Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 303
________________ ४१. ध्यान २७२ ५. मन्त्र-जाप्य की कोटि में गिने जा सकते हैं। तदपि इस ध्यान का वह रूप दर्शाना इष्ट है यहाँ जिसका कि साधक केवल इसी प्रयोजन से एकान्त में बैठकर अभ्यास करता है। अनेक प्रकार से किया जा सकना सम्भव है यह अभ्यास-मंत्रजाप्य द्वारा, स्तोत्रादि के पाठ द्वारा, भावना-भावन द्वारा, तत्त्व-चिन्तवन द्वारा अथवा निरीह वृत्ति से ज्ञातादृष्टा-मात्र बनकर रहने के द्वारा । जैसा कि पहले बताया गया है साधक का कर्तव्य है कि अपनी भूमिकानुसार उसे जो उपयुक्त जंचे उसी का अवलम्बन ले, अन्य का नहीं। ५. मन्त्र-जाप्य धर्मध्यान का सर्वप्रथम तथा सर्वसरल रूप है मन्त्रजाप्य, जिसका इस क्षेत्र में बड़ा महत्त्व है। अनेको मन्त्र हैं जैसे 'पंचणमोकार मन्त्र', इस मन्त्र के आद्य अक्षर 'अ सि आ उ सा', केवल 'अर्हन्त' शब्द अथवा केवल 'सिद्ध' शब्द, अथवा 'ॐकार' अथवा 'ॐनमो भगवते महावीराय' इत्यादि इत्यादि । अपनी रुचि तथा श्रद्धा के अनुसार साधक जिसका भी चाहे अवलम्बन ले सकता है। 'प्रणव अर्थात्' 'ॐ' मन्त्र की बड़ी महिमा है । 'अ उ म्' इन अढ़ाई अक्षरों का यह शब्द सभी मन्त्रों का राजा है, कारण कि ऊपर से छोटा सा दीखने वाला इसका रूप अपनी विशाल कुक्षि में सकल विश्व समेटकर बैठा हुआ है। कोई भी भाव अथवा किसी भी मन्त्र का अर्थ ऐसा नहीं जिसे इसमें समाविष्ट न किया जा सके। १. पंच परमेष्ठी-वाचक नामों के आद्य अक्षरों की सन्धि से व्युत्पन्न यह शब्द णमोकार मन्त्र का प्रतीक तो है ही, इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है । 'अ' का अर्थ अधोलोक, 'ऊ' का अर्थ ऊर्ध्वलोक और 'म' का अर्थ मध्य लोक । इस प्रकार तीनों लोक बैठे हैं इसके गर्भ में । २. इतना ही क्यों? ॐ कार का अर्थ है नाद, कण्ठ, ताल, जिह्वा, ओष्ठ आदि में किसी प्रकार की भी क्रिया उत्पन्न किये बिना अन्दर से उदित होने वाली सामान्य-ध्वनि, जैसे कि 'अ.....' । कवर्ग आदि सर्व अक्षरसमूह है इसमें कण्ठ, तालू आदि के द्वारा उत्पन्न किये गये विकार । कण्ठ को सुकेड़ लेने पर वह ध्वनि बन जाती है कवर्ग, जिह्वा के मध्य भाग को तालू के साथ लगा देने पर बन जाती है चवर्ग, जिह्वा के अग्रभाग को तालू के साथ लगा देने पर वह बन जाती है टवर्ग और उसे ही दन्त के साथ टकरा देने पर वह बन जाती है तवर्ग । इसी प्रकार होठों को परस्पर मिला देने पर वही ध्वनि हो जाती है पवर्ग । तात्पर्य यह कि सर्व अक्षर समूह में अनुगत है वह, माला के दानों में पिरोए गए डोरे की भाँति । इस प्रकार सकल अक्षर, उनके संयोग से उत्पन्न विविध भाषायें तथा उपभाषायें, उन विविध भाषाओं में दिए गए सकल व्यवहारिक तथा पारमार्थिक उपदेश और सकल व्यवहारिक तथा पारमार्थिक-साहित्य, सब कुछ पड़ा है इस छोटे से मन्त्रराज के पेट में । इसीलिये सकल श्रुतज्ञान का, सकल द्वादशांग वाणी का प्रतीक है यह अकेला। ३. 'अ' का अर्थ है अनुस्यूति, क्योंकि 'क' 'ख' आदि सभी अक्षरों में अनुक्त रूप से अनुस्यूत रहता है यह । 'उ' का अर्थ है उत्पाद, और 'म' का अर्थ है विराम अर्थात् नाश या व्यय । इस प्रकार उत्पाद व्यय तथा इन दोनों में अनुस्यूत ध्रौव्य इन तीनों का ही युगपत वाचक है यह। और यदि इन तीनों को ही समेट लिया इसने तो फिर रह क्या गया? भूत, वर्तमान, भविष्यत ये तीनों काल, ऊर्ध्व, अधो, मध्य ये तीनों लोक, सकल तुज्ञान, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीनों स्वभाव, सब कुछ बीज रूप से स्थित है इसमें । कहाँ तक गाई जाए इसकी महिमा,कोई भी ऐसा विषय नहीं जो इसके गर्भ में न समा जाता हो । सत्य-असत्य, सम्भव-असम्भव, स्थूल-सूक्ष्म, अन्तरंग-बहिरंग, सब कुछ पड़ा है इसकी कुक्षि में, और इसीलिये इतना ऊँचा स्थान है भारतीय संस्कृति में इसका । जैन तथा अजैन सभी क्षेत्रों में अपनी-अपनी श्रद्धा तथा सिद्धान्त के अनुसार समान रूप से पूज्य है यह । शब्द की शक्ति अचिन्त्य है, कारण कि वह अकेला न रहकर रहता है सदा अपने वाच्यार्थ के साथ । वाच्य-वाचक सम्बन्ध ध्रुव तथा अविच्छिन्न है। किसी भी शब्द का उच्चारण करने पर उसका वाच्यार्थ बिना बुलाए सामने आकर खड़ा हो जाता है, जिस प्रकार कि 'बेटा' इतना मात्र कहने से आपके पुत्र जिनदास की आकृति स्वत: आकर खड़ी हो जाती है आपके समक्ष । भले ही जिह्वा-प्रदेश पर अथवा श्रोत्र-प्रदेश पर समाप्त हो जाने वाले रटे-रटाए शब्दों में यह लक्षण दृष्ट न हो, जैसे कि नित्य भक्तामर स्तोत्र का पाठ करते हुये 'भक्तामर' शब्द का उच्चारण होने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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