Book Title: Shiv Mahimna Stotram
Author(s): Thakurprasad Pustak Bhandar
Publisher: Thakurprasad Pustak Bhandar

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Page 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा टीका-सहितम * महोक्षः खट्वाङ्ग परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेतीयत्तव वरद ! तन्त्रोपकरणम् । सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहिताम् नाह स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भ्रमयति ॥८॥ ___ हे वरद ! महोद (बैल) खटिया का पाया, परशु, गजचर्म, भस्म, सर्प, कपाल इत्यादि आपकी धारण सामग्रियाँ हैं, परन्तु उन ऋद्धियों को,जो आपकी कृपा से प्राप्त देवता लोग मोगते हैं; आप क्यों नहीं भोगते ? स्वात्माराम ( आत्मज्ञानी) को विषय (रूप-रसादि ) रूपी मृगतृष्णा नहीं भ्रमा सकती है ॥ ८॥ ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्धृवमिदम् परो धौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये । समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन ! तैर्विस्मित इव स्तुवञ्जिह्न मि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥९॥ __ हे पुरमधन ! सांख्य मतानुयायो "नवसत उत्पत्तिः सम्भवति" के अनुसार जगत्को ध्रव (नित्य) बुद्धमतानुयायी, अध्व (क्षणिक ) तार्किक नन नित्य आकाश आदि पञ्च और पृथिव्यादि परमाणु भौर अनित्य कार्यद्रव्य, दोनों मानते हैं । इन मतान्तरोंसे विस्मित मैं मा आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं होता, क्योंकि वाचालता लज्जाको स्थान नहीं देती ॥९॥ For Private and Personal Use Only

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