Book Title: Tattvarth vrutti aur Shrutsagarsuri
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 16
________________ २०० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ विशेष ज्ञान अपेक्षित है । शरीर स्वयं पुद्गलपिंड है । यह चेतनके संसर्ग से चेतनायमान हो रहा है । जगत् में रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले यावत् पदार्थ पौद्गालिक हैं । पृथिवी, जल, अग्नि, वायु सभी पौद्गलिक हैं । इनमें किसीमें कोई गुण उद्भूत रहता है किसीमें कोई गुण । अग्निमें रस अनुद्भूत है, वायुमें रूप अनुद्भूत है जलमें गन्ध अनुद्भूत है । पर ये सब विभिन्न जातीय द्रव्य नहीं हैं किन्तु एक पुद्गलद्रव्य ही हैं । शब्द, प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि पुद्गल स्कन्धकी पर्यायें हैं । विशेषतः मुमुक्षुके लिए यह जानना जरूरी है कि शरीर पुद्गल है और आत्मा इमसे पृथक् है । यद्यपि आज अशुद्ध दशामें आत्माका ९९ प्रतिशत विकास और प्रकाश शरीराधीन है। शरीरके पुर्जोंके बिगड़ते ही वर्तमान ज्ञानविकास रुक जाता है और शरीरके नाश होनेपर वर्तमानशक्तियाँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं फिर भी आत्मा स्वतन्त्र और शरीरके अतिरिक्त भी उसका अस्तित्व परलोकके कारण सिद्ध । आत्मा अपने सूक्ष्म कार्मण शरीरके अनुसार वर्तमान स्थूल शरीरके नष्ट हो जानेपर भी दूसरे स्थूल शरीरको धारण कर लेता है । आज आत्माके सात्त्विक, राजस या तामस सभी प्रकार के विचार या संस्कार शरीरकी स्थितिके अनुसार विकसित होते हैं । अतः मुमुक्षुके लिए इस शरीर पुद्गलकी प्रकृतिका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है जिससे वह इसका उपयोग आत्मविकासमें कर सके, ह्रासमें नहीं । यदि उत्तेजक या अपथ्य आहार-विहार होता है तो कितना ही पवित्र विचार करनेका प्रयत्न किया जाय पर सफलता नहीं मिल सकती । इसलिए बुरे संस्कार और विचारोंका शमन करनेके लिए या क्षीण करनेके लिए उनके प्रबल निमित्तभूत शरीर की स्थिति आदिका परिज्ञान करना ही होगा। जिन पर पदार्थोंसे आत्माको विरक्त होना है या उन्हें पर समझकर उनके परिणमनपर जो अनधिकृत स्वामित्व के दुर्भाव आरोपित हैं उन्हें नष्ट करना है उस परका कुछ विशेष ज्ञान तो होना ही चाहिए, अन्यथा विरक्ति किससे होगी ? सारांश यह कि जिसे बंधन होता है और जिससे बंधता है उन दोनों तत्त्वोंका यथार्थ दर्शन हुए बिना बन्ध परम्परा कट नहीं सकती । इस तत्त्वज्ञान के बिना चारित्रकी ओर उत्साह ही नहीं हो सकता । चारित्रकी प्रेरणा विचारोंसे ही मिलती है । बन्ध-बन्ध दो पदार्थोंके विशिष्ट सम्बन्धको कहते हैं । बन्ध दो प्रकारका है - एक भावबन्ध और दूसरा द्रव्यबन्ध | जिन राग-द्वेष, मोह आदि विभावोंसे कर्म वर्गणाओंका बंध होता है उन रागादिभावों को भावबंध कहते हैं और कर्मवर्गणाओंका आत्मप्रदेशोंसे सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध कहलाता है । द्रव्यबन्ध आत्मा और पुद्गलका है । यह निश्चित है कि दो द्रव्योंका संयोग ही हो सकता है तादात्म्य नहीं । पुद्गलद्रव्य परस्परमें बन्धको प्राप्त होते हैं तो एक विशेष प्रकारके संयोगको ही प्राप्त करते हैं । उनमें स्निग्धता और रूक्षता के कारण एक रासायनिक मिश्रण होता है जिससे उस स्कन्धके अन्तर्गत सभी परमाणुओंकी पर्याय बदलती है और वे ऐसी स्थितिमें आ जाते हैं कि अमुक समय तक उन सबकी एक जैसी ही पर्याएँ होती रहती हैं । स्कन्धके रूप रसादिका व्यवहार तदन्तर्गत परमाणुओं के रूपरसादिपरिणमनकी औसत से होता है । कभी-कभी एक ही स्कन्धके अमुक अंशमें रूप रसादि अमुक प्रकारके हो जाते हैं और दूसरी ओर दूसरे प्रकारके । एक ही आम स्कन्ध एक ओर पककर पीला मीठा और सुगन्धित हो जाता है तो दूसरी ओर हरा खट्टा और विलक्षण गन्धवाला बना रहता है। इससे स्पष्ट है कि स्कन्धमें शिथिल या दृढ़ बन्धके अनुसार तदन्तर्गत परमाणुओं के परिणमनकी औसत से रूपरसादि व्यवहार होते हैं । स्कन्ध अपनेमें स्वतन्त्र कोई द्रव्य नहीं है । किन्तु वह अमुक परमाणुओंकी विशेष अवस्था ही है । और अपने आधारभूत परमाणुओंके अधीन ही उसकी दशा रहती है। पुद्गलोंके बन्धमें यही रासायनिकता है कि उस अवस्था में उनका स्वतन्त्र विलक्षण परिणमन नहीं हो सकता किन्तु एक जैसा परिणमन होता रहता है । परन्तु आत्मा और कमंपुद्गलोंका ऐसा रासायनिक मिश्रण हो ही नहीं सकता। यह बात जुदा है कि कर्मस्कन्धके आ जानेसे आत्माके परिणमन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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