Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

View full book text
Previous | Next

Page 305
________________ ४१. ध्यान २७४ ७. भावना-भावन ७. भावना-भावन-धर्म-ध्यान का दूसरा रूप है भावना-भावन । शास्त्रोक्त पाठ आदि का अवलम्बन लेकर अथवा स्वत:, शब्द-सापेक्ष अथवा शब्द-निरपेक्ष, जिह्वा से उच्चारण करते हुये अथवा केवल विचाररूप, हृदय में कुछ ऐसी भावनायें जागृत कीजिये जिनके सद्भाव में चित्त लौकिक विषयों से विरक्त होकर अन्दर में डूबने लगे। अनेकों हो सकती हैं ऐसी भावनायें, यथा-क्षेत्र तथा यथा-काल, परन्तु आगमगत १२ वैराग्य भावनाओं का उल्लेख कर देना ही पर्याप्त है यहाँ । यद्यपि इनका विस्तार आगे किसी प्रकरण में किया जाने वाला है (देखो ४५.४) तथापि प्रयोजनवश यहाँ भी उनका उल्लेख करने में कुछ हानि नहीं है, क्योंकि वहाँ इनको जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है, यहाँ उनका उससे कुछ भिन्न प्रकार का रूप होगा। १. हे मन् ! तू इस दृष्ट जगत की ओर क्यों लखाता है? क्या रखा है यहाँ ? सब कुछ 'अनित्य' है। अब है और अगले क्षण नहीं। क्या भरोसा है इसका ? किसी की भी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं, किन्हीं सत्ताओं की उत्पन्नध्वंसी अवस्थायें ही तो हैं, सागर की तरंगोवत् । उनकी ये चंचल अवस्थायें भी तो विद्यमान नहीं है, इस समय तेरे समक्ष । तेरे समक्ष तो विद्यमान हैं मात्र तेरे असत् विकल्प, जिनको तू स्वयं बना-बनाकर मिटाये जा रहा है और स्वयं ही उनमें रुले जा रहा है । सम्भल, अपने घर में स्वयं ही आग न लगा, अपनी शक्ति का दुरुपयोग न कर अथवा इसे व्यर्थ न गँवा । महान कार्य की सिद्धि करनी है तझे इससे, शांति-प्राप्ति की। २. अपनी शक्ति के द्वारा अपने में उत्पन्न की जाने योग्य इस शान्ति के लिये इन बाह्य पदार्थों की शरण में जाते हुए,इनका द्वार खटखटाते हुए,इनसे भिक्षा माँगते हुए क्या लाज नहीं आती तुझे? समस्त विश्व का अधिपति होकर भी क्यों व्यर्थ भिखारी बना भटक रहा है तू? हट वहाँ से और इधर आ अपने भीतर, इस चेतन-महाप्रभु की शरण में, भरा पड़ा है जहाँ तेरा अपना अनन्त वैभव । स्थायी है वह और सत्य। ३. सब कछ संसरणशील है यहाँ. इस नि:सार जगत में । अभी उत्पत्ति और अभी विनाश अभी जन्म और अभी मरण । एक भगदड़ मची है सर्वत्र, इसके अतिरिक्त और क्या है यहाँ ? और इसीलिये भगदड़ मची है तेरे अन्दर भी, एक विकल्प आया और दूसरा गया। जो कुछ किसी के पास है वही तो देगा वह अपने शरणार्थी को। इसके पास है भगदड़, और वही दे रहा है यह तुझको । छोड़ प्रभु ! छोड़, अब इसकी शरण को छोड़ और आ इधर, अपने भीतर, चेतन-महाप्रभु की गोद में, और स्नान कर शान्तिसर के नीरंग और निस्तरंग शीतल जल में; भव-भव का संताप दूर हो जायेगा तेरा। ४. हे चित्त ! किसको कह रहा है तू अपना? भवसागर में गोते खाता, थपेड़े सहता, इस तरंग से उस पर और उस तरंग से इस पर फैंका जाता तू यहाँ किसे कहता है अपना? सब तुझसे भिन्न हैं, अन्य हैं, पर हैं । रेल में सफर करने वाले यात्री को मार्ग में न जाने कितने टकराये और कितने छूटे, घर लौटे तो एक भी साथ नहीं, सभी चले गये जहाँ-जहाँ जिसे जाना था। माता-पिता, स्त्री-कुटुम्ब, प्रेमी-बान्धव सभी उतर जाने वाले हैं अपने-अपने स्टेशन पर । क्यों व्यर्थ देखता है इनकी ओर आशाभरी दृष्टि से? हट वहाँ से इधर आ, अपने हृदय की उस गहराई में जहाँ न कुछ आता है और न कुछ जाता है, जो है वही रहता है और वैसा ही रहता है। ५. अकेला ही आया है और अकेला ही चला जायेगा। न कोई आया है तेरे साथ और न कोई जायेगा तेरे साथ । सब दुःख सुख भोगेगा तू स्वयं, कोई बँटवाने वाला नहीं। क्यों व्यर्थ चिन्ता करता है इनकी, क्यों व्यर्थ सहायता खोजता है इनकी, इस अखिल जड़-चेतनवर्ग की? न कुछ अनुकूल है यहाँ न प्रतिकूल, न इष्ट न अनिष्ट । हट यहाँ से, आ अपने भीतर, देख इस चैतन्य महाप्रभु को । यही है तेरा पिता और माता, यही है तेरा पुत्र और पत्नी । सब कुछ यही है, इष्ट भी और अनिष्ट भी, शत्रु भी और मित्र भी, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। इसमें से ही उद्भव हुआ है तेरा और तेरे सर्व द्वन्द्वात्मक विकल्पों का, तथा इसी में समा जाने वाला है तू और तेरे ये सकल द्वन्द्व । यही है ईश्वर, सृष्टा, कर्ता, धर्ता और संहर्ता, सकल जगत का, बाह्य जगत का और आभ्यन्तर जगत का। ६. जिसके प्रति जा रहा है तू दौड़ा हुआ पागलों की भाँति, क्या देखा है हे मन ! तूने उसका वीभत्स रूप कभी, चिकने-चिकने चमड़े से मँढ़ा हुआ मांसास्थि पञ्जर, विष्टा का घड़ा, महा अशुचि, महा अपवित्र । कौन सुन्दरता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346