Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 335
________________ ४७. सल्लेखना ३०४ ३. समता ऐसी निर्भीक गर्जना भला शरीर को सुनने का अभ्यास कहाँ ? वह तो जानता है केवल दूसरे को दास बनाना। स्वयं दास बनना उसने सीखा ही कब है ? पर क्या करे, इस योगी के सामने पेश पड़ती न देख दासत्व स्वीकार किए बिना और कोई चारा उसे दिखाई नहीं देता । इसीलिए जीवन काल में वह उस योगी की साधना में सदा सहायक रहता है । स्वाध्याय करने में, तत्त्व-चिन्तन में, आत्मध्यान में, शान्ति के वेदन में, गरुओं का दर्शन ने में, उनका उपदेश सुनने में, अन्य जनों की सेवा में, तथा शान्ति की साधना विषयक अन्य सभी कार्य क्षेत्रों में वह सदा स्वामीभक्त सेवक की भाँति उसका साथ निभाता चलता है, ताकि उसे उसके प्रति कोई सन्देह न रह जाये। सम्भवत: वह सोच रहा हो कि योगी के हृदय पर अपनी सेवाओं की छाप जमाकर उसके चित्त को अपनी स्वामी-भक्ति के सम्बन्ध में पूर्ण विश्वास दिला दे और कदाचित् ऐसा हो जाए तो एक दिन उससे उसके इस रूखे बर्ताव का बदला चुका ले, अर्थात् मृत्यु के अन्तिम समय में उसके घर में डाका डालकर उसका शान्तिधन चुराकर सदा के लिए उससे विदाई ले ले। ३. समता---परन्तु शरीर की यह उपरोक्त धारणा वास्तव में भ्रमपूर्ण है। योगी सदा जागृत रहते हैं, एक क्षण को भी इसके प्रति असावधान नहीं होते। जहाँ भी जरा बुढ़ापे के चिह्न इस पर प्रकट हुए, या किसी असाध्य रोग ने इसे आ घेरा, या कुछ अन्य खराबियों के कारण यह साधना में कुछ बाधक बनने लगा, या इसमें शिथिलता आती दिखाई देने लगी, स्वाध्याय व ध्यान आदि में पूर्ववत् साथ निभाता प्रतीत न हुआ, तब ही योगी उसे वह पहले वाला वायदा याद दिलाकर सम्बोधने लगता है कि, “देख भाई ! परस्पर में हुए उस वायदे के अनुसार हमारा और तेरा नाता अब टूटता है। बुरा न मानना, हमें तेरे प्रति कोई द्वेष नहीं है, बल्कि कुछ करुणा ही है तूने इतने दिन हमारा साथ निभाया, उसके लिए धन्यवाद । मैं जानता हूँ कि तेरा दिल अब मुझे छोड़कर जाने को सम्भवत: न भी हो, पर तू क्या करे, तू तो पराधीन ठहरा। तेरा स्वामी यम का हरकारा तेरे सर पर खडा है. तझे तो उसके साथ जाना ही है. क्योंकि त उसका भोज्य है। मैं यदि उससे तेरी रक्षा करने को समर्थ होता तो अवश्य करता, पर क्या करूँ यह मेरी शक्ति से बाहर है, और सम्भवत: अब भी मैं तुझे वेतन देता रहता यदि इस प्रकार करने से तेरी रक्षा हो सकती होती, परन्तु यह असम्भव है । इसलिए इस अवसर पर आहार आदि देना तुझे तो कोई लाभ नहीं पहुँचा सकेगा, पर मुझे हानि अवश्य पहुँचा देगा, क्योंकि आहारादि के विकल्प उत्पन्न करके यदि तेरी सेवा में मैं जुट जाऊँ तो मेरी ध्यानाध्ययन आदि रूप शान्ति की साधना बाधित हुए बिना न रहे, और तू तो जानता ही है कि शान्ति मुझे कितनी प्रिय है। अत: भाई ! अब मुझे क्षमा करना, जीवनकाल में जो दोष तेरे प्रति मुझसे बने हैं उनके लिए भी तुम मुझे क्षमा करना, और मैं भी इस अवसर पर तम्हारे सब दोषों को क्षमा करता हैं। जाआ भाई जाओ, तुम अपने स्वामी का आश्रय लो, यही तुम्हारा कर्त्तव्य है, और मैं अपनी निधि की सम्भाल करूं। सब को अपना-अपना कर्त्तव्य निभाना ही योग्य है । अच्छा विदा।" इस प्रकार सरलता, शान्ति व समतापर्वक शरीर से अपना लक्ष्य हटाकर अन्तर्ध्यान में लीन होने का अधिकाधिक प्रयत्न करता हुआ शान्ति में खो जाता है वह । उसे इस समय जगत के किसी प्राणी के प्रति या किसी भी पदार्थ के प्रति, पीछी कमण्डल आदि के प्रति या शास्त्र के प्रति या शरीर के प्रति न कोई राग भाव या प्रेमभाव होता है व । शरीर से या किसी साध से या शिष्य से या गरु से या यदि गृहस्थ है तो कटम्ब से, कोई भी बदला लेने की या उन्हें दुःख देने या सताने की भावना हो, ऐसा भी नहीं है। जिस प्रकार शरीर को सम्बोधकर शान्तिपूर्वक उससे विदाई ली उसी प्रकार कुटुम्बादि को भी सम्बोधकर सबको शान्ति प्रदान कर देता है वह । उसके उस समय के मधुर सम्भाषण से किसी को कोई कष्ट हो यह तो सम्भव ही नहीं है, हाँ सबको शान्ति ही मिलती है । जिसके अन्दर में शान्ति पड़ी है वह दूसरों को शान्ति के अतिरिक्त और दे ही क्या सकता है। सबको इस प्रकार सम्बोधता है, “भो मेरे साथियों ! मैं तुम सबका बहुत आभारी हूँ। इस जीवन में आपने मेरी बहुत सेवायें की हैं, उनके बदले में आपको देने को तो मेरे पास कुछ है नहीं, हाँ क्षमा चाहता हूँ। भाईयों ! तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति कोई राग या प्रेम भाव पड़ा हो तो उसे निकाल देना, क्योंकि मिलना और बिछुड़ना इस लोक का स्वरूप ही है । सदा के लिए कौन मिलकर रह सकता है ? सराय के पथिकों की भाँति यह सकल सम्मेल था, अब इसे भुला देना, याद रखने का प्रयत्न न करना । हम कहाँ से आये थे हमें स्वयं पता नहीं, अब कहाँ जा रहे हैं हमें स्वयं पता नहीं, किन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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