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अजितशान्ति स्तवनम् ॥
(रिसिगण) ऐसे ऋषियोंके समुदायने (संथुअं) स्तुतिकी है जिनकी, (थिमिअं) निश्चयसे ( विबुहाहिव ) इन्द्र (धणवइ) धनदादिलोकपाल और ( नरवइ ) राजाओंने ( थुय ) स्तुति की है जिनकी ( महि ) पूजा की है जिनकी ( बहुसो ) अनेकवार ( अच्चिअं) पुष्पादिकों से अर्चनाकीहै जिनकी, (तक्सा) तपश्वार्यासे (अइरुग्गय) तत्काल उगाहुआ ( सरयदिवायर ) शरतकालिक सूर्य से ( समहिअ ) अधिकहै ( सप्पभं ) स्वकीय कान्ति जिनकी, (सिरसा ) मस्तकसे ( गगणंगण ) आकाश में ( विरहण ) संचारसे ( समुइअ) समुदित (चारण) जंघाचारणादि मुनियोंने ( वदिअं) वन्दन किया है जिनको।
(भावार्थ) विनयसे झुकेहुए मस्तकों पर अंजलियां रख ऋषियों ने स्तुति की है जिनकी, देवाधिपति इन्द्रने अपनी वाणीद्वारा निश्चयपूर्वक स्तुति की है जिनकी, धनदादि लोकपालने प्रणामादिकों से पूजा की है जिनकी, और राजाओंने पुष्पादि द्रव्योंसे अनेकवार अर्चना की है जिनकी, स्वत्योबलसे तत्काल उदयाचलावरोही शस्त्काल