Book Title: Sramana 2006 07
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 4
________________ सम्पादकीय श्रमण जुलाई-दिसम्बर २००६ का संयुक्तांक सम्माननीय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। पिछले अंक की तरह इस अंक के हिन्दी खण्ड में जैन साहित्य, दर्शन, आचार, इतिहास, कला एवं संस्कृति से जुड़े कतिपय महत्त्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किए गये हैं। वर्तमान में एक प्रश्न अधिक चर्चा में है कि 'जैन हिन्दू ही हैं या इस धर्म का अपना अलग अस्तित्व है। एतद् विषयक अनेक प्रश्नों का सम्यक् विश्लेषण करने वाले एक लेख (जैन हिन्दू ही हैं लेकिन किस अर्थ में?), का प्रकाशन इस आशय के साथ किया जा रहा है कि वह इस सन्दर्भ में उठ रही अनेक प्रांतियों के निवारण में सक्षम हो सकेगा। अंग्रेजी खण्ड में जैन दर्शन एवं कला से सम्बन्धित चार आलेखों का समावेश किया गया है। सभी आलेख विषयवस्तु, प्रस्तुति एवं भाषा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। चूँकि पिछला जुलाई-सितम्बर; २००६ अंक अपरिहार्य कारणों से समय से नहीं निकल पाया अत: इसके प्रकाशन के लिए निर्धारित समय अन्तराल को नियमित करने के लिए हमें इसे संयुक्त रूप से निकालना पड़ रहा है। इस अंक के साथ हम अपने सम्माननीय पाठकों के लिए जैन कथा-साहित्य में विशिष्ट स्थान रखने वाली प्राकृत-भाषा-निबद्ध श्रीमद् धनेश्वर सूरि विरचित 'सुरसुंदरीचरिअं' का पंचम परिच्छेद कतिपय कारणों से प्रकाशित नहीं कर पा रहे हैं। आशा है अगले अंक में हम अपने सुधी पाठकों को इस कथा रस में निमज्जित कर सकेंगे। अगले अंक से श्रमण के हिन्दी खण्ड का सम्पादन डॉ. विजय कुमार करेंगे तथा अंग्रेजी खण्ड का सम्पादन सम्पादक स्वयं करेगा। सुधी पाठकों से निवेदन है कि आपकी आलोचनायें ही हमें पूर्णता प्रदान करती हैं। एतदर्थ आप अपने अमूल्य विचारों/आलोचनाओं से हमें वंचित न करें, उनसे हमें सदा अवगत कराते रहें ताकि आगामी अंकों में हम अपनी कमियां सुधार सकें। सम्पादक - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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