Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 242
________________ ३०. दान २११ ५. दान का प्रयोजन समझता है उसके प्रति बनावटी भक्ति और जिसे अपात्र समझता है उसके प्रति दया । 'अ+ पात्र' शब्द का यह अर्थ नहीं कि इस कोटि में गिने गये व्यक्ति दान के पात्र नहीं, अर्थात् उनको दान नहीं देना चाहिए, प्रत्युत यह है कि वे व्यक्ति भी दान के पात्रों में अपना कोई स्थान रखते हैं, और इसलिए इस क्षेत्र में उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उन्हें भी दान अवश्य देना चाहिए, भले दया भाव से दो। हृदय-राज्य की अपेक्षा भक्ति तथा दया में कोई अन्तर नहीं । दया भी उसी प्रकार हृदय का भाव है जिस प्रकार कि भक्ति । इसलिए जिस प्रकार सुपात्र को देखकर बिना किसी बाह्य प्रेरणा के मेरे हृदय में सहज भक्ति उमड़ पड़ती है उसी प्रकार दीन, दुःखी, दरिद्री को देखकर प्रकट होने वाले दया के सहज वेग को मैं कैसे रोक सकता हूँ? यदि उन्हें देखकर वहाँ दया उत्पन्न नहीं होती तो इसका यह अर्थ है कि मेरे सीने में हृदय नहीं पाषाण है और यदि ऐसा है तो सपात्रों को देखकर भी वहाँ भक्ति का उमड़ना सम्भव नहीं है । एक ही हृदय में इस प्रकार की विषमता कैसे सम्भव है कि किसी को देखकर तो उसमें भाव उमड़े और किसी को देखकर नहीं ? यदि वास्तव में मैं हृदय-शून्य हूँ तो मेरा सुपात्रदान भी यथार्थता को कैसे प्राप्त हो सकता है ? क्योंकि हृदय-हीनता के कारण भक्ति भाव से तो वह दिया नहीं जा रहा है; या तो दिया जा रहा है दूसरों की देखम देखी या उसकी ख्याति प्रसिद्धि से प्रभावित होकर, या साम्प्रदायिक आज्ञा के भय से, या उसके पक्ष से । इत्यादि अनेक अभिप्राय हो सकते हैं, परन्तु सहज भक्ति के अभाव में वे सब स्व-पर-हित के लक्षण को प्राप्त करने के लिए समर्थ नहीं हैं। उससे होगी केवल मेरी सामाजिक प्रसिद्धि और तत्फल-स्वरूप 'मैं बड़ा दानी तथा भक्त हूँ' इस प्रकार के मिथ्या अभिमान की पुष्टि । हृदय-सम्पन्नता में इस प्रकार की विषमता सम्भव नहीं। जिस प्रकार अपनी शान्ति की अभिवृद्धि तथा संरक्षण इष्ट है उसे, उसी प्रकार दूसरों की भी शान्ति अथवा सुख का अभिवर्द्धन तथा संरक्षण इष्ट है उसे । जिस प्रकार अपनी शान्ति की बाधा असह्य है उसे उसी प्रकार दूसरों की भी शान्ति की अथवा सुख की बाधा असह्य है उसे । जिस प्रकार अपनी तथा अपने कुटुम्ब की शान्ति के अर्थ हर प्रकार से सहायता करता है वह उनकी, उसी प्रकार दूसरों की शान्ति के अर्थ भी हर प्रकार से सहायता करता है वह उनकी। ... _ 'मुझसे पैसा लेकर यह दरिद्री अनर्थ में प्रवृत्त होगा, माँस खायेगा अथवा वेश्या-गमन करेगा' इत्यादि बातें अपनी हृदय हीनता को छिपाने के बहाने हैं। बात तो वास्तव में यह है कि या तो ये बहाने करने वाला वह व्यक्ति अतिलोभी है और या कट्टर साम्प्रदायिक । जिसे उसने अपना गुरु मान लिया है उसे तथा उसकी संस्था को तो दान देता है और अन्य सबके प्रति इस प्रकार के बहाने करके हाथ खेंच लेता है। प्रभो ! सोच तो सही कि इस विशाल विश्व की गोद में केवल उस एक व्यक्ति-विशेष को छोड़कर जिसे कि उसने गुरु माना है, कौन ऐसा व्यक्ति रह जाता है जिसे कि वह पात्र कह सके ? उसके लिए एक व्यक्ति को छोड़कर सारा जगत अपात्र ही नहीं अगात्र है अर्थात् देहहीन जड़ पाषाण है अथवा असत् या शून्य है । डर प्रभु ! डर इस कण्टकपन्थी तथा कट्टरपन्थी से डर । देना सीख मुक्त हस्त से, जो कोई भी तेरे द्वार पर आए-सुपात्र कुपात्र या अपात्र, साधु या दुःखी दरिद्री। सुपात्र को दे भक्ति भाव से और अपात्र को दे दया भाव से, पर दे सब को।। ५. दान का प्रयोजन—दान के प्रयोजन को ठीक-ठीक न जानना ही वास्तव में इन सब संकीर्ण आशंकाओं की उपज का हेतु है । यदि दान का प्रयोजन ठीक-ठीक अवगत हो जाए तो फिर इनमें से किसी को भी अवकाश नहीं रहता। प्राय: दातार के हृदय में ऐसा भाव रहता है कि 'मैं इस दानार्थी व्यक्ति को अथवा संस्था को कुछ देकर उसका उपकार कर रहा हूँ, उस पर बड़ा भारी एहसान कर रहा हूँ। यदि इसको कुछ न दूँ तो यह मर जाए और इस संस्था का काम न चले।' इस प्रकार के भाव से दिया गया दान वास्तव में दान नहीं अहंकार है, क्योंकि जिस परमार्थ-भूमि की यहाँ बात चल रही है उसमें धन है ही किसका और कौन किसी को क्या दे सकता है ? सब यहाँ ही था, यहाँ ही रहेगा । न कोई कुछ साथ लाता है, न ले जाता है । यहाँ आने पर व्यक्ति को उसके कर्मानुसार स्वत: प्राप्त हो जाता है, और जाने पर यहाँ ही रह जाता है । सब पुण्य-पाप का खेल है, और क्या ? यह दरिद्री व्यक्ति भी वास्तव में तुम जैसा ही है । अन्तर केवल इतना है कि पूर्व-भवों में कहीं इसने कोई ऐसा दुष्कृत किया है जिसके फलस्वरूप आज इसकी यह गति हुई है। उसी पाप के फलस्वरूप इसे धर्म व अधर्म का कुछ विवेक नहीं है। इसलिए दया का पात्र है, न कि घृणा का। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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