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इसके पश्चात् उन्होंने उपसंहार रूप में पच्चीसवें स्तवन में चौवीसों जिनेश्वर भगवंतो के १४५२ गणधरों तथा चतुर्विध संघ का स्मरण किया है । इसके बाद संवर, निर्जरा रुप मोक्षमार्ग का और उसके अनुसरण से प्राप्त होने वाले अनन्त अव्याबाध सुख समाधि रुप महान् फल का निर्देश किया है । अंत में अपने पूर्वगामी परमोपकारी गुरुवर्ग का परिचय देकर उनके प्रति परम कृतज्ञता प्रदर्शित की है ।
ये चौवीसों स्तवन मुमुक्षु पाठकों के हृदय में अपूर्व भक्तिरस उत्पन्न करते हैं । शास्त्रों में निर्दिष्ट अनेक गंभीर तत्त्वों के रहस्य को सरलभाषा में प्रस्तुत कर इन स्तवनों में जिन भक्ति का तात्त्विक मार्ग बताया गया है । ____ मुमक्ष आत्माओं को इन स्तवनों का अर्थ सहित अभ्यास करके, उनका पुन : पुन : चिन्तन-मनन करना चाहिए जिससे परमात्मा के प्रति तथा उनके द्वारा प्रतिपादित आगमवचनों के प्रति अत्यन्त आदर, बहुमान और भक्ति पैदा हो और वह भक्ति आत्मा को मुक्ति देने वाली बने ।
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ग्रन्थकार का परिचय इन चतुर्विशति जिन स्तवनों के कर्ता हैं-पूज्य श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज । इनका जन्म सं. १७४६ में बीकानेर (राजस्थान) के उपनगर में हुआ था । उनके पिताश्री का नाम तुलसीदासजी लुणिया था और उनकी माताश्री का नाम धनबाई था ।
जब बालक गर्भ में था तब उनके माता पिता ने वाचक श्री राजसागरजी महाराज के पास ऐसी प्रतिज्ञा ली थी कि-'यदि हमारे यहां पुत्र का जन्म होगा तो हम उसे शासन को समर्पित कर देंगे ।'
किसी शुभ दिन बालक का जन्म हुआ । एक बार माता ने स्वप्न में अपने मुख में चन्द्रमा प्रवेश करता हुआ देखा था, अत : उस बालक का नाम देवचन्द्र रखा । चन्द्र की निर्मल कला के समान प्रतिदिन बढ़ता बालक आठ वर्ष का हुआ । एक बार वाचक श्री राजसागरजी महाराज उनके घर पधारे । तब ली हुई अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार धनबाई ने अपने पुत्ररत्न को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया । सं. १७५६ में दस वर्ष की वय में उन्होंने दीक्षा ली और उनका नाम 'राजविमल' रखा गया । परन्तु 'देवचन्द्रजी' नाम से उनकी अधिक प्रसिद्धि हुई। उनके गुरुदेव का नाम उपाध्याय श्री दीपचन्द्रजी म. था ।
उनका विहार क्षेत्र भी बहुत विशाल था । सिन्ध, मुल्तान, गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान, मेवाड़, मालवा आदि प्रदेशों में विचरण कर, धर्मोपदेश देकर अनेक भव्यजीवों को उन्होंने मोक्षमार्ग के अनुरागी और अनुयायी बनाये थे । गुरुसेवा और गुरुकृपा के प्रभाव से उन्होंने अद्भुत ज्ञान-खजाना प्राप्त किया था । उन्होंने तत्त्वज्ञान में विशेष प्रावीण्य प्राप्त किया था और उसमें भी द्रव्यानुयोग के गम्भीर रहस्यों को प्राप्त कर उन्हें आत्म-साधना के मार्ग में साकार रूप दिया था । उनके बनाये हुए आगम विषयक, योग विषयक और अध्यात्म विषयक अनेक ग्रन्थों के अवलोकन से भी उनकी विशिष्ट ज्ञानगरिमा और प्रतिभा की झांकी मिलती है ।
उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में से जो ग्रन्थ जिज्ञासुवर्ग के लिए और विद्वद्वर्ग के लिए बहुत मननीय और आदरणीय बने हैं, उनके नाम इस प्रकार है :
स्तोत्रपूजा, ध्यानदीपिका, चतुष्पदी, द्रव्यप्रकाश, आगमसार, विचाररत्नसार, ज्ञानसार पर ज्ञानमंजरी टीका, नय चक्रसार, गुरुगुण छत्तीसी, कर्मग्रन्थ टब्वा, कर्मसंवेध-प्रकरण, अध्यात्मगीता, वर्तमान जिन चौबीसी, अतीत जिन चौवीसी, विहरमानवीसी, नवपदपूजा उल्लास, अष्ट प्रवचन माता सज्झाय ।
उक्त और अन्य अनेक संस्कृत गुजराती गद्य-पद्य कृतियाँ भी उन्होंने रची हैं; जो वैराग्य, भक्ति, संयम और ध्यानादि योगों में मुमुक्षु आत्माओं को बहुत ही प्रेरक और उपकारक हैं ।
गुणद्रष्टि : वे खरतरगच्छ की समाचारी का पालन करते थे तो भी अन्य गच्छों के प्रति भी अत्यन्त प्रमोदभाव रखते थे । उपाध्याय श्री यशोविजयजी म. आदि ज्ञानी महात्माओं के प्रति वे अत्यन्त आदर और बहुमान रखते थे, उनकी गुणद्रष्टि और हृदय की विशालता से आकर्षित बने हुए तपगच्छ में गीतार्थ रूप में प्रसिद्ध पू. जिनविजयजी म., पू. उत्तमविजयजी म., पू. विवेकविजयजी म. आदि महात्माओं ने उनके पास जिनागमों का अध्ययन किया था ।।
शास्त्रराग : जिनागमों के प्रति उनके हृदय में अपूर्व और अपार भक्ति थी । उन्होंने अपनी रचनाओं में स्थान स्थान पर सिद्धान्तों का बहुमानपूर्वक उल्लेख किया है । उन्होंने आगमसार' नामक ग्रन्थ की रचना की । जिसमें उन्होंने जिनागमों के सारभूत पदार्थो का संग्रह किया है और अन्त में हितोपदेश के रुप में सूचना की है कि 'हे भव्यात्माओ ! यदि आपको जिनमत की अभिलाषा है, मोक्षमार्ग की इच्छा है तो निश्चय और व्यवहार नय को न छोड़ें। दोनों नयों को मानें ; व्यवहार नय से चलना और निश्चय नय से श्रद्धा करना ।
इस मार्मिक शिक्षा का महान हेतु समझाते हुए वे कहते हैं कि- 'यदि तुम व्यवहार नय की उत्थापना करोगे तो जिनशासन के तीर्थ का उच्छेद होगा । जो व्यवहार नय नहीं मानेगा वह गुरुवन्दना, जिनभक्ति, तप, पच्चक्खाण आदि नहीं मानेगा । इस प्रकार जो आचार का उत्थापन करेगा वह निमित्त कारण का उत्थापन करेगा और निमित्त कारण के बिना अकेला उपादान कारण सिद्ध नहीं हो सकता। अतः निमित्त कारणरुप व्यवहारनय अवश्य मानना चाहिए।
अध्यात्म प्रेम और प्रभुभक्ति : 'अध्यात्मगीता' नामक ग्रन्थ में उन्होंने अध्यात्म और ध्यानयोग की क्रमश: विकास पाती हुई भूमिकाओं का सरस वर्णन किया है । आगमिक परिभाषा में कहें तो उन्होंने चौथे गुणस्थान से लेकर सिद्ध अवस्था तक के साधक और सिद्ध अवस्था का संक्षेप में सम्पूर्ण परिचय
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