Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 322
________________ ४४. उत्तम ब्रह्मचर्य २९१ ३. क्रमोन्नत विकास आठवीं श्रेणी में पदार्पण करने पर अन्तरंग के इन सूक्ष्म संस्कारों को भी काटकर पूर्णशुद्ध, पूर्ण-निर्विकल्प, सहज स्वभावस्वरूप परमात्मा अर्थात् अरहन्त पद को प्राप्त हो जाता है। यहाँ पर वह शील में बाधक १८००० दोषों से मुक्त हो जाता है अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचारी हो जाता है । यद्यपि शरीर बाकी रह जाता है तदपि मोह तथा रागद्वेष का पूर्णतया अभाव हो जाने से इसके सम्बन्ध में कोई विकल्प नहीं रहता । मार्ग समाप्त हो जाता है। शरीर को भी त्याग देने पर लक्ष्य तथा साध्य को पूर्णतया प्राप्त कर लेने के कारण पूर्ण ब्रह्म, सिद्धप्रभु बन जाता है वह । यद्यपि आदर्श ब्रह्मचर्य-धर्म का पालन तो योगी जन ही करते हैं, तदपि हम भी अपनी योग्यतानुसार कर सकते हैं। हे शान्ति के उपासक ! निज शान्ति की रक्षा के लिए अन्तर्दाह को उत्पन्न करने वाले इस स्त्री-संसर्ग का कुछ परिमाण कर । परस्त्री, वेश्या व दासी का तो त्याग होना ही चाहिए, स्वस्त्री में भी दिन के समय काम-भोग का त्याग अवश्य कर, तथा पर्व के दिनों में पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण करके आगे बढ़ने का अभ्यास कर । जैसा कि व्रतों के प्रकरण में पहले बताया जा चुका है, पथिक के मार्ग में अनेकों रुकावटें आती हैं और व्रतों में भी अनेकों बार दोष लग जाते हैं । यहाँ भी उसे भूलना नहीं चाहिए । ब्रह्मचर्य या त्याग धर्म का उपरोक्त रीति से पालन करते हुए साधक को दोष लग जाने की सम्भावना है, यह कषायों की विचित्रता है। उन दोषों का साधक को प्रायश्चित्, आत्म-निन्दा तथा गर्हा द्वारा निर्मूलन करते रहना चाहिए और आगे के लिए अत्यन्त सावधान रहना चाहिए । 22 पूर्ण ब्रह्मचारी हैं ये, समस्त संस्कारों तथा वासनाओं को जीतकर अर्हन्त पद के द्वार पर स्थित भगवान् महावीर, उर्वशी तथा रम्भासी देवकन्यायें भी जिन्हें स्वरूप स्थिति से चलित करने को समर्थ न हो सकीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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