गल आकर एकक्षेत्रावगाही हो जाते हैं। इसीका नाम प्रदेशबन्ध है । द्रव्यबन्ध भी यही है। अतः आत्मा और कर्मशरीरका एकक्षेत्रावगाहके सिवाय अन्य कोई रासायनिक मिश्रण नहीं होता। रासायनिक मिश्रण नवीन कर्मपुगदलोंका प्राचीन कर्मपुद्गलोंगे ही हो सकता है, आत्मप्रदेशोंसे नहीं।
जीवके रागादिभावोंसे जो योगक्रिया अर्थात आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द होता है उससे कर्मवर्गणाएँ खिचती हैं। वे शरीरके भीतरसे भी खिंचती हैं बाहिरसे भी। खिंचकर आत्मप्रदेशोंपर या प्राबद्ध कर्मशरीरसे बन्धको प्राप्त होती है। इस योगसे उन कर्मवर्गणाओंमें प्रकृति अर्थात् स्वभाव पड़ता है। यदि वे कर्मपुद्गल किसीके ज्ञानमें बाधा डालने रूप क्रियासे खिचे हैं तो उनमें ज्ञानावरणका स्वभाव पड़ेगा और यदि रागादि कषायसे तो उनमें चारित्रावरणका । आदि । तात्पर्य यह कि आए हुए कर्म पुद्गलोंको आत्मप्रदेशोंसे एकक्षेत्रावगाही कर देना और उनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि स्वभावोंका पड़ जाना योगसे होता है। इन्हें प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध कहते हैं। कषायोंकी तीव्रता और मन्दताके अनुसार उस कर्मपुद्गलमें स्थिति और फल देनेकी शक्ति पड़ती है यह स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कहलाता है। ये दोनों बन्ध कषायसे होते हैं । केवली अर्थात जीवन्मुक्त व्यक्तिको रागादि कषाय नहीं होतीं अतः उनके योगके द्वारा जो कर्मपुद्गल आते हैं वे द्वितीय समयमें झड़ जाते हैं, उनका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध नहीं होता । बन्ध प्रतिक्षण होता रहता है और जैसा कि मैं पहिले लिख आया हूँ कि उसमें अनेक प्रकारका परिवर्तन प्रतिक्षणभावी कषायादिके अनुसार होता रहता है। अन्तमें कर्मशरीरको जो स्थिति रहती है उसके अनुसार फल मिलता है। उन कर्मनिषकोंके उदयसे वातावरणपर वैसा-वैसा असर पड़ता है । अन्तरंगमें वैसे-वैसे भाव होते हैं। आयर्बन्धके अनुसार स्थल शरीर छोड़नेपर उन-उन योनियों में जीवको नया स्थल शरीर धारण करना पड़ता है। इस तरह यह बन्धचक्र जबतक राग-द्वेष, मोह, वासनाएँ आदि विभाव भाव हैं बराबर चलता रहता है।
बन्धहेतु आस्रव-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच बन्धके कारण हैं। इन्हें आस्रव-प्रत्यय भी कहते है। जिन भावोंके द्वारा कर्मोंका आस्रव होता है उन्हें भावास्रव कहते हैं और कर्मद्रव्यका आना द्रव्यास्रव कहलाता है। पुद्गलोंमें कर्मत्व प्राप्त हो जाना भी द्रव्यास्रव कहलाता है । आत्मप्रदेशतक उनका आना द्रव्यास्रव है। जिन भावोसे वे कर्म खिचते हैं उन्हें भावास्रव कहते हैं। प्रथमक्षणभावी भस्बोंको भावास्रव कहते हैं और अग्रिम क्षणभावी भावोंको भावबन्ध । भावानव जैसा तीन मन्द मध्यमात्मक होगा तज्जन्य आत्मप्रदेशपरिस्पन्दसे वैसे कर्म आयेंगे और आत्मप्रदेशोंसे बंधेगे। भावबन्धके अनुसार उस
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