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* भाषा टीका सहितम्
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भाषार्थ::- जब नृत्य करने के समय जटाओं में विराजमान सर्पों के फणों व मणियों की चमकती हुई पीलो कान्ति फैलती है और दिशायें पीली हो जाती हैं तब ऐसा प्रतीत होता है मानों शिवजी ने दिग्वनिताओं के मुख पर केशर मल दिया है, ऐसे और मदसे अन्धा को गजासुर या उसके चर्मको ओढ़कर परम शोभाको प्राप्त होनेवाले श्रीमहादेवजी के विषे मेरा मन परम आनन्द को प्राप्त होवे ॥ ४॥ ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् । सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरम् महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥ ५ ॥
भाषार्थ:- जिन्होंने अपने मस्तक रूप आँगन में धक् धक् जलते हुए अग्नि के कण से कामदेव को भस्म कर दिया, जिनको ब्रह्मा आदि देवताओं के अधिपति भी प्रणाम करते हैं, जिनका विशाल भाल चन्द्रमा की किरणों से विराजमान रहता है और जिनकी जटाओं में कल्याणकारिणी श्री गङ्गाजी निवास करती हैं ऐसे कपालधारी तेजो मूर्ति सदाशिव हमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों सम्पत्ति देवें || ५ |
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखरप्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
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