Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 328
________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २९७ ४. बारह भावनाय को बुला रहा है । वह तुझे अपनाये या न अपनाये परन्तु चिन्तायें अवश्य अपना लेंगी तुझे । चन्द्रमा को पकड़ने की इच्छा करेगा तो बता रोने के अतिरिक्त क्या लगेगा तेरे हाथ ? अनहोनी बात हुई है कभी, असम्भव सम्भव बन सकता है कभी? क्या कहता है “ये पुत्रादि तो मेरे हैं ही, मेरी सेवा करेंगे, यह शरीर तो मेरा है ही, मेरे साथ घुला पड़ा है, कहाँ जा सकते हैं ये मेरी बिना आज्ञा के ?" अरे भूले राही ! कहाँ से आ रहा है तू, कहाँ जाने का विचार है तेरा, कितनी देर के लिये आया है तू यहाँ, जरा बता तो सही? कौन है तू विचार तो सही ? कहाँ से आ रहे हैं ये पुत्र-मित्र आदि, कहाँ जा रहे हैं ये, कितनी देर के लिए आए हैं यहाँ ? जरा इनसे पूछ तो लेता इन्हें अपना बनाने से पहले ? ठग न हों कहीं ? लूट न ले जायें तेरी शान्ति को तेरे अतिथि बनकर? क्या पहिचाना नहीं इनको? अरे भोले ! वही तो हैं ये जो न जाने कितनी बार टकराये तुझे इस लम्बी यात्रा में ? हर बार नया रूप धारण करके सदा तेरे बनकर आये और अन्य के बनकर चले गये । तू रह गया रोता का रोता । अब तक भी नहीं समझा इन ठगों की ठगी ? ज्ञानी जीवों की शरण में आया है, प्रकाश पा रहा है, अब तो देख ले आँखे खोलकर ? स्वप्न छोड़ दे भाई ! ये सब पराये हैं, पृथक्-पृथक् अपना स्वार्थ लेकर आए हैं । ये तुझसे अन्य हैं, तू इनसे अन्य है । यह है 'अन्यत्व' भावना । ५. इधर आ, अपने एकत्व को देख । इनकी भाँति तू भी तो इन सबसे पृथक् है । सत्ताधारी भगवान आत्मन् ! क्यों संशय करता है ? अपनी स्वतन्त्र सत्ता को क्यों नहीं देखता? इन बेचारे रंकों से क्यों माँगता है अपनी प्रभुता की भीख? अब छोड इनका आश्रय देख इस ओर अपने स्वतन्त्र ऐश्वर्य को, देख अपने पुराने इतिहास को, सुन अपनी कहानी । अनादि काल से तू अकेला ही तो चला आ रहा है। माना कि मार्ग में अनेकों मिले, पर सभी तो बिछुड़े, एक ने भी तो साथ नहीं दिया ? अकेला ही रहा, अकेले ही ने सब सुख-दुःख भोगे। बता तो सही कि इस स्वार्थी टोली ने कभी बटाये हैं तेरे दुःख? फिर अब क्यों अपना सुख बाँटने की चिन्ता में है ? सर्प को दूध पिलायेगा तो दुःख उठाएगा। अकेले ठोकरें खाई हैं, अब अकेले ही अपने वैभव को भोग । क्यों लुटाता है इसे इनके लिये ? एकत्व भावना अपनी शान्ति का त ही अकेला स्वामी है, तू ही अकेला ' उसे भोगेगा। कोई उसे तुझ से छीन नहीं सकता, बँटवा नहीं सकता। अब आकाश पुष्प को तोड़ने की व्यग्रता छोड़, जगत् के अन्य पथिकों को अपनाने की बजाय अकेले अपने को अपना, तेरी सब व्यथाएँ शान्त हो जायेंगी। शरीर का ममत्व छोड़, जो इनसे भी अधिक एकमेक हुआ पड़ा है तेरे साथ, फिर तू जान पायेगा कि किसको हो रही है पीड़ा, किसको खा रही है गीदड़ी, इस पड़ौसी को या तुझे? पड़ौसी को खाने दे, तुझे क्या ? तू तो सुरक्षित है ना? यह रहा तू तो अकेला यहाँ बैठा, सब कुछ इस खेल को देखने वाला । खेल मात्र को देखकर दुःखी क्यों होता है ? अग्नि देखने से ही क्या जल जाती है किसी की आँखें ? बस तो इस शरीर को खाया जाता देखकर क्या तू खाया जायेगा? व्यथा को भूल, इधर देख अपने वैभव को जिसके साथ 'अकेला' तू एकमेक हुआ पड़ा है । जहाँ अन्य किसी का प्रवेश नहीं । यह हुई 'एकत्व भावना' । ६. अरे ! किसके पीछे व्याकुल बनता है ? यदि किसी दूसरे को ही अपनाना था तो कोई अच्छी चीज तो छाँटता ? यहाँ तो अनकों भरी पड़ी हैं। क्या यह दुर्गन्धियुक्त और घिनावनी वस्तु ही अच्छी लगी है तुझे इन सब में ? अरे प्रभु ! अपनी प्रभुता को इतना भूल गया, इतना गिर गया ? यह अनुमान भी नहीं किया जा सकता था। तनिक तो लाज कर, हाँ तो त तीन लोक का अधिपति, सन्दर व स्वच्छ और कहाँ यह विष्टा का घडा जिसके रोम-रोम से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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