Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 296
________________ ४०. उत्तम-तप २६५ ३. षड्विध आभ्यन्तर तप सौभाग्यवश गुरुदेव ही हों तब तो कहने ही क्या, सोने पर सुहागा । जिस-किसी साधारण व्यक्ति के समक्ष तो यह कार्य किया भी नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा करने से व्यर्थ की लोक-निन्दा के अतिरिक्त और मिलता ही क्या है? दुर्भाग्यवश गुरुसम्पर्क प्राप्त न हो तो मन्दिर में भगवान तो हैं, उनके समक्ष ही सही, अकेले में करने की अपेक्षा तो यह अच्छा है ही। गुरु की या भगवान की साक्षी में ली गयी प्रतिज्ञायें प्राय: भंग नहीं होती, जबकि अकेले में ली गई प्रतिज्ञाओं में इतना बल नहीं होता। यह क्रिया साँझ, सवेरे दोनों समय करें तो बहुत अच्छा है, अन्यथा साँझ को तो अवश्य करनी ही चाहिए क्योंकि रात की अपेक्षा दिन में दोष अधिक होते हैं तथा उन्हें स्मृति का विषय भी बनाया जा सकता है। अन्तरंग के इन दोषों से अपनी रक्षा करने के लिए ही साधुजन प्राय: गुरु या आचार्य की शरण में निर्भय रहते हैं। जैसे शारीरिक रोगों का निदान करने में वैद्य समर्थ है, उसी प्रकार आत्मिक रोगों का अर्थात् जीवन में लगे अनेक दोषों की सूक्ष्म दृष्टि से खोज करने में आचार्य-प्रभु समर्थ हैं। जिस प्रकार शारीरिक रोग के प्रशमनार्थ खूब सोच-समझकर उस रोग के अनुसार वैद्य औषधि देता है, उसी प्रकार खूब विचार कर उस-उस आत्मिक दोष के प्रशमनार्थ उसी के अनुसार आचार्य-प्रभु शिष्यों को प्रायश्चित्त देते हैं । जिस प्रकार एक ही रोग होते हुए भी रोगी की शक्ति की हीनाधिकता के कारण वैद्य हीनाधिक मात्रा में औषधि देता है, अर्थात बालक को कम-बडे को अधिक, दर्बल को कम-हृष्ट-पष्ट को अधिक, उसी प्रकार एक ही दोष होते हुए भी दोषी-शिष्य की शक्ति की हीनाधिकता के कारण आचार्य हीनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं। जिस प्रकार हीनाधिक औषधि देने में वैद्य को किसी से प्रेम और किसी से द्वेष कारण नहीं है, उसी प्रकार हीनाधिक प्रायश्चित्त देने में आचार्य को किसी से राग और किसी से द्वेष कारण नहीं है । जिस प्रकार कड़वी भी औषधि रोगी के हितार्थ होने के कारण अमृत है, उसी प्रकार कड़ा भी प्रायश्चित्त शिष्य के अन्तर्शोधन का कारण होने से अमृत है । जिस प्रकार कड़वी भी औषधि को रोगी स्वयं वैद्य के पास जाकर ज़िद करके लाता है, उसी प्रकार कड़े से कड़ा प्रायश्चित भी शिष्यजन स्वयं आचार्य के पास जाकर जिद करके लेते हैं। जिस प्रकार रोगी औषधि में अपना हित समझता है, उसी प्रकार शिष्य भी प्रायश्चित्त में अपना कल्याण देखते हैं, उसे दण्ड नहीं समझते, बड़े उत्साह से अपना सौभाग्य समझते हुए. ग्रहण करते हैं तथा अपने जीवन को उस प्रायश्चित्त के द्वारा स्वयं दण्डित करते हैं। (२) दूसरा आभ्यन्तर तप है 'विनय', शान्ति-नगर की यात्रा का प्रथम सोपान जिसका देव पूजा गुरु-उपासना और स्वाध्याय के प्रकरणों में कथन किया जा चुका है, जिसके बिना इस दिशा में एक पग-भी आगे रखा जाना सम्भव नहीं। इसके बिना न उपलब्धि हो सकती है देव की, न गुरु की और न उनके दिव्योपदेश की । अभिमानी बनकर कौन उपलब्ध कर सकता है कुछ ? भले समझता रहे वह अपने घर में बैठा अपने को महान् पर जानते हैं जानने वाले कि तुच्छ है बेचारा । चाहे हो वित्ताभिमानी, चाहे रूपाभिमानी, चाहे बलाभिमानी, चाहे ज्ञानाभिमानी, और चाहे तपाभिमानी; सब हैं तुच्छ, पतन के पात्र । नयी कुछ उपलब्धि तो दूर, जो लेकर आये हैं पूर्व भवसे वे अपने साथ, उसे भी गँवा देते हैं वे। न हो सकता है उनका कोई देव, न गुरु और न अपने अतिरिक्त कोई आदर्श । अपने से अधिक दीखता ही नहीं उन्हें कुछ, हो तो कैसे हो ? मैं किसी से कुछ प्राप्त करना चाहूँ और खड़ा हो जाऊँ उसके सामने उद्दण्ड की भाँति; न नमन, न नम्रता, न सेवा, तो क्या कुछ ले सकता हूँ उससे ? स्कूल के गुरु की विनय न करे तो क्या सीखे ? इसीलिए आज के विद्यार्थी स्कूल से उतना कुछ सीखकर नहीं निकलते जितना कि पहले के विद्यार्थी सीखकर निकला करते थे, क्योंकि आज गुरु की विनय युवकों में उतनी नहीं रही है। रावण मृत्यु शैयापर पड़ा था, भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा “भाई ! जाओ इस अन्तिम समय में रावण से कुछ सीख लो, जीवन में तुम्हारे काम आयेगा, वह बड़ा अनुभवी पण्डित है। यदि नहीं सीखोगे तो समस्त विद्यायें उसके साथ ही चली जायेंगी।" लक्ष्मण गया और रावण के सिरहाने खडा होकर अपना अभिप्राय प्रकट किया। उसे मौन देखकर निराश वापिस लौट आया और राम से बोला कि “भगवन् ! वह बड़ा अभिमानी है, बोलता नहीं।" राम बोले "भूलता है, लक्ष्मण ! अभिमानी वह नहीं तू है, स्वभाव से ही तू उद्दण्ड है, तूने अवश्य उद्दण्डता दिखाई होगी, वह कैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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