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उल्लासिक स्तोत्रम् ॥
(छाया) जिनयुगपदभक्तिः ही अचिंत्योरुशक्तिः ( अस्ति ) ( तत्प्रभावातू ) वर कीर्तिः प्रसरति देहदीप्तिः वर्धते भुवि मैत्री विलसति सुप्रवृतिः जायते परमतृप्तिः स्फुरति संसारछितिः भवां.
( पदार्थ )
( जिणजुअ ) दोनों जिन भगवानके ( प ) चरणोंकी ( भक्ती ) भक्ति ( ही ) अत्यन्त आश्चर्य है कि ( अचिन्त ) बिचार में न आनेवाली ( उरु ) भारी है (सती) प्रभाव जिसका ( उसके प्रभाव से ) ( वर किती) श्रेष्ट यश ( पसरइ ) फैलता है ( देहदित्ती ) शररिका तेज ( बढए ) बढ़ता है ( भुवि ) संसार में ( मित्ती ) मित्रता ( विलसइ) बढ़ती है ( सुप्ववित्ती) अच्छा व्यापार ( जायए) होता है ( परमतित्ती ) अत्यन्तसंतोष (फुरइ ) उल्लसित होता है ( संसार छत्ती ) संसारका उच्छेद ( होइ ) होता है.
( भावार्थ )
अत्यन्त आश्चर्य है कि दोनों जिन भगवान के चरणोंकी भक्ति बिचार में न आनेवाली भारी शक्तिमती