Book Title: Shatkhandagama Pustak 06
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(२)
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
पुस्तक १, पृ. ४०६ ४. शंका-जब सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि तीनों ही पाये जाते हैं तब सूत्र १७० व १७१ के पृथक् रचनेका क्या कारण है ? (नानकचंदजी, खतौली )
समाधान-अनुदिश एवं अनुत्तरादि उपरिम विमानोंमें सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नहीं, इस विशेषताके ज्ञापनार्थ ही दोनों सूत्रोंकी पृथक् रचना की गई प्रतीत होती है।
पुस्तक २, पृ. ४८२ ५. शंका-तिर्यंच संयतासंयतोंमें क्षायिक सम्यक्त्वके न होनेका कारण यह बतलाया गया है कि " वहांपर जिन अर्थात् केवली या श्रुतकेवलीका अभाव है" । किन्तु कर्मभूमिमें जहां संयतासंयत तिर्यंच होते हैं वहां केवली व श्रुतकेवलीका अभाव कैसे माना जा सकता है, वहां तो जिन व केवली होते ही हैं ? ( नानकचंदजी, खतौली )
समाधान-शंकाकारकी आपत्ति बहुत उचित है । विचार करनेसे अनुमान होता है कि धवलाके 'जिणाणमभावादो' पाठमें कुछ त्रुटि है। हमने अमरावतीकी हस्तलिखित प्रति पुनः देखी, किन्तु उसमें यही पाठ है। पर अनुमान होता है कि 'जिणाणमभावादो' के स्थानपर संभवतः ‘जिणाणाभावादो' पाठ रहा है, जिसके अनुसार अर्थ यह होगा कि संयतासंयत तिर्यंच दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण नहीं करते हैं, क्योंकि तिर्यंचगतिमें दर्शनमोहके क्षपण होनेका जिन भगवान्का उपदेश नहीं पाया जाता । (देखो गत्यागति चूलिका सूत्र १६४, पृ. ४७४-४७५)
पुस्तक २, पृ. ५७६ - ६. शंका-यंत्र १९२ में योगके खानेमें जो अनु. संकेत लिखा गया है उससे क्या अभिप्राय है ? (नानकचंदजी, खतौली)
समाधान-अनु. से अभिप्राय अनुभयका है जिसका प्रकृतमें असत्यमृषा वचन योगसे तात्पर्य है।
पुस्तक २, पृ. ६२९ ७. शंका-पंक्ति १७ में जो संज्ञिक तथा असंज्ञिक इन दोनों विकल्पोंसे रहित स्थान बतलाया है, वह कौनसे गुणस्थानकी अपेक्षा कहा गया है ? ( नानकचंदजी, खतौली)
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