Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 326
________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २९५ ४. बारह भावनायें परी हृदय रो रहा है चीख-चीख कर, जिह्वा थक गई है रक्षा-रक्षा पुकार कर । आज एक गीदड़ी खा रही है धीरे-धीरे उस जीवित सूकमाल को। घण्टे दो घण्टे को बात नहीं, बराबर तीन दिन हो गए हैं आज उसे खाते-खाते, पर सकमाल जीवित है, पूर्ववत् निश्चल शान्ति की उपासना में, पूर्ववत् ध्यानस्थ वैराग्य-मुद्रा में। यह है एक योगी का पराक्रम । कौन दे रहा है उसे बल इतनी बड़ी पीड़ा पर विजय पाने के लिए? आश्चर्य मत कर जिज्ञासु ! उसे वह बल कोई दूसरा नहीं दे रहा है, स्वयं उसका अन्तष्करण दे रहा है, परन्तु क्या वह बल उसी के पास है, अन्यत्र नहीं? नहीं तेरे पास भी वह है, इसी समय है, परन्तु खेद है कि तू उसे जानता नहीं। यदि जान जाए तो इसी अल्प गृहस्थ अवस्था में अपने योग्य अनेकों बाधाओं को तृणवत् उलंघ जाए । क्यों सोच में पड़ गया ? परन्तु सोच की क्या बात है भाई ! देख वह बल है तेरी अपनी कल्पनायें । कल्पनाओं के आधार खी है और कल्पनाओं के आधार पर ही सुखी हो सकता है, कल्पनाओं के आधार पर ही वह योगी इतनी बड़ी पीड़ा को जीत गया और कल्पनाओं के आधार पर ही तू इस समय गृहस्थ सम्बन्धी चिन्ताओं को जीत सकता है। परन्तु वे कल्पनायें साधारण नहीं हैं, उनके पीछे छिपा है तेरा वास्तविक स्वरूप, परम सत्य । दुःखों का आधार भी कल्पनायें हैं, परन्तु उनके पीछे है शून्य अर्थात् वे हैं केवल कल्पनाएँ बिल्कुल निराधार । वर्तमान की रागद्वेष-जनक तथा बाह्य पदार्थों में इष्टानिष्टता-जनक इन कल्पनाओं को बताने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वे तेरी चिर-परिचित हैं, नित्य अनुभव में आ रही हैं। वे विशेष कल्पनाएँ ही जानने योग्य हैं जिनका आधार कि वस्तु-स्वरूप है । ले सुन । ४. बारह भावनायें-(१) क्या सोच रहा है चेतन? क्यों हो रहा है व्याकुल? क्या भूल गया अपना रूप? सत्, चित् व आनन्द स्वरूप? तू तो सत् है शाश्वत है। कौन शक्ति है जो तेरा विनाश कर सके ? क्या इन तुच्छ-सी पीड़ाओं से घबरा गया तू ? याद कर कितनी-कितनी सही हैं, इससे पहले ? कितनी बार मारा गया, खण्ड-खण्ड किया गया तू, पर आज भी यह 'मैं' कहने वाला तू कैसे जीता जागता स्वयं अपने का देख रहा है और वेदन कर रहा है ? ओह ! अब समझा । तेरी दृष्टि क्यों पुन: पुन: इस माँस के पिण्ड पर जा रही है ? क्या भूल-गया है इसके स्वभाव को, कितनी बार धोखा दे चुका है यह तुझे? अब भी विश्वास नहीं आया इसकी कृतघ्नता पर ? ___अरे भोले ! इसका तो स्वभाव ही है आकर जाना । क्या आज तक निभाया है कभी इसने तेरा साथ ? इसका तो स्वभाव ही है विनश जाना । क्यों व्याकुल होता है इसके पीछे ? भेदा जाता है तो भेदा जाए,जाने दे इसे, तुझे क्या । जानेवाला तो जायेगा ही, तू तो नहीं जा रहा है कहीं ? तब उसे ही क्यों नहीं देखता? यह खण्डित होता है तो होने दे, इसका स्वभाव ही खण्डित होने का है, तू तो खण्डित नहीं होता। जिसका आश्रय ही चिन्ता है उसके लिये तू क्यों इतना इतरा रहा है। इस पुतले की बात तो जाने दे यह जो लोक में इतना बड़ा पसारा दिखाई दे रहा है तुझे, उसमें से ही बता कि कौन-सी वस्तु है जो सदा ज्यों की त्यों रही है ? आज कुछ रूप है तो कल कुछ और । सारा जगत ही तो परिवर्तनशील है, परिवर्तन करना इसका स्वभाव है। करता रहने दे परिवर्तन इसे, बदलने दे अपने नाम तथा रूप इसे, जितने चाहे, तुझे तो कुछ नहीं कहते बेचारे । क्यों उनको देख-देखकर फूला जा रहा है ? उन पर से दृष्टि हटा, देख इधर देख, अपने शाश्वत व ध्रुव रूप की ओर। यह सब कुछ तो अधुव है, 'अनित्य' है, इससे काहे का प्रेम, इस पर काहे का (काल रूपी सिंह से बचाने वाला कोई नहीं) गर्व इसके लिए काहे की चिन्ता ? "mgrm SMASTAANHunain Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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