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गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् ॥
(छाया) विस्फुरितप्रवरप्रवचनशिरोमणिः व्यूढदुर्वहक्षमः यः शेषाणां शेष इव (यः) सत्वानांत्राणकरः सन् सहते, ( यः ) सच्चरितानां सुगुरुणामहीनं पारतंत्र्य मुद्दहति ( सः ) श्रीनिलयः प्रणतमुनितिलकः जिनदत्त सूरिः जयति ॥ २०.२१ ॥
(पदार्थ) (विप्फुरिय) निकला है ( पवर ) श्रेष्ट ( पश्यण) सिद्धान्त जिनसे ऐसे आचार्योंमें ( सिरोमणी ) मस्तक के मणिके समान ( बूढ ) धारण की है ( दुबह ) धारण करनेको कठिन ( खमो ) क्षमा जिनने, (जो) जो ( सेसाणं ) तत्कालवर्ती अन्य आचार्योंमें (सेसुव्य) शेषके समान अर्थात् पूज्य हैं, जो ( सच्चरियाणं ) उत्तम आचार वाले ( सुगुरुणं ) अपने श्रेष्ट गुरुओंका ( अहीणं ) सम्पूर्ण ( पारतन्तं ) पारतन्त्र्य (उन्वहइ) धारण करते हैं, वे (सिरि ) समस्त लक्ष्मीके (निलउ) संस्थान और (पणय ) नमस्कार करनेवाले [ मुणि] साधुओंमें ( तिल ) तिलकके समान ऐसे ( जिण ) जिनोंने ( दत्त ) ज्ञानादिगुणोंसेयुक्त दिखाये हुए