Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 344
________________ आदर्श सल्लेखना ३१३ सल्लेखना का सूत्रपात (२७) शान्त मन से ज्यादा स्वास्थ्यप्रद और आनन्दप्रद कोई चीज नहीं । -औरिसन स्वेटमार्डन (२८) दनिया की तमाम शानोशौकत से बढकर है आत्म-शान्ति स्थिर और शान्त अन्तरात्मा। -शेकस्पियर (२९) पहले स्वयं शान्त बन, तभी औरों में शान्ति का सञ्चार कर सकता है। -थामस कैम्पी (३०) जो पूर्ण सद्गुणशील है, उसे ही आन्तरिक शान्ति मिलती है। -कनफ्यूशियस (३१) ईश्वर से एक हो जाना ही शान्त होना है। -ट्राइन (३२) जो निर्जनता से डरता है और लोगों के संग से खुश होता है वह अपनी शान्ति खोता है। -फजल अयाज (३३) मौन के वृक्ष पर शान्ति का फल लगता है। -अरबी कहावत (३४) विज्ञान और धर्म एक दूसरे के उसी तरह अविरोधी हैं जिस तरह प्रकाश और बिजली। -रेवरेण्ड फौकी (३५) पानी में नाव रहे मगर नाव में पानी न रहे ऐसे ही मुमुक्षु दुनिया में रहे मगर दुनिया उसमें नरहे । –रामकृष्ण परम हंस (३६) शान्ति के बाधक कारण रागादिक-भावों को हेय समझने से शान्ति का मार्ग तो दिखाई देगा किन्तु शान्ति नहीं मिल सकती । शान्ति तो तभी मिलेगी जब उन बाधक कारणों को हटाया जायेगा। -गणेश प्रसाद वर्णी (३७) सत्य को सजाने की जरूरत नहीं होती, सजाने से उसकी सुन्दरता कम हो जाती है । 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्'-सत्य स्वयं शिव और सुन्दर है। -म० भगवानदीन तेरी महिमा (श्री जय भगवान् एडवोकेट) क्यों तृषायुत, क्यों चिन्तित तू । क्यों आशाहत क्यों याचक तू ? ॥टेक ॥ मधु अमृत से भरा हुआ तू, हास उदय उत्कर्ष पतन के, शान्ति-सुधा का सागर । कर्ता। ज्ञान ज्योति से जगमग जगमग, भव्य विभूति अतुल वैभवमय, आलोकों का आगर ॥१॥ तू भविष्य का धर्ता ॥४॥ जग की सारी लालिम लीला, ब्रह्म ईश का वास तुही है, शोभा सुषमा तुझसे। ऋद्धि सिद्धि का साधक। काल चक्र से युग युग की है, सब मूल्यों का आंकन तुझसे, गौरव गाथा तुझसे ॥२॥ ___ सत्य असत्य का मापक ॥५॥ देव असुर नर पशु अरु पंछी, ज्ञान कला विज्ञान व दर्शन, मीन मकर कृमि भौरे। ___ दान अतुल हैं तेरे । अग्नि वायु जल भूमि वनस्पति, धर्म कर्म अरु रीति नियम जग, रूप विविध हैं तेरे ॥३॥ सब कल्पन हैं तेरे ॥६॥ सत्य महामार्ग अरु ज्योति, तू पौरुष का धाता। पुण्य पाप सुख दुख तथ्यों का, तू है लोक-विधाता ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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