Book Title: Tattvarth vrutti aur Shrutsagarsuri
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 15
________________ ४/विशिष्ट निबन्ध : १९९ अतः शरीरादिसे भिन्न आत्मस्वरूपका परिज्ञान ही रागद्वेषकी जड़को काट सकता है और वीतरागताको प्राप्त करा सकता है। आत्मदर्शी व्यक्ति जहाँ अपने आत्मस्वरूपको उपादेय समझता है वहाँ यह भी तो समझता है कि शरीरादि पर पदार्थ आत्माके हितकारक नहीं हैं। इनमें रागद्वेष करना ही आत्माको बन्धमें डालनेवाला है। आत्माको स्वरूपमात्रप्रतिष्ठारूप सुखके लिए किसी साधनके ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु जिन शरीरादि परपदार्थों में सुखसाधनत्वकी मिथ्याबुद्धि कर रखी है वह मिथ्याबुद्धि ही छोड़ना है। आत्मगुणका दर्शन आत्ममात्रमें लीनताका कारण होगा न कि बन्धनकारक पर पदार्थों के ग्रहणका । शरीरादि पर पदार्थों में होनेवाला आत्माभिनिवेश अवश्य रागादिका सर्जक हो सकता है किन्तु शरीरादिसे भिन्न आत्मतत्त्वका दर्शन क्यों शरीरादिमें रागादि उत्पन्न करेगा? यह तो धर्मकीर्ति तथा उनके अनुयायियोंका आत्मतत्त्वके अव्याकृत होनेके कारण दृष्टिव्यामोह है जो वे अँधेरेमें उसका शरीरस्कन्धस्वरूप ही स्वरूप टटोल रहे हैं और आत्मदृष्टिको मिथ्यादृष्टि कहनेका दुःसाहस कर रहे हैं। एक ओर वे पृथिवी आदि भूतोंसे आत्माकी उत्पत्तिका खंडन भी करते हैं दूसरी ओर रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कन्धोंसे व्यतिरिक्त किसी आत्माको मानना भी नहीं चाहते। इनमें वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये चार स्कन्ध चेतनात्मक हो सकते हैं पर रूपस्कन्धको चेतन कहना चार्वाकके भूतात्मवादसे कोई विशेषता नहीं रखता। जब बुद्ध स्वयं आत्माको अन्याकृतकोटिमें डाल गए तो उनके शिष्योंका युक्तिमूलक दार्शनिक क्षेत्रोंमें भी आत्माके विषयमें परस्पर विरोधी दो विचारोंमें दोलित रहना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। आज राहुल सांकृत्यायन बुद्धके इन विचारोंको 'अभौतिकअनात्मवाद' जैसे उभयप्रतिषेधक नामसे पुकारते हैं। वे यह नहीं बता स आखिर फिर आत्माका स्वरूप है क्या ? क्या उसको रूपस्कन्धकी तरह स्वतन्त्र सत्ता है ? क्या वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये स्कन्ध भी रूपस्कन्धकी तरह स्वतन्त्र सत् है ? और यदि निर्वाणमें चित्तसन्त ति निरुद्ध हो जाती है तो चार्वाकके एकजन्म तक सीमित देहात्मवादसे इस अनेकजन्म-सीमित देहात्मवादमें क्या मौलिक विशेषता रहती है ? अन्तमें तो उसका निरोध हआ ही।। महावीर इस असंगतिजालमें न तो स्वयं पड़े और न शिष्योंको हो उनने इसमें डाला। यही कारण है जो उन्होंने आत्माका पूरा-पूरा निरूपण किया और उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना । जैसा कि मैं पहिले लिख आया हूँ कि धर्मका लक्षण है वस्तुका स्व-स्वभावमें स्थिर होना । आत्माका खालिस आत्मरूपमें लीन होना ही धर्म है और मोक्ष है। यह मोक्ष आत्मतत्त्वकी जिज्ञासाके बिना हो ही नहीं सकता। आत्मा तीन प्रकारके हैं-वहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । जो आत्माएँ शरीरादिको ही अपना रूप मानकर उनकी ही प्रिय साधनामें लगे रहते हैं वे बहिर्मख बहिरात्मा हैं। जिन्हें स्वपरविवेक या भेदविज्ञान उत्पन्न हो गया है, शरीरादि बहिःपदार्थोसे आत्मदृष्टि हट गई है वे सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा हैं। जो समस्त कर्ममल कलंकोंसे रहित होकर शुद्ध चिन्मात्र स्वरूपमें मग्न है वे परमात्मा हैं। एक ही आत्मा अपने स्वरूपका यथार्थ परिज्ञानकर अन्तर्दृष्टि हो क्रमशः परमात्मा बन जाता है। अतः आत्मधर्मकी प्राप्तिके लिए या बन्धमोक्षके लिए आत्मतत्त्वका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है। जिस प्रकार आत्मतत्त्वका ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार जिन अजीवोंके सम्बन्धसे आत्मा विकत होता है उसमें विभावपरिणति होती है उस अजीवतत्त्वके ज्ञानकी भी आवश्यकता है। जब तक इस अजीवतत्त्वको नहीं जानेंगे तब तक किन दोमें बन्ध हुआ यह मूल बात ही अज्ञात रह जाती है। अतः अजीवतत्त्वका ज्ञान जरूरी है। अजीवतत्त्वमें चाहे धर्म, अधर्म, आकाश और कालका सामान्य ज्ञान ही हो पर पुद्गलका किंचित् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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