Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 338
________________ ४८. उपसंहार ( १. निश्चय व्यवहार मैत्री। १. निश्चय व्यवहार-मैत्री-साधना-खण्ड के इस लम्बे चौड़े विस्तार को पढ़कर या सुनकर किसी को ऐसी शंका उत्पन्न हो सकती है, कि मैं बाह्य क्रिया-काण्ड पर अधिक जोर देता जा रहा हूँ, जबकि शान्ति प्राप्ति का सम्बन्ध इस सब क्रिया-काण्ड से दूर कुछ अन्तरंग की प्रवृत्ति से है। ऐसा विचारना योग्य नहीं क्योंकि इतने लम्बे प्रकरण में सर्वत्र ही बाह्य व अन्तरंग की यथा योग्य मैत्री बराबर दर्शाई गई है, अन्तरंग के झुकाव से शून्य केवल बाह्य क्रिया की निस्सारता बराबर बताई जाती रही है । अत: उसको ध्यान में रखकर ही सर्वत्र इस मार्ग के रहस्य को समझने का प्रयत्न करें । दूसरी बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि यह सब कुछ उनके प्रति कहा जा रहा है जो अभी तक लौकिक प्रवृत्तियों में अधिक उलझे रहने के कारण अन्तरंग का स्पर्श करने को समर्थ नहीं हो रहे हैं, अथवा उसमें अधिक देर स्थिति पाने में समर्थ नहीं हो रहे हैं। तीसरी बात यह है कि इस ग्रन्थ का नाम 'सिद्धान्त-दर्शन' नहीं बल्कि ‘पथ-दर्शन' है । सिद्धान्त-दर्शन हुआ होता तो यही कहता कि सर्व अशुभ लौकिक प्रवृत्तियों की भाँति देवपूजा आदि छहों शुभ प्रवृत्तियाँ भी हेय हैं, उपादेय तो केवल एक अन्तरंग शुद्ध आत्म-स्वभाव ही है । ऐसी बात पहले 'शुभ-आस्रव-निषेध' के अधिकार में कही भी जा चुकी है। कहने और करने में या समझने व तद्रूप होने में बहुत अन्तर है। समझने में थोड़ी देर लगती है, पर करने में बहुत । समझने के लिए बुद्धि या ज्ञान मात्र ही पर्याप्त है, अन्य साधनों की आवश्यकता नहीं, पर करने के लिये किन्हीं साधनों व उपाय-विशेषों की आवश्यकता पड़ती हैं । क्रमपूर्वक इन उपायों में प्रवृत्ति करने का नाम ही पथ है । देवपूजा आदि सर्व अंग भी इस पथ के साधन केवल इसलिए स्वीकार किये गये हैं, कि प्रारम्भिक भूमिका में इनको यथाशक्ति करते हुए क्षण भर को कदाचित् अन्तरंग प्रवृत्ति अर्थात् शान्ति के साथ तन्मयता बराबर होती रहती है, जैसाकि उन-उन प्रकरणों में पहले ही विस्तार के साथ बताया जा चुका है । यदि अन्तरंग प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव होता तो वे वास्तव में साधन भी नहीं कहे जा सकते थे। बन्धुवर ! शब्दों को पकड़कर दोष ढूँढ़ने का प्रयल न करें, अभिप्राय को पढ़ने का प्रयत्न करें। शब्दों में दोष ढूँढ़ना पक्षपात की उपज है जो अत्यन्त हेय है। प्रयोजनवश भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया जाना न्याय संगत है। सिद्धान्त दर्शन कहते हुए जिस बात को होना' शब्द से कहा जाता है, पथ-दर्शन कहते समय उसी बात को 'करना' शब्द से कहा जाता है, क्योंकि पथ कछ क्रियारूप हआ करता है। क्रिया दो प्रकार की होती है-अन्तरंग क्रिया तथा बाह्य क्रिया अर्थात् भाव क्रिया तथा हलन-डुलनरूप क्रिया। यद्यपि अन्तिम लक्ष्य पर पहुँचकर केवल भावात्मक अन्तरंग क्रिया ही शेष रह जाती है, परन्तु जब तक बाह्य क्रिया का जीवन में से अभाव नहीं हो जाता तब तक दोनों ही क्रियाओं के प्रति ‘करने' शब्द का प्रयोग किया जाता है । इसलिए पथ-दर्शन के निरुपण में अन्तरंग व बाह्य दोनों ओर कुछ करने की प्रेरणा छिपी रहती है। करने का अर्थ दो रूप लिए हुए है, कुछ का त्याग करना और कुछ का ग्रहण करना। दोनों ही बातों में सर्वत्र परस्पर मैत्री वर्ता करती है। इसीलिए यहाँ सर्व ही प्रकरणों में लौकिक क्रियाओं से या ग्रहण रूप प्रवृत्तियों से हटकर उन-उन क्रियाओं में तथा त्यागों में बुद्धिपूर्वक कुछ प्रवृत्ति करने को कहा गया है। परन्तु यदि सैद्धान्तिक रूप से देखा जाए तो साधक वास्तव में इन क्रियाओं को करता नहीं, बल्कि ये सर्व ही क्रियायें उससे स्वयं सहजरूप से होती हैं । कहने और होने में महान अन्तर है। अन्तरंग रुचि से करना तो 'करना' कहलाता है जैसे किसान के द्वारा खेती बोना, और बिना रुचि के किसी कारणवश करना पड़ना 'होना' कहलाता है जैसे कैदी के द्वारा खेती बोना । वास्तव में साधक की अन्तरंग रुचि तो यही रहती है कि किसी प्रकार इन सर्व प्रवृत्तियों को तिलाञ्जली देकर एकमात्र ज्ञायक-भाव में स्थिति पाऊँ, ज्ञानधारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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