Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 334
________________ ४७. सल्लेखना ( १. उपासक की गर्जना; २. देह-सम्बोधन; ३. समता; ४. समाधि मरण; ५. आत्म हत्या नहीं। १.उपासक की गर्जना–अहो शान्ति के उपासक की अलौकिक घोषणा, 'जीऊँगा तो शान्ति से और मरूँगा तो भी शान्ति से।' एक अंग्रेजी का उपासक कहता है, “हंसना हो तो अंग्रेजी में और रोना हो तो भी अंग्रेजी में।' इसे कहते हैं आदर्श या लक्ष्य-बिन्दु, ध्रुव-संकल्प, आन्तरिक-वीर्य । “लोक की बड़ी से बड़ी बाधा भी मुझे मेरे आदर्श से विचलित करने में समर्थ नहीं । अब तक स्वामी बनकर जीया हूँ, आगे भी स्वामी बनकर जीऊँगा, एक क्षण को भी दासत्व स्वीकार करना मेरे लिये असम्भव है। शरीर जायेगा तो और मिल जायेगा पर शान्ति गई तो फिर नहीं मिलेगी। यदि शरीर सदा के लिए विदा लेकर जाता है तो इससे अच्छी बात ही क्या, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी, न रहेगा शरीर और न रहेंगे इसके सम्बन्धी ये बचेखुचे विकल्प, जो मार्ग में आ-आकर मेरी शान्ति में रोड़ा अटकाते हैं । और मुझे चाहिए ही क्या ? मैं शान्ति का उपासक बनकर निकला हूँ शरीर का नहीं। शरीर गया तो कुछ नहीं गया और शान्ति गई तो सब कुछ लुट गया। मरने से क्या डरना? सबको ही मरना है, मूर्ख हो या पण्डित, भोगी हो या योगी जब मरना ही है तो क्यों ऐसा मरण नमरा जाए कि मरण भी सुमरण बन जाए, मरण का भी मरण हो जाए।” सल्लेखना कहते हैं सत्+लेखना अर्थात् अपने शान्ति-स्वभाव को देखना या उसको ही अपना जीवन समझते हुए चलना । कषायों को कृश करते हुए चलना । शान्ति ही जिसका देश हो, शान्ति ही जिसका शरीर हो, शान्ति ही जिसका सर्वस्व हो, उसके लिए इस चमड़े के शरीर का क्या मूल्य ? पड़ा है तो पड़ा रहे, जावे तो जाये । पड़ा रहने से विशेष लाभ नहीं और जाने से कोई हानि नहीं। साधना पूरी हुई, अब मरने का समय आया है। मरने का नहीं मृत्यु महोत्सव का, साधना की परीक्षा करने का, समतापूर्वक देह को विदा करने का। २. देह सम्बोधन-इसीलिए अपने जीवन काल में वह शरीर को दास बनाकर रखता है लौकिक जनों की भाँति उसका दास बनकर नहीं रहता । शरीर से स्पष्ट कह देता है वह कि, “देख भाई ! तू आया है तो आ मैं तेरे आने में कोई रोड़ा नहीं अटकाता, परन्तु शर्त यह है कि यदि तुझे मेरे साथ रहना है तो जरा सम्भलकर रहना होगा। तेरी वह पुरानी टेव जो लौकिक जनों पर तू आजमाता है । यहाँ नहीं चलेगी, तेरी शक्ति यहाँ काम नहीं कर सकेगी।" और इस अपनी घोषणा की सत्यता का उसे विश्वास दिला देता है । तपश्चरणादि अनुष्ठानों के द्वारा जब शरीर को यह विश्वास हो जाता है कि यह ठीक ही कहता है, तो कुत्ते की भाँति दुम हिलाता हुआ उसका दासत्व स्वीकार कर लेता है । उसके कार्य में उसकी सहायता करता हुआ उसके साथ रहने लगता है, जिसके बदले में वह शान्ति का उपासक उसको योग्य आहार आदि के रूप में कुछ वेतन देना स्वीकार कर लेता है। परन्तु यह बात पहले ही बता देता है कि "देख भाई ! मैं स्पष्टत: तुझे हृदयंगम करा देना चाहता हूँ कि यह वेतन मैं तुझे उसी समय तक दूंगा जब तक कि तू मेरे काम में अर्थात् मेरी शान्ति की साधना में मेरी कुछ न कुछ थोड़ी या बहुत सहायता करता रहेगा। मैं तेरे स्वभाव से भली भाँति परिचित हूँ, मैं इस बात को भला नहीं हैं कि त मत्य का पत्र है. त सब लौकिक प्राणियों को अपने बाहरी प्रपंच में फँसा कर अन्त में उन्हें धोखा दे जाया करता है । भले ही उसने तेरी कितना भी सेवायें की हों पर उस समय तू तोते की भाँति आँखे घुमाकर मानो सब कुछ भूल जाता है, तेरे सब वायदे वेश्या के वायदोंवत् बनकर रह जाते हैं । उसको साफ जवाब देकर, उसके सर्वस्व का अर्थात् शान्ति का अपहरण करके, उसे रोता झींकता छोड़ तू अपना रास्ता नापता दिखाई देता है । बस तो समझ ले कि तेरा वह दाव मुझ पर नहीं चलेगा । तुझे वेतन उसी समय तक दूंगा जब तक कि तू मेरा दास बना मेरी कुछ सहायता करता रहेगा। जिस दिन भी तूने जरा आँख दिखाई कि मैं तुझे वेतन देना बन्द कर दूंगा। फिर भले ही रोना कि चीखना या जगत के जीवों की गवाही लेकर मानवी न्यायशालाओं में आत्महत्या की दुहाई देना, मैं एक नहीं सुनूँगा । यदि तुझे यह शर्त स्वीकार है तो रह, नहीं तो अभी से जहाँ जाना है चला जा, मैं तुझे रोकूँगा नहीं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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