Book Title: Shravak Dharm Vidhi Prakaran Author(s): Haribhadrasuri, Vinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 9
________________ (श्रावक धर्म विधि प्रकरण ) की दीक्षा अपेक्षित है, अत: वे उसमें दीक्षित हो गए। वस्तुत: एक राजपुरोहित के घर में जन्म लेने के कारण वे संस्कृत व्याकरण, साहित्य, वेद, उपनिषद्, धर्मशास्त्र, दर्शन और ज्योतिष के ज्ञाता तो थे ही जैन परम्परा से जुड़ने पर उन्होंने जैन साहित्य का भी गम्भीर अध्ययन किया। मात्र यही नहीं, उन्होंने अपने इस अध्ययन को पूर्व अध्ययन से परिपुष्ट और समन्वित भी किया। उनके ग्रन्थ योगसमुच्चय, योगदृष्टि, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय आदि इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि उन्होंने अपनी पारिवारिक परम्परा से प्राप्त हुआ ज्ञान और जैन परम्परा में दीक्षित होकर अर्जित किए ज्ञान को एक दूसरे का पूरक बनाकर ही इन ग्रन्थों की रचना की है। हरिभद्र को जैनधर्म की ओर आकर्षित करने वाली जैन साध्वी महत्तरा याकिनी थीं, अत: अपना धर्म-ऋण चुकाने के लिये उन्होंने अपने को महत्तरा याकिनीसूनु अर्थात् याकिनी का धर्मपुत्र घोषित किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में अनेकश: अपने साथ इस विशेषण का उल्लेख किया। हरिभद्र के उपनाम के रूप में दूसरा विशेषण ‘भवविरह' है। उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में इस उपनाम का निर्देश किया है। विवेच्य ग्रन्थ पञ्चाशक के प्रत्येक पञ्चाशक के अन्त में हमें 'भवविरह' शब्द मिलता है। अपने नाम के साथ यह भवविरह विशेषण लगाने का क्या कारण रहा होगा, यह कहना तो कठिन है फिर भी इस विशेषण का सम्बन्ध उनके जीवन की तीन घटनाओं से जोड़ा जाता है। सर्वप्रथम आचार्य जिनदत्त ने उन्हें भवविरह अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने की प्रेरणा दी, अत: सम्भव है उनकी स्मृति में वे अपने को भवविरह का इच्छुक कहते हों। यह भी सम्भव है कि अपने प्रिय शिष्यों के विरह की स्मृति में उन्होंने यह उपनाम धारण किया हो। पं० सुखलालजी ने इस सम्बन्ध में निम्न तीन घटनाओं का संकेत किया है- (१) धर्मस्वीकार का प्रसंग, (२) शिष्यों के वियोग का प्रसंग और (३) याचकों को दिये जाने वाले आशीर्वाद का प्रसंग तथा उनके द्वारा भवविरहसूरि चिरंजीवी हो, कहे जाने का प्रसंग। इस तीसरे प्रसंग का निर्देश कहावली में है। हरिभद्र का समय हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में अनेक अवधारणाएँ प्रचलित हैं। अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंग ने विचारश्रेणी में हरिभद्र के स्वर्गवास के सन्दर्भ में निम्न प्राचीन गाथा को उद्धृत किया है - पंचसए पणसीए विक्रम कालाउ झत्ति अस्थिमओ। हरिभद्दसूरीसरो भवियाणं दिसउ कल्लाणं ॥ 0Page Navigation
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