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२३. देव-पूजा
४. आदर्श-पूजा हर्ष नहीं हो रहा है, और न निन्दा से खेद । मुझे ही क्यों हो? किसी के लिए मैं चिन्तायें क्यों करूँ ? किसी की निन्दा से मैं दु:खी क्यों हूँ ? किसी के दुःख में मैं दुःख क्यों मानूं ? हुआ करे लोक व्याकुल, मैं तो सुखी हूँ, मुझे तो अपने से मतलब है। मैं किसी का बुरा भी क्यों चिन्तू ? मैं तो अबाध्य हूँ। मैं शरीर, पुत्र, धन, धान्यादि को अपना हितकारी या अहितकारी भी क्यों समझू ? आप जिस प्रकार मुझे देख रहे हैं, इस निन्दक को देख रहे हैं, इस समवशरण की विभूति को देख रहे हैं, उसी प्रकार क्यों न देखू मैं भी सर्व ज्ञेय को ? हैं वे भी कोई पदार्थ, पड़े रहें, मुझे क्या, मुझसे क्या लेते हैं, मुझे क्या देते हैं ? नाहक़ विकल्प किया करता था, नि:सार, निष्प्रयोजन । किसी का क्या जाता था, मेरा ही बिगड़ता था, मेरे ही घर में आग लगती थी। आज आपके दर्शन पाकर न जाने कहाँ जाते रहे हैं ये सब विकल्प।
आप और मैं ? अरे ! यह द्वैत भी कहाँ टिकता है यहाँ ? जो आप हैं सो ही तो मैं हँ. शान्तमर्ति आप और शान्तमूर्ति मैं । अरे रे ! यह क्या ? सब शान्ति ही शान्ति, और कुछ नहीं। यहाँ तो 'शान्ति और मैं' इस द्वैत को भी अवकाश नहीं । कहूँ भी क्या, दूसरा कुछ है ही नहीं यहाँ । एक अद्वैत ब्रह्म, शान्तं-शिवं-सुन्दरं । कैसे बखान करूं इसकी महिमा का ? इसकी महिमा का क्या अपनी महिमा का, अपने सौन्दर्य का । शरीर के सौन्दर्य का नहीं कह रहा हूँ भगवन ! अपने सौन्दर्य की बात है, अन्तरंग सौन्दर्य की, जिसके सामने जगत की सुन्दरता भ्रम है, जिसमें तन्मय हो जाने पर सारा जगत कल्पना-मात्र है, जहाँ मैं और शान्ति का भी भेद नहीं। आहा ! यह, बस यह, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। ___ अरे मैं तो आपकी पूजा करने आया था पर आपको भूल गया और अपने को भी । कौन पूजा करे, किसकी करे, और कैसे करे ? कोई पदार्थ ही दिखाई नहीं देता, क्या अर्पण करूं? एक शान्ति है, लीजिये यही चढ़ा देता हूँ चरणों में और शान्ति को चरणों में चढा दिया तो मैं पृथक रह ही कहाँ गया? मैं भी तो चढ़ गया वहीं । चरणों में क्या चढ़ना, आपकी शान्ति में ही तो मिल गया। आपकी शान्ति और मेरी शान्ति दो रही ही कहां? एक शान्ति ही तो है और वह मैं ही तो हूँ ? बस फिर वही शान्ति, उसके साथ तन्मयता, वही सौन्दर्य । बताइये भगवन् ! पूजा करूं तो कैसे करूं? पुनः-पुन: शान्ति में खोया जा रहा हूँ, पूजा का विकल्प फिर शान्ति, फिर पूजा का विकल्पे फिर शान्ति। यह कैसी आँखमिचौनी है: कभी अन्दर लखाता हैं और कभी बाहर, कभी अपनी ओर और कभी आपकी ओर? यह मेरी अस्थिर बद्धि का ही परिणाम है. पजा करूँ तो कैसे करूं?
यही तो है यथार्थ पूजा, और क्या चाहता है इसके अतिरिक्त ? चढ़ाने व पढ़ने में क्या रखा है ? अपनी शान्ति पर न्योछावर होकर उसके साथ तन्मय हो जाना ही प्रभु के चरणों में वास्तविक भेंट चढ़ाना है । तू तो धन्य है कि तुझे वास्तविक पूजा का अवसर मिला। लोगों के द्वारा की जाने वाली पूजा पर क्यों जाता है ? ये बिचारे स्वयं नहीं जानते कि पूजा किसे कहते हैं । निज शान्ति के साथ तन्मयता में अत्यन्त तृप्ति, सन्तोष व हल्कापन सा जो प्रतीति में आता है वही वास्तव में देव पूजा है, अन्तरंगपूजा।
इस पूजा में से स्वाभाविक माधुर्य आ जाने पर स्वत: ही प्रभु के प्रति एक बाहुमान सा उत्पन्न हो जाता है । इस माधुर्य से च्युत हो जाने पर अर्थात् निज शान्ति के वेदन से हटकर प्रभु का विकल्प उत्पन्न हो जाने पर, कुछ इस प्रकार की स्वाभाविक दासता सी उत्पन्न हो जाती है कि हे प्रभु ! मुझ जैसे भव-कीट को यह अतुल निधान प्रदान करके कृतकृत्य कर दिया है आपने । 'मैं किन शब्दों में कृतार्थता प्रकट करूँ? आपको कहाँ बिठाऊ ?' इत्यादि जो पूर्व कथित विकल्पों के आधार पर प्रभु में तन्मयता है, वह ही कहलाती है उनकी भक्ति या बहुमान । इस प्रकार का बहुमान कृत्रिम नहीं हआ करता, स्वाभाविक होता है, अन्तरध्वनि से निकलता है. किसी गरु की प्रेरणा से नहीं होता. स्वयं अन्तष्करण की प्रेरणा से, उसके झुकाव से उत्पन्न होता है। स्वाभाविक बहुमान का कुछ चित्रण इस दृष्टान्त पर से दृष्टि में आ सकता है।
एक सेठ जी थे, एक ही पुत्र था उनको । दुर्भाग्य से कुसंगति में पड़ गया और सम्पत्ति लुटाने लगा। सेठ जी को बड़ी चिन्ता हुई, बीमार पड़ गए, चिन्ता बढ़ती गई। ‘क्या होगा मेरे पीछे इस लड़के का ? भूखा मरेगा' और इसी प्रकार अनेकों विकल्पों में फंसे अन्तिम श्वास लेने लगे। उनका एक मित्र था। बड़ा प्रेम था दोनों में । अपने मन की
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