Book Title: Sudansana Chariyam
Author(s): Umangvijay Gani
Publisher: Pushpchandra Kshemchandra Shah
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सुदंसणाचरियम्मि
॥१११॥
SALMALAEOSECOLOG
जिणपयमूलम्मि संपत्तो ॥१२॥ जोयणपमाणमित्तं नाणामणिरयणकणयकुसुमेहिं । पूरेइ सुरो सुव्वयजिणस्स चउपासमविद अस्सावत्र भूमि ॥६॥ वरवेणुवीणगेयारवेण नच्चंतसुरजुवाणीहिं । काउं वरपिच्छणयं जिणसंथवणं कुणइ एवं ॥६४॥
| हतित्थप्प तद्यथा-भगवन् ! भवजलधिषु यानपात्र ! भवभीतभव्यजनशरणम् । त्वय्यपि सौख्यविधातरि जन्मान्धाः किं भ्रम- स्वगो ना न्त्यपरे ? ॥६५॥ सपदि त्वद्वचनसुबोधितेन लब्धं मयेदममरत्वम् । संप्रत्यपवर्गसुखेन मे प्रसीद प्रसन्नाक्ष ! ॥६६॥ इय, | इगदसमु जयगुरुणो काऊण संथवं पयडिऊण अत्ताणं । अमरसुहरणं तुट्ठो निययावासं गओ विबुहो ॥६७॥ भयवं पि य भरुयच्छे इसो। कइवि दिणे बोहिऊण भवजिए । विहरइ बहुखित्तेसुं बोहितो भवियकमलाई ॥१८॥ इय भरहे अद्धट्ठमवाससहस्साइ विहरिऊण पह। किण्हनवमीइ जितु सम्मेए सिवसुहं पत्तो ॥६९॥ एयाइ पंचकल्लाणयाई एयासु पंचसु तिहीसु । उववासंबिलनिवियएक्कासणगेण जो कुणइ ॥७॥ तह मुणिसुचयपडिमं भत्तीइ कराविऊण उज्जमइ । सो नरसुरसुक्खाई भुत्तुं पावइ सिवं खिप्पं ॥७१॥ इय तइया मुणिसुव्वयजिणेण जं इह विबोहिओ अस्सो । अस्सावबोहतित्थं भरुयच्छे तेण | विक्खायं ॥७२॥ ता सुपवित्तं एयं जिणपयकमलंकियं विमुक्कमलं । इत्थाऽऽगओ य भद्दे ! लहइ अहम्मो वि सम्मत्तं ॥७३॥ कमलधयकलसचकंकियकमजुयलं ठवेइ जत्थ जिणो । भूमी वि सा पणासइ पावं भवभीयभवियाणं ॥७४॥ एएण कारणेणं भरहेणऽढावयम्मि सित्तुज्जे । चुंरतुंकारमहासेले करावियाई जिणहराई ॥७॥
अण्णं च-जिणभवणबिंवपूयाजत्ताबलिण्हवणदाणमाईयं । भावत्थयस्स कारणमेसो दबत्थओ भणिओ ॥७॥ अवि य-सोमं थिरं विसालं जिणबिंब पिच्छिउं अहम्मो वि । पावइ सुबोहिवीयं जह वेयहे तए पत्तं ॥७७॥ एयं
॥१११
SC-06
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296