Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 18
________________ शंका-समाधान समाधान - वहां उक्त दोनों विकल्पोंसे रहित स्थानसे अभिप्राय सयोगी गुणस्थानसे है। पुस्तक २, पृ. ७२३ ८ शंका-आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञानियोंके आलापोंमें ज्ञान दो और दर्शन तीन कहे हैं, सो दो ज्ञानोंके साथ तीन दर्शनोंकी संगति कैसे बैठती है ? (नानकचंदजी खतौली) समाधान-चूंकि छद्मस्थोंके ही मति-श्रुत ज्ञान होते हैं और ज्ञान होनेसे पूर्व दर्शन होता है, अतएव जिन मति-श्रुतज्ञानियोंके अवधिदर्शन उत्पन्न हो गया है किन्तु अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं हो पाया, उनकी अपेक्षा उक्त दो ज्ञानोंके साथ तीन दर्शनोंकी संगति बैठ जाती है। पुस्तक ४, पृ. १२६ ९. शंका-पुस्तक २, पृ. ५००, व ५३१ पर लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंच व मनुष्योंमें चक्षु और अचक्षु इन दोनों दर्शनोंका सद्भाव बतलाया है, किन्तु पुस्तक ४, पृष्ठ १२६, १२७ व ४५४ पर लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके चक्षुदर्शनका अभाव कहा है। इस विरोधका कारण क्या है। (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर ) समाधान-पुस्तक २ में लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके सामान्य आलाप कहे गये हैं, अतएव वहां क्षयोपशम मात्रके सद्भावकी अपेक्षा दोनों दर्शनोंका कथन किया गया है। किन्तु पुस्तक ४ में दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा क्षेत्र व कालकी प्ररूपणा करते हुए उक्त विषय आया है, अतएव वहां उपयोगकी खास विवक्षा है । लब्धि-अपर्याप्तकोंमें चक्षुदर्शन लब्धिरूपसे वर्तमान होते हुए भी उसका उपयोग न है और न होना संभव है, क्योंकि पर्याप्ति पूर्ण होनेसे पूर्व ही उस जीवका मरण होना अवश्यंभावी है । यही बात स्वयं धवलाकारने पुस्तक ४ के उक्त दोनों स्थलों पर स्पष्ट कर दी है कि लब्ध्यपर्याप्तक अवस्थामें क्षयोपशम लब्धि उपयोगकी अविनाभावी न होनेसे उसका वहां निषेध किया गया है । पुस्तक ४, पृ. १५५-१५८ आदि १०. शंका-पुस्तक ३, पृ. ३३-३६ तथा पुस्तक ४, पृ. १५५-१५८ पर कथन है कि स्वयंभूरमण समुद्रके अन्तमें तिर्यग्लोककी समाप्ति नहीं होती किन्तु असंख्यात द्वीप-समुद्रोंसे रुद्ध योजनोंसे संख्यात गुणे योजन आगे जाकर होती है। परन्तु पुस्तक ४, पृष्ठ १६८ पर कहा गया है कि स्वयंभूरमण समुद्रका विष्कंभ एक राजुके अर्ध प्रमाणसे कुछ अधिक है, तथा पृ. १९९ पर स्वयंभूरमणका क्षेत्रफल जगप्रतरका ८२वां भाग बताया गया है, जिससे विदित होता है कि राजुका अन्त स्वयंभूरमण समुद्रपर ही हुआ है। इस विरोधका समाधान क्या है ! (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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